बचपन की बात है। हम बच्चों की टोली अपने ढंग से होली खेलने में मस्त थी।
श्रीकिशुन चाचा (गाँव में वे
"मोछू" नाम से जाने जाते हैं। आज सत्तर से ऊपर उम्र है, मगर मूँछें आज
भी कड़क हैं।) हमें बुलाकर सभी बच्चों की हथेली पर एक-एक गोली रख देते हैं। दोस्तों
ने बताया, यह भांग है। मैंने सोचा, सभी तो नहीं, मगर दो-तीन दोस्त तो इसे खायेंगे
ही, खासकर- उत्तम और रंजीत, और मैंने खा लिया।
बच्चों की होली काफी सुबह शुरु होती है,
जबकि बड़ों की होली देर से। अपनी होली खत्म कर हमलोग बड़ों की एक टोली के साथ
पिछलग्गू बनकर घूम रहे थे। रेल लाईन हमारे बरहरवा को दो हिस्सों में बाँटती है। उस
पार जाने के लिए जब टोली रेलवे क्रॉसिंग से गुजर रही थी, तब मुझे अहसास हुआ कि
मेरे पैरों में पाईप डालकर उसमें कोई हल्की गैस भर दी गयी है- अगर मैं जरा भी
उचका, तो हवा में उड़ने लगूँगा। मैं सम्भल कर जमीन पर पैर जमाते हुए चलने लगा। मैं
नहीं चाहता था कि किसी को पता चले कि मैंने भांग खा ली है।
अपने को नियंत्रित रखते हुए मैं सही-सलामत
घर लौट आया। इसके बाद हम सभी दोस्त उत्तम के घर के पीछे वाले तालाब में नहाने गये।
नहाने की बात पर याद आया- होली में अक्सर
हमलोग अलग-अलग तालाबों में नहाने जाते थे। एकबार 'साहेब पोखर' में नहाते वक्त
मजेदार वाकया हुआ था। बिनय जैसे ही नहाकर बाहर आया, किसी ने लाल रंग चुपके से उसके
माथे पर डाल दिया। बाद में सभी गम्भीरता से कहने लगे- अरे, जब तुम तैर रहे थे, तब 'पनडुब्बी'
(पानी में रहने वाली काले रंग की एक चिड़िया) ने कहीं चोंच तो नहीं मार दिया? खून
निकल रहा है! वह दुबारा डुबकी लगाकर निकला- फिर किसी ने चुपके से रंग डाल दिया!
बहुत देर के बाद उसे मामला समझ में आया था।
खैर, नहाते वक्त जब मेरे दोस्तों ने देखा
कि मैं बालों में साबुन घुमाये जा रहा हूँ- घुमाये जा रहा हूँ, तब वे समझ गये कि
मुझपर भांग का असर हो गया है। तब मुझे पता चला कि मेरे अलावे किसी ने वह गोली नहीं
खायी थी- कुछ ने नाटक किया था खाने का। खैर, अब उपाय पर चर्चा हुई। पता चला,
नीम्बू का अचार खाना पड़ेगा। मैंने सोचा, अगर मैंने माँ से नीम्बू का अचार माँगा,
तो सबको पता चल जायेगा। तब प्रीतम ने कहा, हम अपने घर ले आयेंगे।
प्रसंगवश, प्रीतम मेरा गहरा दोस्त रहा है।
18-20 की उम्र में ही वह हमें छोड़कर चला गया। उसके बारे में जब भी सोचता हूँ, मुझे
शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित एक चरित्र "लालू" की याद आ जाती है।
घर आकर जब मैंने देखा कि प्रीतम आने में
देर कर रहा है और मेरी हालत खराब होती जा रही है, तब मैंने चाची को जाकर भांग वाली
बात बता दी। चाची बोली, कोई बात नहीं, हम पानी गर्म कर देते हैं, एक कप गुनगुना
पानी पी लो। लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि इससे उल्टी होगी। वर्ना मैं पिछवाड़े
में जाकर वह पानी पीता।
मैंने आँगन में ही पानी पी लिया। प्रीतम भी नीम्बू का अचार ले आया।
अचार का एक या दो टुकड़ा ही काटा था कि जोर से उल्टी आने लगी। मैं भागकर पिछवाड़े
में गया, मगर तब तक सबको पता चल गया कि मैंने भांग खायी है।
खैर, उल्टी करके आराम मिला।
पिताजी ने चेतावनी दी- भूलकर भी भांग नहीं खाओगे।
***
वर्षों बाद।
वायुसेना स्थल, महाराजपुर, ग्वालियर में 'जी-3' बिल्लेट। 'बिल्लेट'
यानि बैचेलर वायुसैनिकों का डोरमिट्रीनुमा आवास- इसे 'लिविंग-इन' कहा जाता है।
जी-3 में हम करीब 28 बन्दे थे। होली से पहले बातचीत के क्रम में भांग का जिक्र आ
गया और मैंने अपना अनुभव बता दिया कि इसका नशा होने पर आदमी जो काम करता है, वह
करता रह जाता है। आम तौर पर हँसी नहीं रुकती। बहुतों को "उड़ने" का अहसास
होने लगता है।
पता चला, उनमें से किसी को भी इसका अनुभव नहीं था। आनन-फानन में
फैसला हो गया- रम-व्हिस्की को मारो गोली, इसबार होली में ठण्डई बनेगी- वह भी भांग
वाली!
बिल्लेट
में कई लड़के अलग से दूध लिया करते थे। होली की पूर्व सन्ध्या पर सबका दूध जमा कर
लिया गया। सूखी भांग का किसी ने जुगाड़ किया था, उसे रातभर भींगने के लिए रख दिया
गया। सुबह 'गुड्डे' के बिल्लेट से भांग पीसने के लिए 'सिल-बट्टा' लाया गया। अभिजीत
को हमलोग 'गुड्डा' कहते थे- वह आम तौर पर हमलोगों के साथ ही रहता था। हम तीन दोस्त-
राजीव देवगण, अभिजीत दत्ता और जयदीप दास- अक्सर साथ रहते थे और हमें 'थ्री-डी'
(देवगण-दत्ता-दास) कहा जाता था। रात हमारे बिल्लेट में मेस की दाल को प्यांज,
टमाटर से तड़का लगाया जाता था, या फिर दाल में अण्डा डालकर उसे फ्राय किया जाता था;
मगर गुड्डे के बिल्लेट में बाकायदे अलग से सब्जी, मांस-मछली वगैरह बनती थी, इसलिए
उनके पास मसाला पीसने के लिए सिल-बट्टा था।
खैर, दूध में पिसी हुई भांग मिलायी गयी।
'किच्चू' (कृष्णा कुमार) बाहर लॉन से गुलाब की पंखुड़ियाँ तोड़ लाया- उसे भी पीसकर
मिला दिया गया। चीनी वगैरह भी मिलाया गया।
अब सबने गिलास भर-भर के पीना शुरु किया।
सबके मुँह से यही एक बात- कहाँ कुछ हो रहा है? मैंने कहा- दो-तीन घण्टे बाद जब
गर्मी बढ़ेगी, तब इसका असर शुरु होगा, इसलिए ज्यादा मत पीओ। कौन सुनने वाला था? पी-पीकर
भगोने को खाली कर दिया गया- राउल ने तो हद कर दी- तलछट में बची भांग भी वह खा गया!
कुछ देर बाद हम बाहर निकले। 'लिविंग-आउट' यानि
फैमिली क्वार्टर्स होते हुए पटेल मार्केट जाकर वापस आना तय हुआ। जाते वक्त तो सभी
सामान्य थे। परिचितों से मिलते-जुलते, रंग खेलते, पकवान खाते हुए हमसब पटेल
मार्केट तक गये।
वापसी के समय गर्मी बढ़ गयी। कुछ लड़कों की चाल लड़खड़ाने लगी। राउल को
सबसे ज्यादा प्यास लगने लगी। वह रास्ते में मिलने-जुलने वालों से मस्ती भी ज्यादा
करने लगा। लोग भी उसपर बाल्टी भर-भर कर रंग डाल रहे थे। मैंने किच्चू तथा कुछ अन्य
लड़कों से, जो पूरे होशो-हवास में थे, कहा- जितनी जल्दी हो सके, सबको लेकर बिल्लेट
पहुँचने की कोशिश करो, नहीं तो तमाशा हो जायेगा।
सौभाग्य से, तमाशा नहीं हुआ। बिन
गिरे-पड़े, बस हँसते-खिलखिलाते सभी लिविंग-इन इलाके में पहुँच गये।
तय हुआ, मेस में खाना खाते हुए चलते हैं। पहले मेस ही पड़ता था।
डायनिंग टेबल पर खूब ठहाके लगाते हुए सभी खाना खा रहे थे। अचानक किसी को उल्टी आ
गयी- पिचकारी की तरह उसकी उल्टी की धार सारे टेबल पर फैल गयी। डायनिंग हॉल में
बैठे अन्य लड़कों को कोई ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ। हम 'जी-3' वाले मौज-मस्ती के लिए
पहले से ही बदनाम थे। जिस रात अपने लॉन में हम पार्टी की तैयारियाँ करते थे, उस
रात अगल-बगल के बिल्लेट वाले समझ जाते थे कि आज देर रात तक सोना मुश्किल हो
जायेगा!
खाना अधूरा छोड़कर हम बिल्लेट में आये। अपनी-अपनी चारपाई पर बैठकर
सभी एक-दूसरे की ओर ईशारा करके कह रहे थे- अरे देखो उसे, भांग चढ़ गयी.... और फिर
ठहाके-ही-ठहाके।
अब ठीक से याद नहीं कि शाम कब तक और कैसे सबकी हालत सुधरी थी!
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