बुधवार, 13 अगस्त 2014

119. एण्टीबायोटिक, संगीत शिक्षक तथा अभिमन्यु



       "जयदीप, ये जो एण्टीबायोटिक दवायें हैं न, ये एक दिन बेकार साबित होने जा रही हैं These Antibiotic medicines are going to be failed." –ये बातें जिन्होंने मुझसे कही थी, वे न तो कोई डॉक्टर थे, न विज्ञान की किसी शाखा के जानकार थे। वे संगीत शिक्षक थे। एक दृष्टिहीन संगीत शिक्षक।
       बात 1989 के शुरु की है। कानपुर के लाल बंगला में एक छोटे-से संगीत विद्यालय में मैं (यूँ ही) शामिल हो गया- दरअसल मेरे पास अतिरिक्त समय था। गुरुजी भी समझ ही गये होंगे कि संगीत इसके बस का रोग नहीं है!
       खैर, जब कभी अखबार में ऐसी रपटें देखता हूँ, जिनमें कि एण्टीबायोटिक दवाओं के भविष्य में असफल साबित होने का जिक्र होता है, तब मुझे उन गुरुजी की बात याद आती है और इसी बहाने श्रद्धा के साथ मैं उन्हें नमन कर लेता हूँ।
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       जब बात निकल ही गयी है, तो.....
उनकी श्रवण शक्ति गजब की थी- यह तो मैं समझ गया था, मगर "कण्ठध्वनि" से वे किसी के चरित्र, स्वभाव इत्यादि का भी अनुमान लगा सकते हैं- यह मैं नहीं समझा था। उनसे मेरी व्यक्तिगत बातचीत कम ही हुई होगी, पर पता नहीं कैसे, उन्होंने मेरे बारे में कुछ अनुमान लगाया था और एक दिन अचानक बोल बैठे थे, "जयदीप, तुम्हारी जो सन्तान होगी, वह काफी प्रतिभाशाली होगी..."
मैं झेंप गया था- मेरी उम्र उस वक्त 20 के आस-पास थी- शादी दूर की बात थी।
'97 में अभिमन्यु का जन्म हुआ- जालन्धर छावनी के सेना अस्पताल में। जब अंशु को स्ट्रेचर पर लेबर रूम से वार्ड लाया जा रहा था, तब मैं गलियारे में ही था। अभिमन्यु माँ के बगल में लेटा सो रहा था। उसके चेहरे को देखकर पता नहीं क्यों, मुझे पिताजी की याद आयी। नजदीक आने पर उसकी उँगलियों पर नजर गयी- ऐसी सुन्दर उँगलियाँ कम ही देखने को मिलती हैं... और तब अचानक संगीत के गुरुजी की बात याद आ गयी- जयदीप, तुम्हारी सन्तान जो है, वह काफी प्रतिभाशाली होगी...
मैं उनकी इस बात को भविष्यवाणी तो नहीं, पर "आशीर्वाद" के रुप में ग्रहण करता हूँ।  

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

118. "आँखापालोनी"



       दिनभर घर से बाहर रहने के कारण चूल्हे की तस्वीर नहीं खींच पाया था। अभी रात घर आकर किसी तरह अभिमन्यु को राजी किया तस्वीर खींचने के लिए। अब तक सफेद अड़हुल के फूल कुम्हला चुके थे दरअसल, आज हमारे घर में चूल्हों की पूजा हुई है।
       यूँ तो चूल्हे को बँगला में "उनून" भी कहते हैं; पर हमारे घर में इसे "आँखा" कहते हैं। चूल्हे की पूजा को "आँखापालोनी" कहते हैं। श्रावण के किसी एक सोमवार को यह पूजा होती है। इस दिन चूल्हा नहीं जलता। आज वही दिन था। कल ही अतिरिक्त भोजन सामग्री तथा पकवान्न पका लिये गये थे।
       इस घरेलू पर्व को साँपों से भी जोड़ दिया गया है। पहले जब कोयले तथा लकड़ी के चूल्हे हुआ करते थे, तब सुबह चूल्हे की राख निकालते समय साँप निकल आया करता था- दादी के जमाने में। तब चूल्हे की पूजा की परम्परा शुरु हुई। अब मानते हैं कि इस पूजा के बाद आँगन-पिछ्वाड़े में साँप दीखने बन्द हो जायेंगे। वैसे भी, आजकल साँप कम ही दीखते हैं- हर खाली पुरानी जगह पर तो मकान बन चुके हैं। "हरहरिया" साँप तक देखे जमाना हो गया- जब कि बरसात में इनका आँगन में इधर-उधर गुजरना आम हुआ करता था!     
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       जो भी हो, एक दिन चूल्हे को आराम मिलने पर घर की महिलाओं को भी आराम मिल ही जाता है। मैंने अंशु को सुझाव दिया- माँ से कहो, हर महीने के किसी एक सोमवार को आँखापालोनी मनाया जाय!