यह 350+ पृष्ठों का उपन्यास है, यह
पक्षी-प्रेक्षण (Bird watching) पर आधारित एक विलक्षण साहित्यिक कृति है, इसका कथानक बहुत ही ऊँचे दर्जे का है, यह एक
नजर से 'चम्पू काव्य' भी है और इसके हिन्दी अनुवाद में मैंने 200+ चिड़ियों के
छायाचित्र शामिल किये हैं- जिन चिड़ियों का जिक्र उपन्यास में आया हुआ है।
यहाँ मैं उपन्यास की प्रस्तावना से एक
पाराग्राफ, भूमिका से दो अध्याय और अपने पश्चकथन को उद्धृत कर रहा हूँ-
***
प्रस्तावना से-
इतावली भाषा में एक कथन प्रचलित है, जो इस प्रकार से हैः ‘अनुवाद रमणी-जैसी है, सुन्दर है तो विश्वस्त नहीं, और विश्वस्त है तो निश्चित कुरुपा।’ जयदीप का अनुवाद, मुझे लगा, इस कथन को झुठलाता है। यह सुन्दर भी है और
विश्वस्त भी।
पाठकों से इसे प्राप्य है बेहद प्यार।
-डॉ.
कृष्ण गोपाल रॉय,
आलोचक एवं अवकाशप्राप्त प्राचार्य
भूमिका से-
‘डाना’ उपन्यास के बारे में
‘डाना’ एक वृहत् उपन्यास है।
"बनफूल" ने इसे तीन खण्डों में लिखा था। पहला खण्ड साल
1948 में प्रकाशित हुआ था, दूसरा 1950 में और तीसरा
खण्ड 1955 में प्रकाशित हुआ था।
यह उपन्यास कई मायनों में एक अनोखी साहित्यिक
रचना है, जिनमें से दो का जिक्र
करना यहाँ उचित होगा।
1. पूरे उपन्यास में (तीनों खण्ड मिलाकर)
छोटी-बड़ी कुल एक सौ कविताएं हैं। इस लिहाज से यह एक चम्पू काव्य है। यह एक ऐसी
विधा है, जिसपर हाथ चलाना सबके बस
की बात नहीं होती। चूँकि ”बनफूल“ एक कवि भी थे, इसलिए उनके लिए यह सम्भव हुआ। उपन्यास के गद्य
के साथ-साथ पद्य का भी अनुवाद कर पाना अनुवादक के बस की बात नहीं थी। (जबर्दस्ती
प्रयास करने का कोई तुक नहीं बनता।) इसलिए प्रस्तुत अनुवाद में कविताओं की शुरूआती
कुछ पंक्तियों का अनुवाद करने की कोशिश की गयी है और ब्रैकेट में लिख दिया गया है कि
मूल कविता कुल कितनी पंक्तियों की है।
2. उपन्यास की पृष्ठभूमि में ‘पक्षी-प्रेक्षण’ (Bird watching) सदैव चलते रहता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि
इसके लिए लेखक ने स्वयं भारत की घरेलू एवं प्रवासी पक्षियों पर गहन अध्ययन एवं शोध
किया होगा और कम-से-कम आठ-दस वर्षों तक तो (उपन्यास सात वर्षों में पूरा हुआ था)
स्वयं दूरबीन लेकर विभिन्न स्थलों पर पक्षियों का प्रेक्षण किया ही होगा। (आज की
तारीख में ‘इण्टरनेट’ की मदद से हम कोई भी जानकारी पलक झपकते हासिल कर
लेते हैं, जबकि उस जमाने में एक
मामूली जानकारी पाने के लिए भी खासी मशक्कत करनी पड़ती होगी- ऐसा हम सहज ही अनुमान
लगा सकते हैं।) अन्यान्य देशों के लेखकों ने पक्षी-प्रेक्षण की पृष्ठभूमि पर
उपन्यास/कहानियों की रचना की है, पर भारत में किसी भारतीय लेखक ने ऐसा कोई प्रयास किया होगा- ऐसा
लगता तो नहीं है। इस लिहाज से अपने ढंग का यह एकमात्र उपन्यास है इस देश में।
उपन्यास का कथानक। चिड़ियों के पंख यानि ‘डैना’ को बँगला में ‘डाना’ कहते हैं। यह उपन्यास पक्षी-प्रेक्षण की
पृष्ठभूमि पर तो आधारित है ही, इसमें नायिका का नाम भी ‘डाना’ है। जन्म के समय नर्स ने उसका नामकरण ‘डायना’ किया था, पर बोलचाल में वह ‘डाना’ हो गया। एक ‘शरणार्थी’ (बर्मा-रिफ्यूजी) युवती के रूप में डाना एक ‘प्रवासी’ पक्षी का प्रतिनिधित्व करती है- ऐसा कहा जा सकता
है। कहानी के अन्य तीन प्रमुख चरित्रों में से एक हैं पक्षी-विशारद, जो पक्षियों के सम्बन्ध में बहुत जानते हैं और
बहुत जानने को लालायित हैं, दूसरे सौन्दर्य के पुजारी
एक कवि हैं, जो किसी भी पक्षी को
देखकर मुग्ध हो उसपर कविता रचने लगते हैं और तीसरे जो चरित्र हैं, वे दुनियादारी में माहिर, एक तेज-तर्रार व्यक्ति हैं, जो किसी चिड़िया को देख यह सोचते हैं कि इसका
मांस सुस्वादु होगा या नहीं! एक विचित्र चरित्र एक युवा सन्यासी का भी है- जो मानो, हर बात से निस्पृह है।
कहानी का देशकाल। विश्वयुद्ध के दिनों की कहानी
है। दिसम्बर 1941 से मार्च 1942 के बीच (ध्यान रहे, नेताजी सुभाष के जर्मनी से जापान आने से पहले की
यह बात है) जापानी सेना ने बर्मा पर भारी बमबारी की थी और इस दौरान करीब पाँच लाख
लोग बर्मा से भागकर भारत आये थे- बेशक, इनमें ज्यादातर भारतीय ही थे। डाना भी बर्मा से
जान बचाकर भागकर आयी एक युवती है। जहाँ तक कहानी के ‘देश’ का सवाल है, ‘हरिपुरा’ नामक काल्पनिक कस्बे का चित्रण है, जो गंगा के किनारे बसा है, जहाँ आम के ढेरों बाग हैं, जहाँ से स्टीमर चलते हैं और जहाँ रेलवे स्टेशन
भी है। ऐसा कस्बा वर्तमान झारखण्ड में ‘राजमहल’ नामक कस्बा है। जिसे कहानी में ‘सदर’ कहा जा रहा है, वह ‘साहेबगंज’ शहर हो सकता है। ध्यान रहे कि भागलपुर, साहेबगंज, राजमहल- ये सभी लेखक के अपने इलाके रहे
हैं।
अन्त में, इस जानकारी को साझा कर दिया जाय कि एक अन्य
बँगला लेखक ‘परशुराम’ ने ”बनफूल“ के पुत्रों को सलाह दी थी कि वे ‘डाना’ उपन्यास का अँग्रेजी में अनुवाद करवा कर उसे ‘नोबल’ पुरस्कार के लिए भेजवाने की व्यवस्था करें। बेशक, ऐसा हो नहीं पाया था। दूसरी तरफ, "बनफूल" का मानना था कि अच्छे पाठकों/दर्शकों की नजर में
रचनाकार को मिला पुरस्कार कोई मायने नहीं रखता और ‘कला’ का मूल्यांकन ‘काल’ करता है! इस प्रसंग का जिक्र यहाँ इसलिए किया
गया, ताकि यह अनुमान लगाया जा
सके कि ‘डाना’ उपन्यास किस स्तर की कृति है!
‘बर्ड-वाचिंग’ के बारे में
जैसा कि ऊपर बताया गया है, इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में पक्षी-प्रेक्षण सदा
चलते रहता है। कहा जा सकता है कि ‘पक्षी-प्रेक्षण’ (Bird Watching या Birding) एक शौक के रूप में हमारे देश में कभी लोकप्रिय
नहीं रहा है। 1940-50 के दशक में तो बिरले ही इस विषय में रुचि रखते होंगे। उस
जमाने के इस उपन्यास में लेखक ने पक्षी-प्रेक्षण को इतने रोचक तरीके से कथानक के
साथ घुला-मिला दिया है कि- हो सकता है कि आज इस उपन्यास को पढ़ने के दौरान किसी
पाठक के मन में पक्षियों के बारे में और अधिक जानने की रुचि जागृत हो जाय!
उक्त सम्भावना को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत
हिन्दी अनुवाद में उन पक्षियों की तस्वीरें प्रस्तुत की जा रही हैं, जिनका जिक्र उपन्यास में आया है। साथ ही, परिशिष्ट में ‘पक्षी-प्रेक्षण’ (Bird Watching) पर एक लेख को साभार उद्धृत किया जा रहा है। इस
लेख के लेखक वे हैं, जिन्हें ‘Birdman of India’
कहा जाता है। जी हाँ, सलीम अली (1896-1987), जिनका जिक्र इस उपन्यास की भूमिका में न होना
अशोभनीय होता। उनकी सुप्रसिद्ध रचना ‘The Book of Indian Birds’ के हिन्दी अनुवाद ‘भारत के पक्षी’ से उपर्युक्त लेख को लिया गया है। पक्षियों के
हिन्दी नामों के लिए भी (विभिन्न स्रोतों के साथ-साथ) इस पुस्तक से कुछ मदद ली गयी
है। पुस्तक के अनुवादक रामकृष्ण सक्सेना एवं प्रकाशक हरियाणा ग्रन्थ अकादमी, पंचकूला हैं। इनके प्रति हार्दिक आभार प्रकट
किया जा रहा है। परिशिष्ट में छायाचित्रों वाले पक्षियों के नामों को अँग्रेजी
वर्णमाला के क्रम में व्यवस्थित कर सूची के रूप में भी प्रस्तुत किया जा रहा है।
प्रसंगवश, याद दिला दिया जाय कि "बनफूल" सलीम अली के समकालीन ही थे। सलीम अली ने जहाँ
विशुद्ध तकनीकी भाषा एवं शैली में भारतीय पक्षियों के बारे में लिखा, वहीं "बनफूल" ने साहित्यिक भाषा एवं शैली को चुना इसी काम के
लिए। सलीम अली की उपर्युक्त पुस्तक 1941 में प्रकाशित हुई थी और "बनफूल" ने इस उपन्यास को 1948-55 में लिखा था।
पक्षीप्रेमी के रूप में दोनों दिग्गज आपस में परिचित थे या नहीं- यह अनुवादक को
ज्ञात नहीं है, किन्तु इतना है कि
उपन्यास में सलीम अली का जिक्र पक्षी-विशेषज्ञ के रूप में कई बार आया हुआ है।
पश्चकथन
मूल बँगला उपन्यास में कहानी यहीं समाप्त होती
है (जो कि एक ‘खुला समापन’ है), लेकिन मैंने अपनी ओर से एक और अध्याय जोड़ते हुए कहानी
का फिर से समापन किया है (जो कि एक ‘बन्द समापन’ है)। ऐसा मैंने क्यों किया है- इसके पीछे कारण
यह है कि मुझे इस अनुवाद को अपनी वैवाहिक रजत जयन्ती (25 जनवरी 2021) पर श्रीमतीजी
को अर्पित करना था और उपन्यास की नायिका के सन्न्यासिनी बन जाने वाला समापन मुझे उस
अवसर के लिए उपयुक्त नहीं लग रहा था। (जनवरी’21 में यह अनुवाद- उसी जल्दीबाजी में- चिड़ियों
के चित्रों को शामिल किये बिना प्रकाशित हुआ था।)
पुनर्समापन का यह प्रयोग कहाँ तक उचित है और यह
पुनर्समापन कहाँ तक ठीक बन पड़ा है- इनका निर्णय तो पाठक-पाठिकागण ही (इसे पढ़ने के
बाद) कर सकते हैं- वैसे, ‘पुनर्समापन’ को न पढ़ने के लिए वे स्वतंत्र हैं।
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