सोमवार, 20 मई 2013

52. एक यादगार अनुष्ठान की याद


       यहाँ जो तस्वीरें प्रस्तुत की जा रही हैं, वे ठीक 7 साल पहले की हैं- यानि 20 मई 2006 की। उस दिन मेरी माँ-पिताजी के विवाह की 51वीं वर्षगाँठ थी।
यूँ तो 50वीं सालगिरह को लोग "स्वर्ण जयन्ती" या "गोल्डेन जुबली" के रुप में मनाते हैं, मगर 2005 में हम भूल गये थे और दूसरी बात, तब मैं वायु सेना में था। (31 मई 2005 को मैं रिटायर हुआ- 20 वर्षों की सेवा के बाद- और तब 2006 में हमने इस वर्षगाँठ को मनाने का फैसला लिया।)
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हमने "गायत्री परिवार" वालों से घर में सिर्फ एक हवन कराने का अनुरोध किया था। उन्होंने कारण पूछा, तो हमने वर्षगाँठ वाली बात बता दी। फिर क्या था, नियत तिथि को वे पूरी ताम-झाम के साथ और बहुत सारे भक्तों-भक्तिनों के साथ हमारे घर पहुँच गये। बताया गया- विवाह की सारी रस्मों को फिर से दुहराया जायेगा! यह तो हमने सोचा भी नहीं था- हाँ, सुना जरूर था। हमारे बरहरवा में ऐसी कोई परम्परा भी नहीं थी।
खैर, अनुष्ठान के दौरान पिताजी ने तो सामान्य होकर उन रिवाजों को दुहराया, मगर मेरी माँ का बुरा हाल था- लज्जा के मारे! बार-बार वह अपने तकिया कलाम "धत्त" का प्रयोग कर रहीं थीं। वहाँ उपस्थित अड़ोस-पड़ोस की महिलाओं, पिताजी के परिचितों तथा हमलोगों के चेहरों पर तैर रही थी- नैसर्गिक हँसी और मुस्कान।
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गायत्री परिवार की जो महिला सदस्यायें थीं, वे राजमहल से आयी थीं। तीनपहाड़ स्टेशन पर ट्रेन बदलनी पड़ती है- बरहरवा के लिए। वहाँ खाली समय में उनलोगों ने जानना चाहा कि बरहरवा में किसके घर में आयोजन है? जैसे ही उन्होंने नाम सुना- डॉक्टर जे.सी. दास के घर में- वे चकित रह गयीं! क्योंकि मेरी माँ राजमहल की ही हैं और बहुत-सी महिलायें अपनी "प्रभा-दी" (मेरी माँ का नाम- प्रभावती) को जानती थीं। मुख्य पण्डित जी स्थानीय नहीं थे (वे किसी सरकारी नौकरी में थे), इसलिए वे यह सब नहीं जानते थे। हमने भी सिर्फ बरहरवा के गायत्री परिवार वालों से सम्पर्क किया था- हमें नहीं पता था कि राजमहल से काफी लोग आयेंगे।
अब घर आकर उन महिलाओं ने अपनी "प्रभा-दी" से खूब ठिठोली की। यह भी ताना कसा कि मायके को ही खबर नहीं दी? अब हमें अपनी गलती का अहसास हुआ। हमने जल्दी से वीणा मौसी और शेखर मामा जी को फोन किया। मौसी तो नहीं आ सकीं, मामाजी आये- भले थोड़ी देर से।
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हमारी छोटी दीदी चूँकि फरक्का में रहती हैं, इसलिए उन्हें तो बुला लिया गया था, मगर अररिया में बड़ी दीदी को खबर नहीं दी गयी थी। इसी प्रकार, बुआओं को भी खबर नहीं थी। इसका अफसोस तो हमें हुआ, मगर क्या करें- हमें भी नहीं पता था कि यह अनुष्ठान इतना विशेष हो जायेगा।
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उनदिनों मेरे चाचाजी बीमार चल रहे थे। विवाह वाले अनुष्ठान सम्पन्न होने के बाद आँगन में सामूहिक हवन हुआ, जिसमें मेरे चाचाजी के स्वास्थ्य की कामना के साथ भी आहुतियाँ डाली गयीं।
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अंशु (मेरी पत्नी) ने घर में ही छोले-भटूरे, रायता और गुलाबजामुन का इन्तजाम कर रखा था। भाभी, आस-पास की कई महिलाओं एवं युवतियों ने हाथ बँटाया और अनुष्ठान के बाद सबने तृप्त होकर भोजन किया। आज हम सोचते हैं, तो आश्चर्य होता है कि उस दिन खाने का सामान घटा क्यों नहीं था? इतने सारे लोगों का भोजन कैसे हो गया था?
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भोजन होने के बाद जब ज्यादातर लोग विदा हो गये, घर तथा पड़ोस के सदस्य रह गये, तब दिगम्बर जेठू ने हमसबको आँगन में बैठाया और कहा- माँ को बुलाओ। माँ सकुचाती हुई आकर एक कोने में बैठ गयीं। उसके बाद जेठू बोले- जानते हो, तुम्हारे बाबा (बँगला में पिताजी) के साथ तुम्हारी माँ को देखने कौन गया था? हम निरुत्तर थे।
(पिताजी के बाल्यकाल के बन्धु थे- दिलीप काकू (काकू, बँगला में चाचा)। उन्हीं के बड़े भाई को हमलोग दिगम्बर जेठू (जेठू, यानि ताऊ, बँगला में) कहते हैं।) 
वे बोले- मैं ही गया था।
इसके बाद आधी सदी पहले के सारे घटनाक्रमों का उन्होंने इतना पुंखानुपुंख और रोचक वर्णन किया कि हमारे तो बस मुँह ही खुले रह गये थे। माँ के नैसर्गिक सौन्दर्य को देख उनका अभिभूत हो जाना..., पिताजी का सिर झुकाकर बैठना..., एकबार भी नजर उठाकर माँ को न देखना..., न 'हाँ' बोलना, न 'ना'..., सारे कच्चे चिट्ठे उन्होंने खोलकर रख दिये... और इस फ्लैशबैक कहानी के दौरन माँ की अवस्था.... !
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          1954 या 55 में जब पिताजी दिगम्बर जेठू के साथ माँ को देखने गये होंगे, तब माँ ऐसी दीखती थी-  




पुनश्च: 

10 साल बाद "हीरक जयन्ती" मनायी गयी थी, उसके पोस्ट का लिंक यहाँ है।

जिस साल (मई, 2016) हीरक जयन्ती मनी, उसी साल (छह महीने बाद) दिसम्बर में पिताजी का स्वर्गवास हुआ। उसपर भी मैंने कुछ लिखा था- यहाँ
 




रविवार, 12 मई 2013

51. मेरी माँ (काफी पुरानी तस्वीर) (मदर्स डे पर)


मेरी माँ 
(काफी पुरानी तस्वीर) 

50. "काल-बैशाखी" तथा "टिकोला"



       बीती रात आँधी आयी- बारिश लेकर
       यह कौन-सी आँधी थी, पता नहीं, क्योंकि यह शायद पश्चिम से आयी थी। (कल शाम ही समाचार में सुना था कि दिल्ली में आँधी चल रही है।)
       हमारे इलाके में इस बैशाख महीने में आने वाली आँधियों को "काल बैशाखी" कहते हैं। यह चक्रवातीय तूफान बंगाल की खाड़ी से उठता है, और तटीय इलाकों में तो अक्सर कहर ढा देता है। मगर हमलोग चूँकि समुद्र से काफी दूर हैं, इसलिए वहाँ सिर्फ तेज हवायें चलती हैं और बारिश होती है। पहले छप्पर, टिन वगैरह उड़ते थे, अब छप्पर कम ही होते हैं। हाँ, कुछ साल पहले रंजीत की दूकान से 'सीढ़ी घर' की छत से एसबेस्टस की एक शीट उड़कर हमारे घर के पास आकर गिरी थी।
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       खैर, यह आँधी कुछ याद दिला गयी।
       रात में चलने वाली ऐसी आँधियों के बाद सुबह-सुबह हमलोग "टिकोला" चुनने जाया करते थे। इस तरह के सारे काम मुझे "प्रीतम" सिखाता था। भले उम्र में वह मुझसे छोटा था, मगर समझदार वह मुझसे ज्यादा था। वह कहीं से भागता हुआ आता था और धीमे स्वर में कहता था- मोनू, एगो जग्घुन जैबे? यानि एक जगह चलोगे? वह जगह को जग्घुन बोलता था। मेरे पिताजी अक्सर उसे "खुराफाती" कहते थे।
       "टिकोला" यानि कच्चे आम। बचपन में हमलोग इसके दीवाने हुआ करते थे। ब्लेड या चाकू से काटकर नमक के साथ चटखारे लेकर हमलोग इसे खाते थे और आँखें मिचमिचाते रहते थे।
       पेड़ से टिकोले तोड़ना मना होता था, मगर आँधी के बाद जमीन पर गिरे टिकोलों को चुनने में कोई मनाही नहीं होती थी और सभी बच्चों के पास काफी टिकोले जमा हो जाते थे।
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       अभी भी सड़कों पर बहुत से टिकोले गिरे होंगे, मगर अब उन्हें उठाने का मन नहीं होता... खाने का भी मन नहीं करता।
       मेरा बेटा तो शायद टिकोले का स्वाद जानता ही नहीं होगा.... अब क्या कहा जाय- ?
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गुरुवार, 2 मई 2013

49. सत्यजीत राय के- "फेलू'दा"



साथियों,
आज विलक्षण प्रतिभा के धनी सत्यजीत राय महाशय का जन्मदिन है. हम उन्हें नमन करते हैं.
हम आमतौर पर उन्हें एक 'फिल्मकार' के रुप में जानते हैं, मगर वे एक प्रतिभाशाली लेखक और चित्रकार भी थे. 'भारत कोश' में उनके बारे में पर्याप्त जानकारियाँ मिल जायेंगी...
...मैं सिर्फ यह बताना चाहूँगा कि अगर आपके घर में, रिश्तेदारी में, या मित्र-मण्डली में "किशोर वय" के बच्चे हैं, तो उन्हें आप सत्यजीत राय के "फेलू'दा" सीरीज के उपन्यास, या सभी 26 उपन्यासों के दोनों खण्ड बतौर तोहफा दे सकते हैं... उनकी गर्मी की छुट्टियाँ मजे में कट जायेंगी.

http://www.flipkart.com/ पर आप Complete Adventures of Feluda (दो खण्डों के लिए), या फिर  Adventures of Feluda (अलग-अलग उपन्यासों के लिए) टाईप करके पुस्तकों की जानकारी ले सकते हैं.
अफसोस इतना है कि इन उपन्यासों का हिन्दी अनुवाद (शायद) नहीं हुआ है (मैं खुद ही कभी करूँगा), इसलिए इन्हें अँग्रेजी (या फिर मूल बँगला) में ही पढ़ना पड़ेगा.
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पुस्तकों के लिए लिंक-

भारत कोश (सत्यजीत राय) का लिंक-