मंगलवार, 28 दिसंबर 2021

265. "भक्का" या "धुक्की"

 


       यह पुल्लिंग में "भक्का" है और स्त्रीलिंग में "धुक्की।" आप कुछ भी कहने के लिए स्वतंत्र है- "गर्मागर्म भक्का बन रहा है" या "गर्मागर्म धुक्की बन रही है।"

       यह चावल के आटे का व्यंजन है, सिर्फ जाड़े में बनाया जाता है- वह भी मुँह-अन्धेरे, यानि सुबह-सुबह। इसे भाप से पकाया जाता है। यह हमारे इलाके (झारखण्ड) के अर्द्धशहरी, कस्बाई और ग्रामीण इलाकों के नुक्कड़ पर बनता है। बिहार के लिट्टी-चोखा को तो फिर भी सूटेड-बूटेड लोग सरे-आम खाने लगे हैं, पर इसे ऊँचे तबके वाले हेय दृष्टि से देखते हैं। सिर्फ आम लोग ही इसे खाते हैं, या फिर आम बच्चे। (जो जाड़ों में सुबह जल्दी जागते नहीं हैं, उनकी बात अलग है- वे तो इसे देख भी नहीं सकते!)

       चावल का आटा जरा मोटा पीसा हुआ होता है, उसमें हल्का-सा नमक भी मिला होता है। पकाने से पहले थोड़ा-सा गुड़ इसमें डाला जाता है। पहले शौकीन लोग दो-एक पेड़ा खरीद लाते थे और बनाने वाला गुड़ के स्थान पर उन पेड़ों को तोड़कर डाल दिया करता था। जब गर्मागर्म भक्का या धुक्की हथेली पर धरी जाती है, तो इसमें से गर्मागर्म भाप निकल रही होती है। ठण्डा होने पर खाने पर मजा नहीं आता। 

       भाप से पकाने का तरीका आप विडियो में देखकर समझ सकते हैं- एक बर्तन है, जिसमें पानी लगातार उबल रहा है; बर्तन का मुँह मिट्टी की प्लेट से बन्द (sealed) है; प्लेट में एक छेद है, जिससे भाप निकल रही है।

       शौकीन लोग चाहें, तो इसे घर में बना सकते हैं- हो सकता है, बच्चों को पसन्द आ ही जाय!

       ***  


 

बुधवार, 1 दिसंबर 2021

कुछ फेसबुक से-

 पिछले दिनों 'फेसबुक' पर कुछ-कुछ ऐसा लिखा था, जिन्हें शायद ब्लॉग पर लिखना था। आज क्या मन में आया, उधर के कुछ माल को इधर कर रहे हैं- 

12 नवम्बर 21: भारतीय पक्षी दिवस पर 

 

चिड़िये की यह तस्वीर पोस्टकार्ड पर बनी हुई है। शायद दर्जन भर पोस्टकार्ड पर इस तस्वीर को बनाया होगा मैंने। 1983 की बात है। उस साल यही मेरा नये साल का ग्रिटिंग कार्ड था।
जहाँ तक याद है, 'सर्वोत्तम' (रीडर्स डाइजेस्ट) के किसी अंक में छपी तस्वीर को देखकर मैंने इस तस्वीर को बनाया था।
आज #भारतीय_पक्षी_दिवस है। "#BirdmanofIndia" #सलीमअली के जन्मदिन पर इस दिवस को मनाया जाता है।
प्रस्तुत है पक्षी-प्रेक्षण (Bird Watching) की पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास "डाना" से एक अंश:
***
कवि ने रूपचँद से प्रश्न किया, "बर्मा-रिफ्यूजी उस भद्रमहिला की क्या खबर है?"
"किसकी? डाना की? खबर अच्छी ही है। सुना कि आपने एक नौकर का इन्तजाम कर दिया है।"
"हाँ। उनका नाम डाना है?"
"पता तो यही चला है। बचपन में एक मेम नर्स ने उसका नामकरण किया था- ‘डायना’ (Diana)। बँगला में यह धीरे-धीरे ‘डाना’ हो गया।"
नाम तो बहुत सुन्दर था। डायना, डाना- दोनों ही सुन्दर थे।
कवि अन्यमनस्क हो गये। उनके मनश्चक्षु में धीरे-धीरे प्राचीन यूनानी देवी का शबरी रूप उभर आया। वनों की अधिष्ठात्री देवी चंचला डायना हाथों में धनुर्वाण लिए एक जंगल से दूसरे जंगल में शिकार के पीछे-पीछे भागती थी, जिसका कठोर हृदय एण्डिमियन (Endymion) के प्रेम में पिघल गया था। कवि की कल्पना में उसका रूप उद्भासित हुआ नित्यनवीण वनश्री में, उन्मुख मातृत्व के जगद्धात्री रूप में, सृष्टि की आवेग महिमा में, जीवन के दुर्जय प्रकाश में, चराचरव्यापी विकसित प्राण सम्पदा में... । ऐसा लगा, यह डायना ही शायद हमारे देश की अनन्त यौवना उर्वशी, मृत्यु के समुद्र से निकलकर आ रही है बार-बार प्राणलक्ष्मी के मूर्त प्रतीक के रूप में, यह डायना ही शायद डैने फैलाकर उड़ती आ रही है अनन्त काल से मृत्यु परिकीर्ण पृथ्वी की तरफ, संजीवित करती है उसे नवीण प्राणधारा से, उज्जीवित करती है नयी-नयी प्रेरणा से...
"अरे वाह! इसकी तो उम्मीद ही नहीं थी।"
-वैज्ञानिक जोर से बोल पड़े, "एक ऑस्प्रे। देखिए-देखिए, कितनी बड़ी मछली को पकड़ा है उसने!"
कवि ने देखा, चील के समान एक बड़ी चिड़िया आकाश में उड़ रही थी। दोनों पैरों में एक मछली पकड़ रखी थी उसने। मछली के शरीर से धूप टकरा कर छिटक रही थी- मानो, शून्य में फूलझड़ी जल रही हो। चिड़िये का सीना सफेद था, जिसपर एक काला दाग था।
वैज्ञानिक ने आगे बताया, "इसका संस्कृत नाम उत्क्रोश है। डॉक्टर सत्यचरण लाहा ने कुबरी कहा है इसे। कहते हैं कि कालीदास ने इसका उल्लेख किया है।"
आकाश से एक करूण आर्तस्वर उभरा। इसी के साथ कवि को कालीदास का वह श्लोक याद आ गया-
तथेति तस्य प्रतिगृह्यवाचं रामानुजे दृष्टिपथं व्यतीते
सा मुक्तकण्ठं व्यसनातिभारात् चक्रन्द विग्ना कूबरीर भूयः।
जब लक्ष्मण सीता को निर्वासित करने जा रहे थे, तब सीता कूबरी के समान करूण स्वर में क्रन्दन कर रही थीं। कवि ने विस्मय के साथ सुना। सही में इस चिड़िये का स्वर बहुत ही करूण था। एक विशाल और बलिष्ठ पक्षी, डैनों को फैलाये आकाश में उड़ रहा है, लेकिन वह इतने करूण स्वर में पुकार क्यों रहा है? कवि को लगा, उस आकाशचारी विहंग को नितान्त अधिभौतिक प्रयोजनों के कारण ही बार-बार धरती पर उतरना पड़ता है, सम्भवतः इसी कारण उसके गले से विलाप घ्वनि निर्गत हो रही है।
रूपचँद भी दूरबीन लगाकर देख रहे थे। उन्होंने टिप्पणी की, "ये तो बहुत सारे हँस आये हुए हैं। किसी दिन ‘डक-रोस्ट’ का आयोजन किया जाय, क्यों?"
वैज्ञानिक थोड़ा हँसे। बोले, "मेरी भी इच्छा है, कुछ हँसों को stuff करने की। टैक्सिडर्मिस्ट के पास भेजना है।"
अचानक एक स्थान से कुछ चिड़ियाँ अप्रत्याशित ढंग से उड़ीं। उनकी गति सरल रेखा में नहीं, बल्कि टेढ़ी-मेढ़ी थी।
वैज्ञानिक बोले, "स्नाईप। ये ही हैं कादाखोंचा, हिन्दी में चहा कहते हैं। ये शीतकाल में आती हैं। ये रहती हैं यूरोप, अफ्रिका, काश्मीर में। साईबेरिया में भी।" इतना कहकर उन्होंने स्नाईप के प्रकार पर वक्तृता देना प्रारम्भ किया-
"असली स्नाईप को बहुत-से लोग नहीं पहचानते हैं, समझे। Sandpiper या Snippet को ही स्नाईप समझ लेते हैं ज्यादातर, क्योंकि ये ही ज्यादा नजर आती हैं हमारे देश की झीलों, नदियों के किनारे, नम-भूमि में। सभी दुम हिलाती हैं। असली स्नाईप के शरीर का रंग अद्भुत सुन्दर होता है। भूरापन लिए पीले, मटमैले सफेद और बादामी रंगों का अद्भुत समन्वय होता है। ऐसा लगता है, खूबसूरत छींटदार कोट पहन रखा हो। दुम की तरफ पाण्डु रंग के साथ नारंगी रंग का आभास खास तौर पर देखने लायक होता है। चोंच खासी लम्बी होती है- कीचड़ में चोंच मारने के लिए। जिन चिड़ियों को इस तरह खोदकर भोजन संग्रह करना होता है, उनकी चोंच लम्बी होती है। हूपो देखा है- हुदहुद? हूपो की चोंच तो मानो एक गैंती है। Sandpiper प्रजाति में पैरों के पंजे जुड़े होते हैं, इनके नहीं। समझे? सुन रहे हैं न?"
वैज्ञानिक कवि की ओर देख हँसकर बोले, "‘कादाखोंचा’ नाम सुनकर निराश हो गये लगता है। शायद इनपर कविता नहीं लिखी जा सकती, क्यों?"
(बँगला में कादाखोंचा का अर्थ हुआ- कीचड़ खोदने वाला।)
"क्यों नहीं लिखी जा सकती? रूपचँद, जेब में कागज-पेन्सिल है क्या?"
"पॉकेट-बुक है, पेन्सिल भी है उसमें एक।"
"देना जरा।"
"इसमें कविता लिखनी है?"
"क्या हुआ तो?"
रूपचँद भौंहे सिकोड़े कुछ पल देखते रहे कवि को। फिर पॉकेट-बुक निकालकर दे दिया। कवि ने साथ-ही-साथ कविता लिखना शुरू कर दिया। यह देख वैज्ञानिक रूपचँद से मुखातिब हुए-
"समझे रूपचँदबाबू, स्नाईप चिड़ियों की दुम की बनावट के आधार पर इन्हें फैन-टेल और पिन-टेल, दो श्रेणियों में बाँटा गया है- "
रूपचँद ने गम्भीरता के साथ पूछा, "रोस्ट करने पर स्वाद में कोई अन्तर आता है क्या?"
वैज्ञानिक हँसकर बोले, "नहीं-नहीं, ऐसा कुछ नहीं है- "
"तो फिर श्रेणियों के बारे में जानकर फायदा क्या, कहिए! खैर, उधर दूर में वो क्या है, बताईए तो।"
"बगुला। बगुले भी तीन तरह के पाये जाते हैं। इस इलाके में आम तौर पर इगरेट- "
"वे शायद चखा हैं, देखिये तो।"
रूपचँद ने दलदल के दूसरी तरफ उँगली से ईशारा किया।
"हाँ, वे चकवा-चकवी हैं। ब्राह्मणी डक्स, या रडी शेलडक्स।"
"एक दिन आना पड़ेगा, क्या समझे?"
"बिलकुल, व्यवस्था कीजिए न एकदिन।"
रूपचँद सिर घुमाकर देखने लगे कि नाव बाँधने लायक कोई सुविधाजनक स्थान है या नहीं। वैज्ञानिक भी सिर घुमाकर देखने लगे कि जलचर चिड़ियों का अगर पर्यवेक्षण करना हुआ, तो यहाँ छिछले पानी पर ही एक मचान बाँधना होगा, जैसा कि मछलियाँ पकड़ने के लिए अक्सर बनाया जाता है। एक छोटी डिंगी भी रखनी होगी। उन्होंने फिर दूरबीन लगाया। लगा, टिल (Teal)- चैती भी हैं। छोटे-बड़े दोनों तरह के हैं क्या? रत्ना के साथ आज ही जाकर परामर्श करना होगा- यहाँ आस-
पास कहीं छोटा-सा घर बनवाकर दोनों यदि रहने-
कवि बोल पड़े, "बन गयी, सुनिए-
चहा ओ चहा
तुम किसी से कम हो क्या?
अंगों पर है रंग
दुम में है ढंग"
(कुल 14 पंक्तियों की कविता)
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"डाना" उपन्यास यहाँ उपलब्ध है:
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छठ: 2021

10 नवम्बर 21

 विडियो फेसबुक पर- विडियो-1 विडियो-2
आज अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य दिया गया।
कल उदीयमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाएगा।
 
12 नवम्बर 21 

ऐसे तो सुबह के अर्घ्य तथा ठेकुआ आदि के प्रसाद वितरण के बाद छठ महापर्व को संपन्न मान लिया जाता है, लेकिन मुहल्ले के नवयुवकों ने अगले दिन सहभोज का आयोजन कर इस पर्व को और एक दिन लम्बा कर दिया है।
अच्छा है, यही तो सामाजिक जीवन है।
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13 नवम्बर 21: अभिमन्यु के जन्मदिन पर 

 

जब अभिमन्यु 18 साल का हुआ था- छह साल पहले, तब हमने उससे कहा था कि चलो, अपने पुराने 'लीजेण्ड' स्कूटर पर ही तुम्हें टू-व्हीलर चलाना सिखा दिया जाय।
उसने साफ मना कर दिया था कि उसे बाईक चलानी सीखनी ही नहीं है। आज तक उसने नहीं ही सीखी- जरा भी इच्छुक नहीं है इसके प्रति।
यानि ऐसे नौजवान भी होते हैं, जो बाईक चलाने (और सेल्फी लेने) का शौक नहीं रखते हैं- उल्टे बिदकते हैं इनके नाम पर!
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23 नवम्बर 21: सोमवार हाट 

(9 छोटे-छोटे विडियो हैं, उन्हें फिर से अपलोड करने में समय लगेगा, इसलिए उस फेसबुक पोस्ट के लिंक को ही यहाँ साझा कर रहे हैं- विडियो-1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9

यह हमारे यहाँ का सबसे बड़ा "ओपेन एयर शॉपिंग मॉल" है। इतना बड़ा कि घूमते-घूमते पैर दुख जायें। दर्जनों "सेक्शन" हैं यहाँ। सीढ़ियों का कोई झंझट नहीं, सब कुछ "ग्राउण्ड फ्लोर" पर। यह सप्ताह में एक ही दिन खुलता है और बहुत भीड़-भाड़ रहती है। मॉल क्या, यह तो छोटे-मोटे "फेयर" (मेला) का आभास कराता है।
हम तो बस इसके चौथाई हिस्से का चक्कर लगाकर, एकाध चीजें (कुछ बीज, कुछ पौद) लेकर "झूरी" चबाते हुए लौट आये- पूरा "मॉल" घूमने में बहुत समय लगता।
हमें लगता था कि "ईंटालियन सैलून" अब नहीं होते, पर (वर्षों बाद) इस मॉल में आकर हमने देखा कि "ईंटालियन सैलून" की परम्परा अब भी कायम है। (ईंटालियन सैलून बोले तो वह सैलून, जहाँ 'ईंट" पर बैठकर लोग दाढ़ी बनवाते हैं- एक डण्डे पर छाता बँधा रहता है- छाँव के लिए।)
अब इन विडियो'ज को देखकर कोई कहे कि धत्त तेरे कि, यह तो गाँव-कस्बे की साप्ताहिक हाट- हटिया ("विलेज मार्केट") है, तो हम भला इसमें क्या कह सकते हैं। अपना-अपना नजरिया है...
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30 नवम्बर 21: हम भी छप्पन 


इसी महीने के किसी दिन हमने जीवन की छप्पनवीं शीत में प्रवेश किया था।
बेशक, तस्वीर उस दिन की नहीं है- यह कुछ दिनों के बाद की है- किसी कार्यक्रम में जाने से पहले।
जो कहना चाहते हैं, वह यह है कि उम्र के इस पड़ाव में हम उन व्याधियों से मुक्त हैं, जिन्हें आजकल आम माना जाता है- मोटापा, शुगर, प्रेशर, युरिक एसिड, थायरायड इत्यादि।
दो संस्थानों में हमने नौकरी की, पर अपने अन्दाज में। काम के प्रति ईमानदार रहा, पर कभी प्रोमोशन या वाहवाही वगैरह की परवाह नहीं की। नतीजा- हम तनाव से दूर रहे।
फिलहाल रिटायरमेण्ट की उम्र से पहले नौकरी छोड़ दी। कारण- मेरा जो शौक है, कुछ बँगला रचनाओं का हिन्दी अनुवाद करना, उसे पूरा करना है। यहाँ भी नाम-वाम की कोई परवाह नहीं, बस लगे रहना है।
किसी के लिए जीवन में पद, पैसे, प्रतिष्ठा, आडम्बर का बहुत महत्व होता है। इनकी परवाह करने के बजाय हमने यह माना है कि सुख-शान्ति के साथ स्वस्थ एवं नीरोग जीवन बिताना अपने-आप में धन-सम्पत्ति है।
रही बात फिटनेस की, तो सच्ची एवं कड़वी बात यह है कि किसी के पास समय नहीं है इसके लिए, इसलिए बताना फिजूल है कि हम इसके लिए क्या करते हैं; फिर भी बता देते हैं कि फिलहाल 45 मिनट का मेरा अपना एक वर्क-आउट है, जिसमें 15 मिनट का ऐरोबिक्स (वार्म-अप के रूप में), 12 मिनट की फ्री-हैण्ड एक्सरसाईज, 3 मिनट का रिलैक्शेसन (कूलिंग-डाउन) और अन्त में 15 मिनट का योगासन, प्राणायाम, ध्यान है।
आप सबके लिए शुभकामना।
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रविवार, 7 नवंबर 2021

263. सौर-चूल्हा: हमारा अनुभव

 

        ***

करीब महीने भर पहले हमने गत्ते के दो डिब्बों (Carton), अल्युमिनियम फ़ॉयल (जो खाद्य-सामग्री पैक करने के काम आता है- इसका रोल मिलता है) और एक काँच लेकर एक "सौर चूल्हा" बनाया था। 




       पहले दिन हमने इसमें एक अण्डा उबलने के लिए रखा, वह नहीं उबला। अगले दिन चूल्हे की बनावट में थोड़ा-सा संशोधन किया और इस बार चावल रखा इसमें- भात बनाने के लिए। सुबह ही रख दिया था। चार घण्टे बाद डिब्बा निकाला- चावल पक गया था। जिसे कहते हैं "खिला-खिला" चावल, वैसा ही बना था। खाते समय तो हम चकित रह गये- इतने स्वादिष्ट चावल (भात) हमने अब तक नहीं खाये थे!

       *

       अब हमने सौर-चूल्हा खरीदने का प्रयास शुरू किया। पता चला, हमारे यहाँ तक 'डिलिवरी' नहीं थी। दरअसल, वास्तविक सौर-चूल्हा भारी होता है और उसमें भारी काँच का इस्तेमाल होता है, इसलिए शायद इसकी डिलिवरी सभी स्थानों पर सम्भव नहीं है।

हमने अभिमन्यु से कहा, उसने कोलकाता में इसे मँगवाया और अभी कुछ दिनों पहले घर आते समय उसे ले आया। दिवाली का मौका था, इस चूल्हे की पूजा भी हो गयी।

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 परसों इसमें दाल और चावल दोनों पकने के लिए रखे गये, नहीं पके। एक तो जाड़ा शुरू हो रहा है, इसलिए धूप कमजोर हो रही है और दूसरे बादल के एक बहुत बड़े टुकड़े ने सूरज को घण्टों के लिए ढाँप लिया था। हालाँकि डिब्बे काफी गर्म हो गये थे और गैस-चूल्हे पर कम समय में दोनों पक गये। खाते समय चावल में वही स्वाद आया, जो पहली बार सौर-चूल्हे में पके चावल में आया था। 

एक बार यह सोचा गया कि इस सौर-चूल्हे का इस्तेमाल गर्मियों में किया जायेगा, तब तक के लिए इस रख दिया जाय, लेकिन बाद में एक बार और आजमाने का फैसला किया गया।

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 कल चावल-दाल को सुबह भिंगो दिया गया, उसके बाद साढ़े नौ बजे करीब सौर-चूल्हे में रख दिया गया। आज बादलों ने सूरज को नहीं ढाँपा। चार घण्टे बाद डिब्बों को निकाला गया- चावल थोड़ा ज्यादा पक गया था। इस बार दाल वाले डिब्बे में आलू तथा तीसरे डिब्बे में टमाटर आदि भी रख दिये गये थे। वे भी पक गये थे, उनका 'चोखा' बना लिया गया। दाल में छौंक लगायी गयी- बेशक, गैस चूल्हे की मदद से। कल खाने में चावल के साथ-साथ दाल में भी अनोखा स्वाद पाया गया।







 

आज थोड़े सुधार के साथ फिर सौर-चूल्हे का उपयोग हुआ। इस बार सिर्फ दाल को सुबह भिंगोया गया, चावल को नहीं। इस बार चावल को काँच के ढक्कन से ढँका गया, ताकि बाहर से नजर आ जाय कि चावल पक गये हैं या नहीं (पानी का खत्म हो जाना)। आज चावल दो घण्टे में ही पक गये- उसे निकाल लिया गया। टमाटर, आलू, प्यांज, मिर्च भी निकाल लिये गये- वे भी पक गये थे। सिर्फ दाल को रहने दिया गया। दाल को खाना खाने का समय होने पर डेढ़ बजे निकाला गया- यानि चार घण्टों बाद। अब दाल भी पक गयी थे, बस रसोई में ले जाकर उसमें छौंक लगायी गयी।  

कुल-मिलाकर प्रयोग और उपयोग सफल रहे। "गैस की बचत" अपनी जगह है- हम इसे तीसरे स्थान पर रखना चाहेंगे। पहले स्थान पर हम "स्वाद" को रखेंगे- सौर-चूल्हे में पके खानों का स्वाद लाजवाब लग रहा है हमें; दूसरे स्थान पर हम "पौष्टिकता" को रखेंगे- सौर-चूल्हे में पके अनाजों की पौष्टिकता शत-प्रतिशत बरकरार रहती होगी- ऐसा हमें लगता है।

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यह पोस्ट बस मेरा अनुभव है- हम किसी को सलाह नहीं देना चाहेंगे कि वे इसे आजमायें। सबका अनुभव एक-जैसा नहीं होता। फिर भी, अगर कोई सौर-चूल्हे को आजमाना चाहें, तो हम यहाँ कुछ लिंक दे रहे हैं- यहाँ जाकर आप सौर-चूल्हे से सम्बन्धित सारी बातें समझ सकते हैं-

पहला लिंक: नाम मात्र के खर्च पर खुद सौर-चूल्हा बनाने का तरीका (हमने "काले" कागज के स्थान पर कार्टन के अन्दर अल्युमिनियम फॉयल का इस्तेमाल किया था)। यह लिंक wikihow का है, जहाँ दी गयी जानकारियाँ प्रामाणिक होती हैं।

 

दूसरा लिंक: अगर आप "तकनीकी" योग्यता रखते हैं और अधिक खर्च करने के लिए राजी हैं, तो थोड़ी मेहनत से अपने लिए लाजवाब डिजाइन का सौर-चूल्हा बना सकते हैं। यह विडियो हमें युट्युब पर मिला।

  

तीसरा लिंक: राजस्थान की एक श्रीमती अनुपमा शर्मा युट्युब पर "Solar Life" नाम से एक चैनल चलाती हैं, जिसमें वे सोलर-कूकर पर जानकारी दे रही हैं।

साथ ही, सौर चूल्हे में विभिन्न प्रकार के भोजन पकाने के तरीकों के बारे में भी विस्तार से बता रही हैं। उनके चैनल का लिंक यहाँ है।  

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अब बात दो सावधानियों की।

एक- कुछ घण्टों में सौर-चूल्हे में रखे डिब्बे बहुत गर्म हो जाते हैं, सौर-चूल्हे का शीशा भी गर्म हो जाता है। बेहतर होगा कि डिब्बों को निकालते समय मोटे, ऊनी दस्ताने पहन लिये जायं। वैसे, श्रीमती शर्मा ने एक खास प्रकार का दस्ताना ईजाद कर रखा है, उनके विडियो में इसे देखा जा सकता है।

दो- डिब्बों को ढकने के लिए अगर काँच का ढक्कन इस्तेमाल करने जा रहे हैं और उसमें प्लास्टिक का "नॉब" (पकड़ कर उठाने के लिए) लगा है, तो यह प्लास्टिक करीब-करीब पिघल जायेगा।

(एक फोटो में देख सकते हैं- हमने काँच वाले ढक्कन में नट-बोल्ट का नॉब लगा रखा है- महीने भर पहले, पहले प्रयास के दौरान ही प्लास्टिक का नॉब पिघल-सा गया था।)

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