कुछ दिनों पहले छुट्टी के दिन घूमते हुए चण्डोला पहाड़ की तरफ
निकल गया था।
दरअसल, बरहरवा राजमहल की पहाड़ियों की जिस श्रेणी की तलहटी में
बसा है, उसके अलग-अलग हिस्सों के अलग-अलग नाम हैं। बचपन में हमलोग बोरना और
घोड़ाघाटी पहाड़ जाया करते थे- चकमक पत्थरों की खोज में। चण्डोला पहाड़ दिग्घी की तरफ
है, जो बरहरवा से तीन किलोमीटर दूर है। नाम हमने बहुत सुना था उसका, पर कभी गये
नहीं थे उस तरफ। उस जमाने में (तब झारखण्ड बिहार से अलग नहीं हुआ था) चण्डोला पहाड़
पर सरकारी खदान हुआ करता था- पत्थरों का। आज भी तीन-चार भवन, गोदाम इत्यादि वहाँ
तलहटी में नजर आते हैं- खण्डहर के रुप में।
दो साल पहले जयचाँद के साथ गया था चण्डोला पहाड़। काफी देर घूमे
थे हम।
पिछले दिनों अकेला ही गया। बड़ा दिग्घी गाँव से भी गुजरा, जो कि
एक सन्थाली गाँव है। अभी कुछ रोज पहले 'मिट्टी की झोपड़ी' शीर्षक से एक पोस्ट लिखा
था। उसी की अगली कड़ी के रुप में यह देखना चाहता था कि ये झोपड़ियाँ बनती कैसे हैं।
वैसे, अपने इलाके में भी घोड़ाघाटी या बोरना पहाड़ की तरफ जाते हुए इसे देखा जा सकता
था, पर क्या मन में आया, दिग्घी की तरफ ही निकल गया था।
जो कुछ देखा, उसे आप भी तस्वीरों में देख सकते हैं, मगर पहाड़ियों
की बिलकुल तलहटी में पहुँचने के बाद जो अनुभव होता है, उसका अनुभव आपको नहीं करा सकता।
ऐसे इलाकों में एक अजीब-सा सन्नाटा पसरा हुआ रहता है, जिसे सिर्फ चिड़ियों की
आवाजें तोड़ती हैं। बाकी कहीं कोई ध्वनि नहीं होती। ऐसा लगता है, अपनी दुनिया से
कहीं दूर निकल आये हैं हम! कभी-कभी तो ऐसा लगता है, इस सन्नाटे की भी अपनी तरंगे
हैं, जो कानों से टकरा रही हैं...
पता नहीं, हममें से कितनों के नसीब में ऐसा सुख लिखा है कि अपने
रिहायशी इलाके से थोड़ा-सा इधर-उधर जाते ही प्रकृति की गोद में पहुँचने का आनन्द
मिल जाय...
इस मामले में हम तो भाग्यशाली हैं, इसमें कोई शक नहीं है। अब
जिन्हें प्रकृति से कोई मतलब ही नहीं है, जो ऋतु-परिवर्तन की गन्ध को महसूस ही
नहीं कर सकते, उनकी बात अलग है।