बुधवार, 22 अप्रैल 2020

233. चीना राक्षस


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      जब कोई लम्बा काम किया जाता है, तो बीच-बीच में विराम (ब्रेक) लिया जाता है। विराम के दौरान या तो आराम किया जाता है, या फिर, दिल-दिमाग को राहत पहुँचाने वाला कोई काम किया जाता है।
       जैसा कि जिक्र कर चुके हैं- 'डाना' नामक वृहत् बँगला उपन्यास के प्रथम खण्ड का हिन्दी अनुवाद पूरा हो चुका है और अब द्वितीय खण्ड के अनुवाद में हमें लगना चाहिए, मगर बीच में चाहिए एक विराम, यानि एक ऐसा काम, जो मन में खुशी और दिमाग को आराम दे।
       ऐसे में, बच्चों की कहानी से बेहतर क्या हो सकता है? ऐसे भी, हमारी हिन्दी में बाल-कहानियों का अभाव है। ...तो हमने फैसला किया कि क्यों न सुकुमार राय महोदय की एक बाल कहानी का हिन्दी अनुवाद कर लिया जाय? सुकुमार राय के बारे में बता दिया जाय कि आप सत्यजीत राय के पिता थे। बँगला भाषा की बाल-कहानियों में आपका बहुत बड़ा योगदान है। आपकी सारी बाल-रचनाओं को बाकायदे तीन खण्डों में संकलित किया गया है।
हमने जब सुकुमार राय के बारे में अध्ययन शुरु किया, तो पता चला कि उनकी तीन रचनाएं बहुत प्रसिद्ध हैं- 1. आबोल ताबोल, 2. ह-ज-ब-र-ल और 3. पागला दासू।
       'आबोल ताबोल' कविता संग्रह है; 'पागला दासू' बहुत बड़ी रचना है; जबकि 'ह-ज-ब-र-ल' छोटी कहानी है। स्वाभाविक रूप से, हमने इसे ही चुना। अँग्रेजी में इसे 'नॉनसेन्स स्टोरी' कहा जा रहा है। हिन्दी में क्या कहा जाय? हमने तय किया, इसे 'ऊट-पटाँग' कहानी कहेंगे! यह काफी कुछ 'एलिस इन वण्डरलैण्ड'-जैसी कहानी है।
       'विकिपीडिया' में इस कहानी का परिचय इस तरह से दिया गया है:
"HaJaBaRaLa (Bengali: হ য ব র ল) or HJBRL: A Nonsense Story is a children's novella by Sukumar Ray.[1] Ha Ja Ba Ra La is considered one of the best nonsense stories of Bengali literature. To point out its artistic merit, people frequently compare it to Alice In Wonderland though two are completely different in their plot organisation, tone, mood, and cultural setting."
 
       सबसे पहले सवाल उठा, हिन्दी में इस कहानी को क्या नाम दिया जाय? अँग्रेजी में तो 'Ha-Ja-Ba-Ra-La' ही कर दिया गया है, जबकि इसकी कहीं कोई व्याख्या नहीं है कि इसका अर्थ क्या है। इस शीर्षक का इस्तेमाल कहानी में भी नहीं हुआ है। यानि यह एक निरर्थक शीर्षक है। हमने सोच-विचार कर शीर्षक चुना- 'आ-ला-ल-लु'! मेरे पास इसकी व्याख्या है- 'आमड़ी-लामड़ी-लफा-लुफुस'। दरअसल, बचपन में हमने बच्चों के लिए बनी एक फिल्म देखी थी, जिसमें आठ-दस साल का बच्चा नायक होता है। जितेन्द्र उसके अभिभावक होते हैं। तिलस्मी कहानी थी। जो खलनायक था, उसका मंत्र या तकिया कलाम था- 'आमड़ी-लामड़ी-लफा-लुफुस'!  
आधी कहानी के बाद कई कविताएं हैं- बेशक, स्वयं सुकुमार राय द्वारा रची गयी बाल कविताएं। हमने क्या किया, कविताओं के अनुवाद करने के बजाय रामप्रिय मिश्र 'लालधुआं' रचित बाल-कविताओं का इस्तेमाल करने का फैसला किया, मगर अफसोस कि इण्टरनेट पर उनकी कविताएं मिली ही नहीं। दो-चार कविताएं याद थीं, उनका ही इस्तेमाल किया। अब आगे क्या करें?
       ...तो हमने कुछ छोटी-छोटी बाल-कविताएं रच ही डाली। उन्हीं को प्रदर्शित करने के लिए यह ब्लॉग पोस्ट है। एक कविता 'कोरोना' पर आधारित है! हमें याद आया कि आजकल के स्कूलों में बच्चों को जो यह कविता रटायी जाती है- 'रिंगा रिंगा रोजेज'- यह वास्तव में पिछली सदी में यूरोप में फैली महामारी पर ही आधारित है।   
       यह संयोग की ही बात है कि कहानी में जिस जगह पर मेरी इस बाल-कविता का इस्तेमाल हो रहा है, वहाँ पर सुकुमार राय साहब की बाल-कविता 'बीमारी' पर ही आधारित है- 'खुशखुशे कासी घुसघुसे ज्वर, फुसफुसे छेंदा बूड़ो तुई मर। माजराते व्यथा पाँजराते बात, आज राते बूड़ो होबि कूपोकात।'
       इस जगह पर हम गर्व के साथ अपनी स्वरचित बाल-कविता का इस्तेमाल करने जा रहे हैं, जो निम्न प्रकार से है:  

       "चीन से आया कोरोना वायरस, सर्दी बुखार गले में खसखस,

गला दबाकर जान से मारे, चिंग चांग चुंग चेंग चीना राक्षस।



चमगादड़ से बाहर निकाला, लैब में इसको पोसा-पाला,

दुनिया भर में इसे फैलाकर, बनता है वह भोला-भाला।"


बाकी बाल-कविताएं निम्न प्रकार से हैं:

       बादुर बोला ओ साही राम 
       साही राम करम का खोटा
       आज रात को खेल एक देखना
       उल्लू लेकर भागेगा लोटा
       आमड़ी लामड़ी लफा लुफुस।

       चमगादड़ भी नाच करेगा
       चूहा थर-थर काँपेगा
       मेंढ़क-मेंढ़की डर जायेंगे
       छुछुन्दर बगलें झाँकेगा
       आमड़ी लामड़ी लफा लुफुस।

       कहाँ छुप गया साही राम
       कनिया के पल्लू में सो रहा है
       उल्लू और चमगादड़ की चीख से
       सुबक-सुबककर रो रहा है
       आमड़ी लामड़ी लफा लुफुस।

       अभी उठेगा साही राम
       लाठी लेकर दौड़ेगा
       उल्लू चमगादड़ की पीठ पर
       अपनी लाठी तोड़ेगा
       आमड़ी लामड़ी लफा लुफुस।

       बादुर बोला गीदड़ भभकी रहने दो
       बीवि के पल्लू में ओ सोने वाले
       क्या खाकर लाठी भाँजोगे
       ओ सुबक-सुबककर रोने वाले
       आमड़ी लामड़ी लफा लुफुस।“
       (कनिया- पत्नी या दुल्हन)
       ***

एक पर एक ग्यारह
       नौ और दो ग्यारह
       छह और पाँच भी ग्यारह।
       खाट खड़ी और पौव्वा ढीला
       महँगाई में आटा गीला
       गेन्दा फूल है पीला पीला।
       जीवन में है पाना खोना
       महँगाई का काहे को रोना
       खाट बिछाकर चैन से सोना।
       *** 

चाँदनी रात है पीपल की छाँव है चुड़ैल भी साथ है
       भोज की बात है हड्डियों का भोजन है भूतों की बारात है
       बिना सिर का भूत है बिना धड़ का प्रेत है किसकी यह करतूत है
       चुड़ैल के दाँत हैं प्रेत के सींग हैं और भूतों की आँत है।

*** 
दही चूड़ा सरपट, लिट्टी चोखा लटपट, गुरू चेला झटपट, सास बहू खटपट
*** 
नहीं समझ आती एक बात, जब आँखें खुलतीं आधी रात, उछल कूद कर क्यों मचाते, पेट में चूहे उत्पात
*** 
रामभजन की कनिया, पैरों तले दुनिया, बर्तन खड़काये झमाझम, कपड़े धोये दमादम!
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तो बताईये, कैसी रही?  
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शनिवार, 18 अप्रैल 2020

232. 'डाना'


भारतीयों को भारतीय पक्षियों से परिचित कराने के लिए सलीम अली ने वैज्ञानिक शैली में पुस्तक लिखी थी। भाषा अँग्रेजी थी और बात है 1941 की। बाद के दिनों में उनकी पुस्तक के बहुत सारे अनुवाद एवं संस्करण प्रकाशित हुए और आज वे 'बर्डमैन ऑफ इण्डिया' के नाम से जाने जाते हैं।  
       लेकिन क्या आप जानते हैं कि 1948 से '55 के बीच यही काम एक भारतीय कथाकार ने भी किया था? उन कथाकार का नाम है- 'बनफूल'। उन्होंने स्वाभाविक रूप से इस काम के लिए साहित्यिक शैली को चुना था। चूँकि उनकी यह रचना बँगला में थी और चूँकि उनकी इस रचना का अँग्रेजी या हिन्दी में अनुवाद नहीं हुआ, इसलिए देश के साहित्यरसिक एवं पक्षीप्रेमी दोनों इस अद्भुत् कृति से अनजान रह गये हैं।
करीब दस वर्षों तक दूरबीन लेकर पक्षियों का अध्ययन करते हुए तथा पक्षियों पर लिखी गयी पुस्तकों का भी अध्ययन करते हुए उन्होंने एक वृहत् उपन्यास की रचना की थी, जिसका नाम है- 'डाना'। डाना यानि डैना यानि पंख। उपन्यास का कथानक नायिका प्रधान है और नायिका का नाम भी 'डाना' ही है, जो 'डायना' से बना था। डाना एक 'बर्मा-रिफ्युजी' युवती होती है। अन्य प्रमुख किरदारों में एक पक्षी-विशारद हैं, जिनकी ओर से पक्षियों का परिचय दिया जा रहा है; एक कवि हैं, जो पक्षियों को देख मुग्ध हो कविताएं लिखते हैं; एक दुनियादार व्यक्ति हैं, जो पक्षी को देख उसके मांस के सुस्वादु होने-न होने के बारे में सोचते हैं; और एक युवा सन्यासी हैं, जो हर बात से प्रायः निस्पृह हैं। उपन्यास का कथानक बहुत ही ऊँचे दर्जे का है। इस उपन्यास को उन्होंने तीन खण्डों में लिखा था- 1948, 1950 और 1955 में।
 मेरे ख्याल से, अपने देश में यह एकमात्र ऐसी साहित्यिक कृति है, जो पक्षी-प्रेक्षण (Bird Watching) की पृष्ठभूमि पर आधारित है। इस रचना का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद होना चाहिए था, मगर नहीं हुआ। ऐसा क्यों? दरअसल, पूरे उपन्यास में (तीनों खण्ड मिलाकर) छोटी-बड़ी कुल 100 कविताएं भी हैं। यानि एक नजरिये से, यह एक 'चम्पू काव्य' है। एक भाषा की उच्चस्तरीय कविताओं का दूसरी भाषा में भावानुवाद लगभग असम्भव होता है; या फिर, कोई कवि ही यह काम कर सकता है। मैंने स्वयं कविताओं के स्तर को देखते हुए इस उपन्यास के हिन्दी अनुवाद का इरादा एकबार के लिए छोड़ ही दिया था। बस यह टीस मेरे दिलो-दिमाग से निकल नहीं पा रही थी कि इतनी विलक्षण रचना से मैं दूसरों को परिचित नहीं करा पा रहा हूँ! अन्त में, ज्ञान मिला कि क्यों न कविताओं की सिर्फ शुरुआती दो-चार पंक्तियों का अनुवाद किया जाय और (ब्रैकेट में) यह लिख दिया जाय कि मूल कविता फलां पंक्तियों की है? इससे न तो उपन्यास के कथानक पर असर पड़ता है, न ही पक्षी-परिचय पर। बदले में, अपनी ओर से मैंने हिन्दी अनुवाद में कुछ नया जोड़ दिया। वह है- प्रत्येक पृष्ठ पर एक चिड़िये की तस्वीर, जिसका जिक्र उपन्यास में आ रहा है।
...और इस तरह 'डाना' के प्रथम खण्ड का हिन्दी अनुवाद पूरा हो गया। इसके मुद्रित एवं आभासी (eBook) संस्करण पोथी डॉट कॉम पर उपलब्ध हैं। यथाशीघ्र दूसरे खण्ड के अनुवाद का काम शुरु किया जायेगा।
यहाँ मैं उक्त पुस्तक की एक मानद (Complimentary) प्रति सभी साहित्यरसिकों एवं पक्षीप्रेमियों को समर्पित कर रहा हूँ। यह प्रति मेरे गूगल ड्राइव पर है। आप इसे पूरा पढ़ सकते हैं- हाँ, डाउनलोड नहीं कर सकते। लिंक यहाँ है
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"Pothi.Com" पर पुस्तक के लिंक (कृपया तस्वीरों पर क्लिक करें): 

ई'बुक संस्करण
मुद्रित पुस्तक संस्करण

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