दोपहर 12 बजे पाकुड़ स्टेशन पर पूछा- बरहरवा के लिए ट्रेन कब है?
जवाब मिला- 3 बजे।
मुझे लगा 3 घण्टे बैठना मुश्किल है। और
क्या पता, ट्रेन 4 बजे आये। क्योंकि इधर सवारी रेलगाड़ियाँ ऐसे ही चलती हैं-
मनमतंगी। कब कहाँ कितनी देर के लिए रुक जाय, भरोसा नहीं है।
...और मैं पैदल चल पड़ा- रेल लाईन के
किनारे-किनारे। जहाँ बगल की जमीन चलने लायक थी, जमीन पर चलता रहा।
1 बजे तिलभिटा स्टेशन पहुँचा- करीब 10 किमी
होगा। वहाँ कुछ रुककर फिर चला, तो कोटालपोखर आते-आते 2 घण्टे लग गये। कुछ तो मैं धीरे
चला और शायद दूरी भी 10 किमी से ज्यादा होगी।
कोटालपोखर में चचेरे भाईयों से मिला। बड़ी
माँ के हाथ का बना स्वादिष्ट खाना भरपेट खाया।
तब तक ट्रेन भी आ गयी।
ट्रेन में बैठकर फिर बरहरवा आया।
पैदल चलने के दौरान कुछ तस्वीरें ली, वे ही
यहाँ पेश हैं। कुछ तस्वीरें नहीं भी लीं।
ये पुल 19वीं सदी के हैं! |
ऐसी नीली जलराशि कम ही देखने को मिलती है. |
पटरी के नीचे 'स्लीपर' देवदार के हैं- 19वीं सदी के. |
पता नहीं चल रहा है- यहाँ कुछ सारस उड़ान भर रहे थे. |
छाँव |
पता नहीं चल रहा है- लोग मछलियाँ पकड़ रहे थे. |
1870 से 90 के बीच बिछी है यह रेल लाईन. |
अब कुछ वर्षों के बाद ये पुल देखने को नहीं मिलेंगे. |
बसन्त. |
"सी.फा"= सीटी बजाओ, फाटक आगे है. (W= Whistle L= Level Crossing Ahead) अब शायद यह 'नया' निशान है- लेवल क्रॉसिंग का. |