सोमवार, 30 सितंबर 2013

'नीर' जी की एक रचना


       आज सुबह मौसम सुहाना था- बदली छायी थी, ठण्डी हवायें चल रही थीं। मैंने साहेबगंज स्टेशन पर मालदा-जमालपुर इण्टरसिटी एक्सप्रेस छोड़ दी- सोचा, दो घण्टे बाद गया पैसेन्जर से आगे जाऊँगा। आज नरेन्द्र "नीर" जी से मिल ही लूँ। प्रायः पाँच वर्षों से उनसे सम्पर्क नहीं है- इस दौरान मैं नौकरी के सिलसिले में अररिया में रह रहा था। जून से बरहरवा में हूँ- प्रायः रोज ही साहेबगंज से गुजरता हूँ, मगर उतरकर कभी "नीर" साहब का पता लगाने की कोशिश नहीं करता हूँ कि वे कैसे हैं।
       आज उनका घर खोजते हुए पहुँच ही गया। उनके परिचय में फिर कभी- फिलहाल उनकी एक ताजा रचना:

"...न चाहते हुए भी आजादी के नाम तसलीम किया... साम्प्रदायिक बँटवारा... फिर दिनों-दिन बँटते ही चले गये... भाषा/समुदाय/क्षेत्रवार... पता नहीं, आगे इस अमल की वजह किस शर्मसार दीवार के नीचे आ जाना पड़े... और आज नेता/नौकरशाह/धनजन्तुओं की बारमूडा साजिश के दरम्याँ... तलाश रहा है अपने हिस्से का हिन्दुस्तान... शुक्र है न हुआ पुरुषार्थहीन/सम्भावनारहित... आम आदमी---
     
जद्दो-जहद से सीखा दुश्वारियों के हल
      मुनासिब हको-हकूक में लाजिम नहीं खलल
      ठोकरों पे रक्खा जरो-याकूत की पहल
                  वो है आम आदमी/है वो आम आदमी
     
      गम नहीं न हुए तारीख-दर्ज ही कभी
      फख्र है न रहे गुरेजे-फर्ज ही कभी
      न खोया किसी मकाम तमीजो तर्ज ही कभी
                  वो है आम आदमी/है वो आम आदमी। 

      खाता भला खौफ क्यों तख्तो-ताज से
      तोड़ी खाना-ए-नक्कार तूती आवाज से
      मंजिलें सय्यार को बख्शी परवाज से
                  वो है आम आदमी/है वो आम आदमी।  

      सरे आम खुद को जब लामबन्द किये
      रहे अवाम संग रवाँ खुदी बुलन्द किये
      जमींदोज एक एक फसीलो फन्द किये
                  वो है आम आदमी/है वो आम आदमी

      ये बाजी नहीं आसाँ जाहिर है मुसलसल
      न जीत राहतदेह न हार ही में कल
      गवांने को पास क्या न फर्श न महल
                  वो है आम आदमी/है वो आम आदमी।  

      आखिर जुल्मो-जबर कितने इजाद करोगे
      वक्त साजिश में नाहक बरबाद करोगे
      गिरोगे औंधे मुँह फिर याद करोगे
            वो है आम आदमी/है वो आम आदमी।"  

बुधवार, 25 सितंबर 2013

अभिमन्यु: मेरा बेटा (2)



       पिछले साल 13 नवम्बर- अभिमन्यु के जन्मदिन पर- एक पोस्ट लिखते हुए मैंने जिक्र किया था कि उसने 'कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो' और 'दास कैपिटल' पुस्तकें मँगवाई है। मैंने यह भी लिखा था कि मेरे द्वारा मँगवाई गयी "फेलु दा" सीरिज (सत्यजीत राय साहब की) के उपन्यासों को भी उसने शौक से पढ़ा है। मेरी सलाह पर उसने अगाथा क्रिस्टी का जासूसी उपन्यास "मर्डर इन मेसोपोटामिया" (क्रिस्टी के तो खैर 50 से ज्यादा उपन्यास हैं) और खलील जिब्रान का की दार्शनिक रचना "द प्रोफेट" भी मँगवाकर पढ़ी। पहले से भी उसके संग्रह में ढेरों किताबें हैं- बेताल पच्चीसी से लेकर अराउण्ड द वर्ल्ड इन ऐटी डेज तक।
       इसी कड़ी में संयोग से कुछ "रेफरेन्स" पुस्तकें घर पर ही एक सेल्समैन द्वारा मिल गयी। उनका जिक्र भी एक पोस्ट में है।
       वर्तमान में जो पुस्तक मँगवाकर वह पढ़ने में लगा है, वह है- "द फैब्रिक ऑव द कॉस्मॉस"।
       जाहिर है, उसकी रुचि परिष्कृत है और विविधता लिए हुए है।
       ***
       लगे हाथ एक और बात का जिक्र कर दूँ।
       मेरे एक परिचित बड़े गर्व से बताते हैं कि उन्होंने घर के बच्चे को पढ़ाई के बाहर भेज रखा है- वहाँ वह हर वक्त पढ़ाई करता है! माहौल ही पढ़ाई का है- पढ़ाई के अलावे वहाँ और कुछ करने को है ही नहीं। क्या रात क्या दिन- हर वक्त पढ़ाई और पढ़ाई!
       जबकि मैंने अभिमन्यु को पढ़ाई के लिए "बाहर" नहीं भेजा। मैंने चाहा कि वह दादा-दादी, माता-पिता, चाचा-ताऊ, भाई-बहन के बीच रहे, पुराने दोस्तों का उसे साथ मिले, कॉलेज 10 मिनट में ही पहुँच जाये- साइकिल से- इससे समय बचे और इस बचे का उपयोग वह दूसरे कामों में करे, कम्प्यूटर चलाये, गेम खेले, टीवी देखे, मोबाइल चलाये, पुस्तकें पढ़े, रविवार को ड्राइंग क्लास जाये.... और इतना सब करके समय बच जाये, तो दो-एक घण्टे कोर्स की पढ़ाई भी कर ले!
       वैसे, पढ़ाई में भी वह ठीक है।
       *****   

"सद्भावना दर्पण" में "बनफूल"





   
      कुछ दिनों पहले एक छोटी-सी पत्रिका डाक द्वारा मुझे मिली- "सद्भावना दर्पण"। टैग लाईन है: भारतीय एवं विदेशी साहित्य के अनुवाद और अनुसन्धान की मासिक पत्रिका।
सम्पादक हैं: गिरीश पंकज।
       जुलाई का जो अंक मुझे मिला, उसमें "बनफूल" की दो कहानियाँ प्रकाशित की गयी हैं और "बनफूल" का परिचय भी दिया गया है। बेशक, अनुवादक तथा परिचय लेखक के रुप में मेरा नाम दिया गया है।
बाद में मुझे ध्यान आया कि 'फेसबुक' पर मैं अक्सर गिरीश पंकज साहब का नाम देखता हूँ। चूँकि जुलाई में "बनफूल" का जन्मदिन पड़ता है, इसलिए उन्होंने इस अंक में उनसे जुड़ी सामग्री प्रस्तुत की।
इसे मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ कि उन्होंने मेरे एक ब्लॉग से उक्त सामग्री लेकर प्रकाशित की।
हिन्दी में शरतचन्द्र से लेकर बिमल मित्र तक की रचनायें अनुदित हो चुकी हैं; मगर पता नहीं क्यों, विलक्षण प्रतिभा के धनी लेखक "बनफूल" को नेपथ्य में धकेल दिया गया है। मेरी पूरी कोशिश है कि हिन्दी के साहित्यरसिक इस महान लेखक से परिचित हों।
"सद्भावना दर्पण" में "बनफूल" का जिक्र आने से बेशक काफी लोग इस लेखक से परिचित हुए होंगे- इसके लिए मैं इस पत्रिका तथा इसके परिवार के प्रति, खासकर, गिरीश पंकज साहब के प्रति हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ।
"बनफूल" की 20 अनुदित कहानियों का संग्रह हाल में प्रकाशित भी हुआ है:

रविवार, 22 सितंबर 2013

बाला लखिन्दर और बेहुला के कथा: नाटक के रुप में



      भागलपुर से लेकर बंगाल तक जहाँ-जहाँ से गंगाजी गुजरी है, उसके आस-पास के ग्रामीण इलाकों में बाला लखिन्दर और बेहुला की कथा को नाटक के रुप में प्रस्तुत किया जाता है। यह आयोजन भादों के महीने में होता है। कहीं 5-7 रातों तक, कहीं 2-3 रातों तक इसकी कहानी प्रस्तुत की जाती है। यह सामाजिक के साथ-साथ धार्मिक आयोजन भी है।
यह आयोजन बँगला भाषा में होता है। मुझे यह एक रहस्य ही लगता है कि जब यह कहानी भागलपुर की है, तो इसकी कथा बँगला में क्यों प्रस्तुत की जाती है और इसकी कथा का जो "पुराण" है- "पद्म पुराण"- वह बँगला में क्यों है? भागलपुर की भाषा "अंगिका" में यह क्यों नहीं है? हालाँकि मैंने एक अनुमान लगाया है, जिसका जिक्र आगे आयेगा।  
       खैर, हमारे मुहल्ले में "बड़ी माँ" ने कुछ वर्षों पहले इसका आयोजन शुरु करवाया। बड़ी माँ को मुहल्ले के बँगलाभाषी "सोन्ध्या माँ" और भोजपुरीभाषी "संझिया माई" कहते हैं। दर-असल उनकी बेटी का नाम सन्ध्या है- वह मेरी छोटी दीदी की सहेली रही है। मुहल्ले के मेरे कुछ मित्र इस आयोजन का खर्च उठाते हैं; वैसे थोड़ा-बहुत सहयोग सबका होता है।
       अभी वही कार्यक्रम चल रहा है। इस साल कहानी को संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है- यानि तीन रातों में ही कहानी को खत्म किया जा रहा है- आज अन्तिम रात है। कल रात बाला लखिन्दर और बेहुला का विवाह और बाला की मृत्यु की कथा दिखायी गयी। थोड़ी देर तक मैं भी जाकर बैठा था, मगर बाद में उठकर आ गया। आते समय एक भाभी ने टोका भी- शादी छोड़कर नहीं जाना चाहिए। उस समय नाटक में बाला की शादी का जिक्र चल रहा था। आज बेहुला बाला को जीवित करेगी।
       मैं खुद पूरी कहानी नहीं जानता, न ही रात-रात जागकर मैंने कभी इस कार्यक्रम को देखा है। फिर भी, संक्षेप में मैं आपको बताने की कोशिश करूँगा।
       चम्पा नगरी, यानि भागलपुर में एक चाँद सौदागर हुआ करते थे। उन्होंने भगवान शिव के साथ मनसा देवी की पूजा करने से मना कर दिया था। मनसा साँपों की देवी है, उसे "विषहरी" भी कहा जाता है। आगे चलकर चाँद सौदागर के बेटे बाला लखिन्दर को एक साँप डँस लेता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। सर्पदंश से जिसकी मृत्यु होती है, उसके शव का "दाह-संस्कार" नहीं किया जाता, बल्कि उस शव को नदी में बहा दिया जाता है- ऐसी परम्परा है।
जब बाला के शव को अर्थी सहित गंगाजी में बहाया गया, तो उसकी पत्नी बेहुला भी उसी अर्थी पर बैठ गयी। यह कुछ वैसी ही कहानी है, जैसी कि सावित्री-सत्यवान की। मेरा अनुमान है कि बाला की वह अर्थी भागलपुर से बहते-बहते बंगाल में काफी दूर तक चली गयी होगी और बंगाल में ही कहीं बाला फिर से जीवित हो गये थे। स्पष्ट है कि मनसा माँ बेहुला के सतीत्व से द्रवित हो गयी होगी और उसने बाला के प्राण लौटा दिये होंगे। ऐतिहासिक रुप से, हो सकता है कि बंगाल में किसी सिद्ध पुरुष या तांत्रिक ने बाला को जीवित कर दिया होगा। जो भी हो, चमत्कार की यह घटना जरूर बंगाल में ही घटी होगी, इस कारण बेहुला की कथा बँगला में ही सुनायी जाती है, अंगिका में नहीं।
जब सती बेहुला अपने पति बाला लखिन्दर को सही-सलामत घर ले आती है, तब चाँद सौदागर भगवान शिव के बगल में बाकायदे मनसा देवी की प्रतिमा स्थापित कर उनकी पूजा शुरु कर देते हैं।
***
अभी-अभी, जब मैं यह टाईप कर रहा हूँ, वहाँ भजन-कीर्तन चल रहा है। थोड़ी देर तक हल्के-फुल्के, हास्य वाले कार्यक्रम भी चलते हैं, ताकि लोग जुटते रहें। फिर जाकर असली कथा शुरु होगी। 

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

दो राज्य: दो तथ्य: दो प्रवृत्तियाँ



       दो राज्य
पश्चिम बंगाल और झारखण्ड दो पड़ोसी राज्य हैं
       तथ्य
तथ्य यह है कि बंगाल देश का एक(मात्र) ऐसा राज्य है, जो अपनी आवश्यकता से अधिक बिजली पैदा करता है। चूँकि बिजली को संगृहीत करके रखा नहीं जा सकता, इसलिए उसकी बहुत-सी इकाईयाँ क्षमता से कम उत्पादन करती हैं- जैसे कि फरक्का एनटीपीसी, जो बिलकुल झारखण्ड के पड़ोस में है।
दूसरी तरफ झारखण्ड की स्थिति बिजली के मामले में भीखमंगे-जैसी है। फरक्का एनटीपीसी से बिजली खरीदने तक की उसकी औकात नहीं है।
ऐसा क्यों है? कारण पता नहीं, मगर मैं दो प्रवृतियों का जिक्र करूँगा, जो दोनों राज्यों के नेताओं में पायी जाती है।
प्रवृत्ती
बंगाल में जब विधायक बदलते हैं, तो विधायक आवास की बनावट की कौन कहे, वहाँ परदे तक नहीं बदलते हैं! विधायक चाहे काँग्रेस के हों, या सीपीएम के या तृणमूल के, कोई बँगले में फिजूलखर्ची नहीं करवाता। 20-20 साल तक एक ही परदे वहाँ टँगे रहते हैं!
दूसरी तरफ झारखण्ड का एक हालिया उदाहरण ही काफी है: मुख्यमत्री आवास में तीन साल पहले 30 लाख रुपये में हेलीपैड बना था, अभी नये-नवेले मुख्यमंत्री उसकी चहारदीवारी 41 लाख रुपये में बनवा रहे हैं!
***
आप कहेंगे- बंगाल पुराना राज्य है, उससे भला क्या तुलना- बिजली के मामले में।
ठीक है, बिहार भी अब पड़ोसी राज्य है झारखण्ड का। 13 साल पहले जब झारखण्ड अलग हो रहा था, तब एक गाना प्रचलित हुआ था बिहार में- "अलग भइले झारखण्ड, अब खहिह शकरकन्द!" यह गाना ही उस समय के माहौल को बयां कर देता है­। सब सोचते थे झारखण्ड तरक्की कर जायेगा और बिहार पिछड़ जायेगा। बीबीसी के संवाददाता से एक बिहारी ने कहा भी था- लालू के राज में बालू फांकेंगे- और क्या?
मगर देखिये कि पिछले 13 सालों में बिहार में बिजली-उत्पादन की चार इकाईयाँ बनकर चालू हो गयी हैं और हम झारखण्डी आज तक यही सोच रहे हैं कि बिजली ट्रान्सफार्मर से बनती है, या सब-स्टेशन से, या फिर ग्रिड से! सारे झारखण्डी अपने-अपने इलाके में बस इन्हीं चीजों की माँग करते रहते हैं।
नेता भी ऐसे ही हैं। वे भी शायद यही जानते हैं कि इन्हीं चीजों से बिजली पैदा होती है!
परसों ही तो दुमका में झारखण्ड के मुख्यमंत्री एक जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। कहाँ, ट्रान्सफार्मर, सब-स्टेशन, ग्रिड से ऊपर वे कुछ बोल ही नहीं पाये....
*****  

सोमवार, 16 सितंबर 2013

बनफूल की कहानियों का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हुआ...


बँगला लेखक "बनफूल" की कहानियों का अनुवाद तो मैंने बहुत पहले से कर रखा था, मगर इन्हें पुस्तक के रुप में छपवाने का शौक पूरा नहीं कर पा रहा था. 

अन्ततः यह शौक भी पूरा हुआ. 20 कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ. 

प्रकाशन-संस्थान का नाम मैंने "जगप्रभा" प्रकाशन रखा है- पिताजी और माँ के नामों के आद्यांशों को मिलाकर मैंने यह नाम बनाया है. 
*** 
कुछ प्रतियाँ मँगवाकर मैंने दो-एक लोगों को दिखाया. उन्हें पसन्द आयी. तब मैं इस सूचना को यहाँ साझा कर रहा हूँ. 
***
पुस्तक की भूमिका- जो दो भाग में है, एक में "बनफूल" के बारे में तथा दूसरे में इस संग्रह के बारे में जानकारियाँ हैं- को मैं यहाँ उद्धृत करना चाहूँगा. साथ ही, एक कहानी को भी. 
***
बता दूँ कि जयचाँद दास ने बीसों कहानियों के लिए सुन्दर जलरंग भी बनाये हैं. 
***** 


कुछ बातें ‘‘बनफूल’’ की...

सन् 1914 ईस्वी।
बिहार के एक छोटे-से कस्बे मनिहारीसे एक किशोर गंगा पार करके साहेबगंज आता है। उद्देश्य- यहाँ के रेलवे हाई स्कूल में आगे की पढ़ाई करना। मनिहारी में किशोर ने जिले में अव्वल रहते हुए माइनर स्कूल की पढ़ाई पूरी की है और उसे छात्रवृत्ति भी मिली हुई है। (साहेबगंज आज झारखण्ड में पड़ता है।)
यह किशोर लेखन में रुचि रखता है। स्कूल में वह ‘‘विकास’’ (बिकाश) नाम से एक हस्तलिखित पत्रिका निकालना शुरु करता है। उसकी खुद की रचनायें भी उसमें रहती हैं।
अगले ही साल उसकी एक कविता स्तरीय बँगला पत्रिका ‘‘मालञ्च’’ में छपती है।
संस्कृत के शिक्षक उसे बुलाकर डाँटते हैं- तुम यहाँ पढ़ाई करने आये हो या साहित्य रचना करने?
प्रधानाध्यापक भी साहित्यिक गतिविधियों को पढ़ाई-लिखाई में बाधक मानते हैं। वह किशोर लिखना छोड़ देता है।
मगर स्कूल में एक दूसरे शिक्षक भी हैं- बोटू दा, जो उस किशोर का हौसला बढ़ाते हैं। कहते हैं- अगर लिखना छोड़ दोगे, तो तुम्हारी प्रतिभा नष्ट हो जायेगी। वे सलाह देते हैं- किसी छद्म नाम से क्यों नहीं लिखते?
मनिहारी में घर के नौकर उस किशोर को ‘‘जंगली बाबू’’ कहकर बुलाते हैं, क्योंकि हाथ में छड़ी लेकर जंगलों में घूमना और फूल-पत्तियों को निहारना उसे पसन्द है। यह बात जानने पर बोटू दा कहते हैं- जब तुम्हें जंगल की फूल-पत्तियाँ पसन्द हैं, तो ‘‘बनफूल’’ नाम से ही लिखा करो!
इस प्रकार, पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें भेजने के लिए वह किशोर ‘‘बनफूल’’ का छद्म नाम अपनाता है। प्रसिद्ध प्रवासीपत्रिका में भी 1918 में उसकी कविता छपती है।  
अगले 50 वर्षों में ‘‘बनफूल’’ के कलमी नाम से वह किशोर न केवल हजारों कवितायें लिखता है, बल्कि 586 कहानियों, 60 उपन्यासों 5 नाटकों और कई एकांकियों की भी रचना वह करता है! वह एक आत्मकथा भी लिखता है। उसके लेखों की संख्या तो अनगिनत है!
***
उस किशोर का, अर्थात् ‘‘बनफूल’’ का मूल नाम है- बालायचाँद मुखोपाध्याय। उनकी माता मृणालिनी देवी तथा पिता सत्यचरण मुखोपाध्याय थे। उनका जन्म 19 जुलाई 1899 को बिहार के मनिहारी में हुआ था। छह भाईयों तथा दो बहनों में वे सबसे बड़े थे। (मनिहारी एक गंगा-घाटके रुप में प्रसिद्ध है, जहाँ से स्टीमर में बैठकर लोग-बाग दूसरी तरफ साहेबगंज घाट तक जाना-आना करते हैं। पहले घाट साहेबगंज से कुछ दूर सकरीगली में हुआ करता था।)
***
1918 में साहेबगंज रेलवे हाई स्कूल से मैट्रिक पास करने के बाद वे हजारीबाग के सन्त कोलम्बस कॉलेज से आई. एस-सी. पास करते हैं और फिर कोलकाता मेडिकल कॉलेज में छह वर्षों तक मेडिकल की पढ़ाई करते हैं। एक साल वे पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में भी रहते हैं।
पढ़ाई के बाद पहली नौकरी वे एक गैर-सरकारी प्रयोगशाला में करते हैं, उसके बाद आजिमगंज (मुर्शिदाबाद जिला, पश्चिम बँगाल) के सरकारी अस्पताल में चिकित्सा अधिकरी बनते हैं, मगर जल्दी ही वे भागलपुर में आकर बस जाते हैं और अपना खुद का पैथोलॉजी लैब चलाते हैं। यहाँ वे प्रायः 40 साल रहते हैं। इस दौरान वे अपने छोटे भाई-बहनों की जिम्मेवारी भी उठाते हैं।
जीवन की सान्ध्य बेला में, जब लिखने में भी वे असमर्थ हो चले थे, भागलपुर छोड़कर वे कोलकाता (सॉल्ट लेक) में जाकर बस जाते हैं। हजारों लोग, जिनमें गरीब ज्यादा थे, उन्हें भाव-भीनी विदाई देने भागलपुर स्टेशन पर आते हैं। यह साल था- 1968
***
‘‘बनफूल’’ के कुछ उपन्यासों के नाम हैं- तृणखण्ड, मानदण्ड, जंगम, स्थावर, उदय-अस्त, महारानी, मानसपुर, कन्यासू, भीमपलश्री (हास्य), द्वैरथ, मृगया, किछुक्षण, रात्रि, वैतरणी तीरे, से ओ आमि, अग्नि, नवदिगन्त, कोष्टिपाथोर, पंचपर्व, लोक्खिर आगमन, दाना इत्यादि। स्थावरऔर जंगमउपन्यासों को बँगला साहित्य में आज कालजयीकृति होने का सम्मान प्राप्त है। हाटे-बाजारे’, ‘अग्निश्वर’, ‘भुवन सोम’ ‘छद्मवेषीपर फिल्में बन चुकी हैं।
उनके कहानी-संग्रह हैं- बनफूलेर गल्प, बनफूलेर आरो गल्प, बाहुल्य, विन्दु विसर्ग, आद्रिश्लोक, अनुगामिनी, नवमंजरी, उर्मिमाला, सप्तमी, बनफूलेर श्रेष्ठ गल्प, बनफूलेर गल्प संग्रह (प्रथम शतक) और बनफूलेर गल्प संग्रह (द्वितीय शतक)।   
‘‘बनफूल’’ अपनी सरस, चुटीली छोटी कहानियों के लिए जाने जाते हैं, जो पेज भर लम्बी होती हैं। जैसे एक शेर अन्त में विस्मय के साथ समाप्त होता है, उनकी छोटी कहानियाँ भी विस्मय के साथ समाप्त होती हैं। उनके चरित्र वास्तविक जीवन से चुने हुए होते हैं। अँगेजी में इस प्रकार के शब्दचित्रों को विनेट’ (vignet) कहते हैं।
***
डाना’ (डैना- पंख) पुस्तक की रचना के समय ‘‘बनफूल’’ बाकायदे दूरबीन लेकर चिड़ियों पर शोध तथा चिड़ियों पर लिखी पुस्तकों का विस्तृत अध्यन करते हैं। इस पुस्तक के बारे में एक अन्य बँगला लेखक परशुरामका मानना है कि इसे अँग्रेजी में अनुदित कर नोबेल पुरस्कार के लिए भेजा जाना चाहिए। मगर ‘‘बनफूल’’ का मानना है कि अच्छे पाठकों/दर्शकों की नजर में रचनाकार को मिला पुरस्कार कोई मायने नहीं रखता और कला का मूल्यांकन काल करता है!
पश्चिम बँगाल के राज्यपाल के मुख्य सचिव श्री बी.आर. गुप्त सॉल्टलेक में अगर ‘‘बनफूल’’ के पड़ोसी एवं मित्र नहीं होते, तो शायद वे पद्मभूषणके लिए राजी न होते।
***
‘‘बनफूल’’ को 1951 में शरत स्मृति पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है। 1962 में उनके उपन्यास हाटे-बाजारेपर रवीन्द्र पुरस्कार मिलता है। राष्ट्रपति से उन्हें स्वर्णपदक मिला है तथा भारत सरकार ने उन्हें 1975 में पद्मभूषण से सम्मानित किया है। 1977 में वे बँगला साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष बनते हैं। उनकी जन्मशतवार्षिकी (1999) पर भारत सरकार उनपर डाक टिकट जारी करती है तथा तपन सिन्हा उनके जीवनवृत्त पर फिल्म बनाते हैं।
***
‘‘बनफूल’’ की धर्मपत्नी लीलावती जी के बारे में उल्लेखनीय है कि वे उस जमाने की स्नातक थीं। वे न केवल ‘‘बनफूल’’ की रचनाओं की पहली पाठिका, बल्कि स्पष्टवादी आलोचिका भी हुआ करती थीं। उनके देहावसान के बाद ‘‘बनफूल’’ अकेले पड़ जाते हैं और तब वे उनसे जुड़े रहने के लिए प्रतिदिन उन्हें पत्र लिखते हैं। पत्र डायरीके रूप में हैं, जिसमें देशकाल की वर्तमान अवस्था पर उनकी टिप्पणियाँ, कवितायें, व्यंग्य इत्यादि हैं। इसी समय वे ‘‘ली’’ नाम का उपन्यास भी लिखते हैं।
***
सॉल्ट लेक, कोलकाता के जिस घर में 9 फरवरी 1979 के दिन ‘‘बनफूल’’ अन्तिम साँसें लेते हैं, उस घर के सामने वाली सड़क का नाम आज बनफूल पथहै।
बिहार के सीमांचल क्षेत्र के सहरसा से कटिहार होते हुए कोलकाता जाने वाली एक ट्रेन को उनके एक प्रसिद्ध उपन्यास के नाम पर हाटे-बाजारे एक्सप्रेसनाम दिया गया है।
***
प्रस्तुत कहानी-संग्रह की अनुदित कहानियाँ बनफूलेर गल्प संग्रह (प्रथम शतक)से चुनी गयीं हैं, जिसे ‘‘बनफूल’’ ने 20 जून 1955 के दिन अपनी सहधर्मिणी श्रीमती लीलावती देवी के करकमलों में अर्पित किया है। इस संग्रह में उनकी 1936 से 1943 तक की कहानियाँ संकलित हैं। प्रस्तावना के रुप में राजशेखर बसु (परशुराम’) के पत्र को ‘‘बनफूल’’ ने उद्धृत कर रखा है, जिसमें छोटी कहानियों पर चर्चा है। उस पत्र के अन्तिम पारा को यहाँ भी उद्धृत किया जा रहा हैः-
‘‘विषयों के वैविध्य के मामले में आप हमारे कहानीकारों के बीच अद्वितीय हैं। वास्तविक, काल्पनिक, असम्भव, रूपक, प्रतीकात्मक, सभी प्रकार की रचनाओं में आप सिद्धहस्त हैं। आप जो लिखते हैं, वह छोटी कहानी है या बड़ी कहानी या उपन्यास यह विचार करना निरर्थक है। गद्यपद्यमय चम्पूकाव्य मृगया’, अलौकिक रूपक वैतरणी तीरे’, विचित्र चरित्रचित्र जैसे नाथुनिर मा’, ‘छोटो लोक’, ‘विज्ञान’, ‘देशी ओ विलातिसभी आपकी सार्थक रचनायें हैं। अतिकाय प्राणियों के समान महाकाव्य भी आज लुप्त हो गये हैं। मेरा विश्वास है, महाउपन्यास भी क्रमशः लुप्त होंगे, छोटी रचनायें ही सुधिजनों की आकांक्षाओं को तृप्त करेंगी। अतिभोजी पाठक-पाठिकाओं के लिए जंगमलिखकर प्रचुर मात्रा में कैलोरी की आपूर्ति कीजिये। मगर स्वल्पभोजी भी बहुत हैं, उनके लिए नाना प्रकार के जीवनी रस भी थोड़ा-बहुत परोसते रहिए।’’ 
***

...और कुछ अपनी

हिन्दी में ‘‘बनफूल’’ की कहानियों का अनुवाद बहुत कम हुआ है। कारण नहीं पता। सम्भवतः उनका शब्द-चयन तथा वाक्य-विन्यास अनुवाद को कठिन बनाते हैं। मैंने अनुवाद करते समय कहानियों को हिन्दी कहानीबनाने के साथ-साथ उनके शब्द-चयन तथा वाक्य-विन्यास को कायम रखने की कोशिश की है। अब यह हिन्दी पाठकों को पसन्द आये, तो बात बने।
इस अनुवाद के प्रकाशित होने पर मुझे ऐसा लगता है, मैं अपने पिताजी की एक (अनकही) इच्छा को पूरी कर रहा हूँ। वे ‘‘बनफूल’’ के भक्त रहे हैं और प्रथम शतकवाली मूल पुस्तक उन्होंने ही मुझे दी थी।
मेरे हस्तलिखित अनुवादों को कम्प्यूटर पर टाईप करने में जहाँ मेरी पत्नी अंशु का योगदान रहा है, वहीं मुखपृष्ठ की डिजाइन में मेरे चौदहवर्षीय बेटे अभिमन्यु का योगदान रहा है।
आवरण पर ‘‘बनफूल’’ का जो व्यक्तिचित्र (पोर्ट्रेट) है, उसे मैंने एक बॅंगला अखबार के रविवारीय परिशिष्ट (दिनांकः 11 जुलाई 1999) से स्कैन किया है। यह एक तैलचित्र की तस्वीर है, जिसके चित्रकार रिण्टु रायहैं।
आवरण की दूसरी तस्वीर में लिलि प्रजाति का जो एक जोड़ा सफेद फूल दीख रहा है, वह हमारे घर के पिछवाड़े में बरसात के दिनों में खिलता है। बहुत ही मादक सुगन्ध होती है इन फूलों की, जो सन्ध्या के समय फैलती है। पिताजी याद करते हैं कि हमारे बिन्दुवासिनी पहाड़ पर रहने वाले सन्यासी ‘‘पहाड़ी बाबा’’ ने इस फूल का नाम ‘‘भूमिचम्पा’’ बताया था। मुझे लगा- इस फूल को जंगल के फूलका प्रतीक माना जा सकता है।
पिछले आवरण पर मनिहारी स्थित उस घर के दो छायाचित्र हैं (अलग-अलग कोणों से), जहॉं ‘‘बनफूल’’ का जन्म हुआ था। मनिहारी में ही रह रहे ‘‘बनफूल’’ के सबसे छोटे भाई श्री उज्जवल मुखोपाध्याय ने इस घर को एक स्मारक की तरह सहेज कर रखा है। 
चूँकि हिन्दी के पाठकों के बीच ‘‘बनफूल’’ आज भी एक अनजाना-सा नाम है, और उनकी अपने ढंग की अनूठी कहानियाँ हिन्दी साहित्य में लोकप्रिय नहीं हैं, इसलिए अनुवाद के इस संग्रह का नाम ‘‘जंगल के फूल’’ रखा जा रहा है...
आशा है, कहानी रूपी इन फूलों के रस की मिठास हिन्दी के साहित्यरसिक रूपी भ्रमरों को तृप्त करेगी और इससे मुझे अगली कुछ और कहानियों के अनुवाद प्रस्तुत करने के लिए भी प्रेरणा मिलेगी...  
इति।                       

19 जुलाई 2011                                                                                                          -जयदीप शेखर
                                                                                                       jaydeepshekhar@gmail.com

*** 
10.      सनातनपुर के वासी (सनातनपुरेर अधिबासीवृन्द)


बुजुर्ग वकील शैलेश्वर बाबू अचानक लापता हो गये हैं। यह खबर ही उत्तेजना फैलाने के लिए काफी थी। सनातनपुर के निवासी अगर चाहते तो अखबार में फोटो छपवाकर, सभा-समिति आयोजित कराकर, कविता लिखवाकर तथा और भी बहुतेरे उपायों से अनायास ही अपनी उत्तेजना प्रकाश कर सकते थे। लेकिन फिलहाल ऐसा कुछ भी कर पाने का उपाय नहीं है। सिर्फ कानाफूसी करने के लिए वे मजबूर हैं; कारण और कुछ नहीं, श्यामा नामक एक धोबन भी साथ-साथ गायब है।
                शैलेश्वर बाबू के हितैषी कुछ बुजुर्ग सज्जन यथासम्भव इस खबर को दबाने की कोशिश कर रहें हैं। हालदार महाशय सर्वत्र यह प्रचार करते घूम रहें हैं कि शैलेश्वर बाबू एक मुकदमे के सिलसिले में खूलना गए हुए हैं। जाते हुए उनसे मुलाकात भी हुई थी।
                यह बात सरासर झूठ थी। लेकिन बुजुर्ग हालदार महाशय जोर-शोर से यही प्रचार करने लगे। इन्हीं हालदार महाशय के साथ लेकिन जब बुजुर्ग भादुड़ी महाशय की भेंट हुई, तब आवाज नीची करके वे बोले, ‘‘छिः-छिः, शैलेश ने तो नाक ही कटवा लिया!’’
                ऐसे में भादुड़ी महाशय ने च छ संयुक्त व विसर्ग का उपयोग करना ही उचित समझा, ‘‘अरे च्छः-च्छः-च्छः-च्छः- ’’
                लेकिन अगले ही पल उत्साह के साथ भादुड़ी ने पूछा, ‘‘अच्छा, कौन-सी धोबन, बताना तो?’’
                पता चला, हालदार महाशय को इस विषय का पुंखानुपुंख ज्ञान है। उस रजकिनी के आवास स्थान, चेहरा, उम्र और स्वभाव चरित्र के सम्बन्ध में नातिदीर्घ वक्तव्य देने के बाद उपसंहार में वे बोले, ‘‘अन्दर-ही-अन्दर शैलेश इतना डूबा हुआ था, किसे पता था? इतना बड़ा लड़का है, जवान लड़की है-’’
                भादुड़ी महाशय ने फिर कहा, ‘‘च्छः-च्छः! नाम हँसा दिया उसने!’’
                लंगड़े मल्लिक महाशय ने बड़ी चालाकी से यह खबर हासिल किया कि भागने से एक दिन पहले श्यामा ने अपने पति पीरू धोबी के हाथों मार खाई थी।
                मल्लिक महाशय शैलेश के हिताकांक्षी हैं। पीरू धोबी के पास जाकर वे बोले, ‘‘यह बात और किसी से मत कहना, समझे?’’
                विस्मित पीरू ने पूछा, ‘‘कौन-सी बात?’’ अकचकाए मल्लिक महाशय से कोई उत्तर देते नहीं बना और लंगड़ाते हुए अपने दल में लौटकर उन्होंने पीरू जनित घटना कह सुनाया। सुनते ही सब मिलकर मल्लिक को ही बुरा-भला कहने लगे- क्या जरुरत थी पीरू धोबी के पास जाने की? बेवकूफी की भी हद होती है!
                अब मल्लिक महाशय के इस कच्चे काम को सम्भालने के लिए पकी बुद्धि वाले मुखर्जी महोदय को स्वतःप्रवृत्त हो पीरू के घर जाना पड़ा और निरीह मल्लिक के नाम मिथ्या दोषारोपण कर कहना पड़ा, ‘‘मल्लिक की बात का बुरा मत मानना। भांग के नशे में उल्टा-सीधा बोल गया है।’’            
इस बार भी विस्मित होकर पीरू ने कहा, ‘‘मतलब? क्या कह रहें हैं आप?’’
                मुखर्जी दाँत निकालकर बोले, ‘‘मतलब? वो... कुछ नहीं- समझ गए ना?’’ कहकर वे खिसक लिए और अपने दल में लौटकर उन्होंने बताया, ‘‘पीरू तो गुस्से से पागल हो रहा है भाई! मल्लिक ने साँप के ऊपर पैर रख दिया है।’’
                सभी मल्लिक के ऊपर बहुत नाराज हुए। बेचारे मल्लिक दल से निकल कर अकेले-अकेले घूमने लगे। पीरू के बिरादरी वाले दूर से ही मल्लिक को देखकर हँसने लगे कि मल्लिक महाशय आजकल भांग का सेवन करने लगे हैं।
                खैर, शैलेश्वर बाबू के मित्रगण- मित्र, हालदार, मुखर्जी-जैसे बुजुर्ग सज्जन लोग एकजुट होकर एक स्वर से शैलेश्वर बाबू के खूलना गमन का समर्थन करने लगे। वैसे मन-ही-मन भादूड़ी थे कौतूहली, मुखर्जी उत्तेजित, हालदार विस्मित और मल्लिक क्षुब्ध।
                यह तो था शैलेश्वर के हितैषियों का मनोभाव। लेकिन सनातनपुर कोई छोटा-मोटा गाँव तो है नहीं। बहुत-से व्यवसायीगण व भद्रगृहस्थ वहाँ वास करते हैं। कुल दो चण्डी मण्डप हैं वहाँ। अतः शैलेश्वर बाबू का विपक्षी दल भी वहाँ मौजूद था। और चुँकि शैलेश्वर बाबू पैसे वाले, परोपकारी, कर्त्तव्यनिष्ठ व सत्यवादी थे, अतः उनका विपक्षी दल भी अच्छा-खासा बड़ा था। उनको मौका मिल गया। शैलेश्वर-रजकिनी प्रसंग को  नमक-मिर्च लगाकर वे लोगों को सुनाने लगे।
                एक ने आकर खबर दिया, ‘‘हालदार बाबू कहते फिर रहें हैं कि शैलेश्वर बाबू न कि खूलना गए हुए हैं।’’
                हुक्के का दो कश लगाकर राय महाशय बोले, ‘‘हालदार को बता देना भैया कि सूर्य आजकल पश्चिम से उगता है- यह हम सभी जानते हैं। खूलना के बजाय अगर वे ढाका बताते तो और भी सही लगता।’’
                सर हिलाकर चवन्नी हँसी हँसकर लाहिड़ी बोले, ‘‘आहा- गुस्सा क्यों कर रहे हो? यह बात अब हालदार नहीं तो और कौन बोलेगा- बताओ? उस दल में जितने भी हैं, सबके-सब पाजी हैं। बूढ़े मित्तिर को उस दिन मैंने देखा, छुपकर ताड़ी पीकर लौट रहा था। वे फिर मास्टरी करते हैं।’’
                ‘‘भादुड़ी ही कौन-सा कम है? रोज सुबह उसके मयनादीघी के किनारे घूमने जाने का आखिर मतलब क्या है?’’
                वृद्ध गोस्वामी महोदय ने अबतक कुछ नहीं कहा था। अब जाकर उन्होंने संक्षेप में कहा, ‘‘सब गुरू हैं।’’
                ‘‘गुरू-घण्टाल अबकी फँसे हैं फन्दे में।’’ कहकर राय महाशय ने हुक्का गोस्वामी की ओर बढ़ाया।

-दो-
                थोड़े ही दिनों में शैलेश्वर बाबू के इस मामले ने ऐसा गुल खिलाया कि भादुड़ी महाशय के विरूद्ध राय महाशय, राय महाशय के विरूद्ध मुखर्जी महाशय, मुखर्जी महाशय के विरूद्ध गांगुली महाशय, कमर कसकर भिड़ गए। शैलेश्वर बाबू के सम्बन्ध में असम्भव किस्म के अफवाह फैलने लगे। अधिकांश लोगों का मानना था कि वे कलकत्ता गए हैं। लेकिन इस कलकत्ता-सम्बन्धी मतवाद के विरूद्ध एक और जनमत तैयार होने लगा। इसके अनुसार वे ट्रेन से कहीं नहीं गए हैं- क्योंकि स्टेशन के किसी कर्मचारी ने उन्हें ट्रेन से जाते नहीं देखा है। अतः वे पैदल ही कहीं जाकर स-रजकिनी आत्मगोपन कर रहें हैं। एक प्रत्यक्षदर्शी ने जोर देकर कहना शुरु किया- ‘‘मैंने अपनी आँखों से देखा है, शैलेश्वर बाबू धोबन को कँधों पर बैठाकर खेतों के बीच से दौड़े जा रहे थे!’’

-तीन-
                शैलेश्वर बाबू की पत्नी पुत्र व कन्या सहित मायके गयी हुई थीं। शैलेश्वर बाबू के पलायन की अफवाह इतनी व्यापक ढंग से फैली कि भीत-चकित शैलेश्वर-गृहिणी स्वयं एक दिन आ पहुँचीं। आकर लेकिन वे और भी मुश्किल में पड़ गयीं। उनकी समवयस्का गृहिणियों ने अच्छा-खासा रसायन लगाकर बहुत तरह की बातें उन्हें बतायी।
                ‘‘ओ माँ, कितनी घिनौनी हरकत है। मैं तो शर्म से मरी जा रही हूँ।’’ कहकर बहुतों ने गाल पर हाथ रखा और कँधे उचकाए। 
                गाँगुली गृहिणी बोलीं, ‘‘पुरुषों का कोई भरोसा नहीं है बहन, कोई भरोसा नहीं है। एक बार नजरों से दूर हुए कि बस!’’
                हालदार गृहिणी ने थोड़ी सहानुभूति के सााथ कहा, ‘‘वो तो बता रहे थे कि शैलेश्वर बाबू खूलना गए हुए हैं।’’
                मुखोपाध्याय गृहिणी तुनककर बोलीं, ‘‘अरे छोड़ो-छोड़ो। मेरे वो भी उसी दल में हैं। सभी चोर-चोर मौसेरे भाई हैं। मैंने तो साफ-साफ बता दिया है- अब से उनलोगों से मिलना-जुलना बन्द! खा-पीकर रसोई वाले बरामदे में चुपचाप बैठे रहेंगे। बुढ़ापे में इतनी अड्डाबाजी किसलिए?’’
                मुखोपाध्याय गृहिणी का नथ जोर-जोर से हिलने लगा।
                कातर स्वर में शैलेश्वर बाबू की पत्नी ने कहा, ‘‘किसी दिन मैंने लेकिन उन्हें श्यामा धोबन के पास नहीं देखा। हमारे कपड़े तो छीरू धोबी धोता है। श्यामा तो कभी नहीं आयी हमारे घर।’’
                मुखोपाध्याय गृहिणी बोल पड़ीं, ‘‘अगर इतनी भी बुद्धि न होती तो तुम्हारे पति जाते कैसे? वे जो करेंगे वह क्या तुम्हें साक्षी रख के करेंगे? शैलेश्वर बाबू एक घाघ वकील हैं। उनके साथ चालाकी! पुरुषों को बस में रखने का एक ही उपाय है- उन्हें आँखों के सामने रखना। हमारी गाँगुली दीदी ने जैसा कहा है- आँखों से दूर हुए कि बस!’’

-चार-
                शैलेश्वर बाबू के दो पुत्र हैं- माधव और जादव। माधव ने बी.ए. पास कर लिया है। जादव आई.ए. में पढ़ रहा है। वे दोनों अपने पिता के सम्बन्ध में ऐसी कलंकपूर्ण बातें सुनकर निर्वाक रह गये। वे कर भी क्या सकते थे? उनके दोस्तों ने भी बिना सन्देह के विश्वास कर लिया कि शैलेश्वर बाबू वास्तव में एक सफेदपोश बदमाश हैं- इतने दिनों के बाद जाकर उन्होंने अपनी असलियत दिखायी है। उनमें भी कुछ लड़कों ने माधव और जादव का पक्ष लिया और मौखिक सहानुभूति जतलाने लगे।
                इधर वृद्धों के दोनों पक्षों के बीच बात काफी आगे बढ़ गयी। हालदार महाशय के ऊपर धनी राय महाशय इतने खफा हुए कि उन्होंने उनपर डाब चोरी का आरोप लगाते हुए मुकदमा ठोंक दिया। भादुड़ी महाशय ने माणिक पोद्दार से हैंडनोट लिखकर कुछ रुपए उधार लिए थे, गांगुली महाशय के उकसाने पर पोद्दार के भतीजे ने भादुड़ी महाशय पर दवाब डालना शुरु कर दिया। मल्लिक महाशय होम्योपैथी चिकित्सा करते हैं। वे विपक्षी दल के किसी के भी घर अब चिकित्सा नहीं करेंगे- ऐसा प्रचार वे करने लगे। फलस्वरुप कलकत्ते से सरल होम्योपैथी चिकित्सानामक पुस्तक मँगवाकर गोस्वामी महाशय होम्योपैथी सीखने लगे।
                शैलेश्वर बाबू के नाम से दो-चार पत्र आए थे। किसी प्रकार से वे पत्र विपक्षी दल को हस्तगत हो गये। इस मामले में क्रोधित होकर इधर वाले दल के कई दिग्गजों ने मिलकर स्थानीय पोस्टमास्टर के खिलाफ प्रकाण्ड एक आवेदन डाल दिया।
                पोस्टमास्टर बेचारे इस आकस्मिक विपत्ती से घबड़ाकर सबके पास जाकर कातर भाव से मामले को मिटाने के लिए अनुरोध करने लगे। गाँव के वकील आशु बाबू ने टेबल पर घूँसा मारकर उन्हें बता दिया- ‘‘Everything is fair in love and fight। अन्त तक लड़ूँगा तब छोड़ूँगा।’’ 

-पाँच-
                सनातनपुर में घोर उत्तेजना फैली हुई थी।
                सभी अपने-अपने ढंग से आग में घी डाल रहे थे। ऐसे में गाँव में दो घटनाएं घट गयीं।
                अचानक श्यामा धोबन कहीं से लौटकर आ गयी। वह न कि मामा के घर गयी थी। देखा गया पीरू के साथ उसका कोई झगड़ा नहीं था। गधे की पीठ पर गट्ठर रखकर दोनों फिर मजे में घूमने-फिरने लगे- जैसे कुछ हुआ ही न हो। बुजुर्ग लोग कुछ हतम्भव होकर किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गये। बाद में अवश्य उन्होंने समझ लिया- ‘‘होशियार से होशियारी! मामाघर! पीरू बेटे ने जरुर रुपया खाया है। माधव बेटा कोई कम समझदार थोड़े है!’’
                शैलेश्वर मुक्तार नहीं लौटे। कारण, उनकी मृत्यु हो चुकी थी। प्रेम में नहीं, बल्कि कुएं में डूबकर। गाँव में ही एक पुराना कुआँ था, जो व्यवहार में नहीं था। उसी में उनका सड़ा-गला शरीर कुछ दिनों बाद नजर आया।
                मल्लिक महाशय ने पता लगाया था।

---0ः---