शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2018

205. शुभ विजयादशमी




     विजयादशमी के दिन शस्त्र-पूजन की परम्परा है। अब एक किसान या खेतीहर मजदूर के लिए अस्त्र-शस्त्र क्या है? बेशक, कुदाल (फावड़ा), हँसिया, तराजू इत्यादि। दूसरी जगहों के बारे में हम नहीं जानते, पर हमारे पैतृक गाँव में इन्हीं शस्त्रों की पूजन की परम्परा है। ऊपर जो दो छायाचित्र हैं, वे हमारे पैतृक गाँव के दो आँगनों के है। इन्हें देखकर समझा जा सकता है कि मुख्य रुप से कृषि से आजीविका प्राप्त करने वाले गृहस्थों के लिए अस्त्र-शस्त्र क्या होते हैं।
     हमलोग अब कृषि से प्रत्यक्ष रुप से नहीं जुड़े हैं, मगर इस पुरानी परम्परा को आज तक हमारे घर में भी निभाया जाता है। आँगन को गोबर से लीपकर गृहस्थी के सारे हथियारों को धोकर एक साथ रखा जाता है और उनकी पूजा की जाती है। "ढेकी" को समाप्त हुए जमाना बीत गया (हालाँकि सुदूर ग्रामीण इलाकों में ढेकी अभी भी इस्तेमाल में है, खासकर, सन्थाली बस्तियों में), मगर एक ओखली और मूसल हमारे यहाँ अब तक सुरक्षित है। साल भर वह कहाँ रहता है, पता नहीं (मतलब व्यक्तिगत रुप से मुझे नहीं पता), मगर आज के दिन वह बाहर आता है। एक दिन और बाहर आयेगा- जब नये चावल का त्यौहार "नवान्न" मनाया जायेगा। उस दिन बाकायदे इस ओखली का प्रयोग किया जायेगा- चावल का प्रसाद बनाने के लिए। एक परिवार है, जिसके यहाँ से हर साल मेरे भाई का एक दोस्त "मूसल" माँगने आता है- शायद गोवर्धन पूजा के दिन। उस दिन उसके घर में इसकी पूजा होती है।
     प्रसंगवश, बता दिया जाय कि एक छोटी चक्की तो हमारे यहाँ है ही- दाल वगैरह दलने के लिए- एक बड़ी चक्की के दो पत्थर भी हमारे यहाँ दशकों से बेकार पड़े हुए हैं। अभी हाल ही में मुहल्ले के दोनों आटा-मिल बन्द हो गये हैं और अन्य मिल जरा दूर के मुहल्ले में हैं। ऐसे में हम गम्भीरता से इन बड़ी चक्कियों को फिर से स्थापित करने के बारे में सोच रहे हैं- गेहूँ पीसने के लिए। इस बड़ी चक्की को हमारे यहाँ "जाँता" कहते हैं।
     आज अपने पैतृक गाँव चले गये थे। पता चला, आज के दिन कभी वहाँ बैलों की छोटी-मोटी दौड़ भी आयोजित होती थी। अब नहीं होती। शायद फिर कभी शुरु हो जाय। जब पाँच साल बाद गाँव में फिर से "चरक मेला" की शुरुआत हो सकती है (इस मेले पर दो आलेख मेरे इस ब्लॉग में हैं), तो बैलों की दौड़ भी शुरु हो सकती है! इसी दिन धान की कीमत भी तय करने की परम्परा थी पहले। अब नहीं है।
     धान पकने से याद आया। देश के पश्चिमी हिस्से में धान पक चुका है, फसल कट चुकी है और अब पराली (हमारे यहाँ पुआल कहते हैं) जलाने- न जलाने को लेकर समस्या हो रही है। देश के मध्य भाग में धान की फसल पकने लगी है- शायद एक-दो हफ्ते में कटने भी लगे। मगर हमारे इलाके में- मेरा अनुमान है कि सारे पूर्वी भारत में अभी धान के पौधों बालियाँ आ रही हैं। नीचे की दो तस्वीरों से अनुमान लगाया जा सकता है कि अभी धान में बालियाँ ठीक से आयी भी नहीं हैं। हमारे यहाँ फसल कटते-कटते "अगहन" (अग्रहायण- मार्गशीर्ष) महीना आ जायेगा। दरअसल, पूर्वी भारत की खेती अब भी "मौनसून" आधारित है, जबकि पशिचमी भारत में सिंचाई के पर्याप्त साधन उपलब्ध हैं- इसलिए ऐसा अन्तर है। वैसे, धान की फसल पकने का सही एवं प्राकृतिक समय "अगहन" मास ही है, इसलिए एक युग में इसे महीने को साल का पहला महीना माना जाता था।


     जब आप चित्र देखेंगे, तो आपको उसमें स्कूटर भी नजर आयेगा। अब उस पर भी कुछ कह दिया जाय। पहली बात, यह स्कूटी नहीं, स्कूटर है- बजाज का 'लीजेण्ड'। 150 सी.सी. का फोर स्ट्रोक इंजन है इसमें। इसका नम्बर है- 8499। इस नम्बर को तारीख में बदलने पर तारीख बनती है- 8 अप्रैल 99 और इसे हमने सही में 1999 के अप्रैल महीने में लिया था- 5 तारीख को। यह आज भी चल रहा है और हाल ही में इसकी मरम्मत करने वाले मैकेनिक ने स्वीकार किया कि इसकी माइलेज गजब की है- यानि आज की नयी गाड़ियाँ भी शायद इतनी माइलेज न दे! 


     अन्त में दो और तस्वीरें- श्रीमतीजी की। एक तस्वीर तलवार के साथ है- इस तलवार को हमने अमृतसर में लिया था- स्वर्ण मन्दिर के परिसर से- एक यादगार के तौर पर। दूसरी तस्वीर एयर गन के साथ है, इसे हमने पूर्णिया में लिया था- बेटे के जन्मदिन के तोहफे के रुप में- जब वह छोटा था। आज शस्त्र-पूजन के लिए इन्हें भी बाहर निकाल लिया था।
     इतना ही।
     शुभ विजयादशमी- बड़ों को चरणस्पर्श, छोटों को प्यार और हमउम्र को स्नेह।

रविवार, 26 अगस्त 2018

204. दिगम्बर जेठू, बालिका नृत्यांगना तथा नैसर्गिक हँसी



      तस्वीर खींचते समय एक होता है- 'इधर देखिये, मुकुराईये' कह कर (अँग्रेजी में- 'Say Cheese') तस्वीर खींचना और एक होता है- जब कोई किसी काम में या बातचीत में, या फिर किसी भी एक्टिविटि में मशगूल हो, तब तस्वीर खींच लेना। पहले तरीके से तस्वीर खींचने पर आम तौर पर एक "कृत्रिम" हँसी कैमरे में कैद होती है, जबकि दूसरा तरीका अपनाने पर कई बार एक "नैसर्गिक" हँसी कैमरे में कैद हो जाती है।
      अभी 'विश्व छायाकारी दिवस' पर जानकारी (कि यह 19 अगस्त को क्यों मनाया जाता है) हासिल करते समय विख्यात छायाकार रघु राय का एक कथन मेरे सामने से गुजरा। कथन इस प्रकार से था: 'चित्र खींचने के लिए पहले से कोई तैयारी नहीं करता। मैं उसे उसके वास्तविक रूप में अचानक कैंडिड रूप में ही लेना पसंद करता हूं।'
"रघु राय" नाम तथा उनकी तस्वीरों से हम तब से परिचित हैं- जब पत्र-पत्रिकाओं का जमाना हुआ करता था। उनका यह कथन हमें बहुत अच्छा लगा, क्योंकि हम भी इसी सिद्धान्त पर चलना पसन्द करते हैं- भले हम छायाकार नहीं हैं।
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खैर, तो मुद्दे की बात यह है कि 15 अगस्त के दिन हम घूमते हुए शिष्टाचार वश 'दिगम्बर जेठू' से मिलने चले गये थे। कुछ देर बाद वहाँ नृत्यांगना की वेशभूषा में एक बालिका आयी अपनी माँ के साथ। याद आया- कुछ देर पहले बरहरवा हाई स्कूल के प्राँगण में ('नागरिक मंच' द्वारा आयोजित वार्षिक) स्वतंत्रता दिवस समारोह में हमने जो उद्घाटन नृत्य देखा था, उसे सम्भवतः यही बलिका नृत्यांगना कर रही थी। वह अपना पुरस्कार दिखलाने आयी थी।
दिगम्बर जेठू मेरे पिताजी के हमउम्र हैं- कुछ बड़े ही हैं- तभी तो उन्हें हमलोग 'काकू' के स्थान पर 'जेठू' कहते हैं। उस बालिका के लिए वे 'दादाजी' होंगे। तो दादा-पोती खूब मशगूल होकर बातें करने लगे। इसी बीच हमने उनकी कुछ तस्वीरें खींच लीं। जब बातचीत बन्द हुई, तब हमने तस्वीरें दिखायीं उन्हें। जेठू ने मेरी इस कलाकारी की तारीफ की कि हम एक "नैसर्गिक" हँसी को कैमरे में कैद करने में सफल रहे।
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अभी लिखते वक्त याद आ रहा है कि दिगम्बर जेठू के छोटे भाई दिलीप काकू ने भी एकबार मेरी छायाकारी की प्रशंसा की थी। वह रील वाले कैमरे का जमाना था। हमने सूर्योदय के वक्त बिन्दुवासिनी पहाड़ी पर जाकर उगते हुए सूर्य की तस्वीर ली थी। उस तस्वीर को देखने के बाद दिलीप काकू ने तुरन्त अपनी जेब से कलम निकाल कर तस्वीर के पीछे लिख दिया: "बधाई! बेटा बाप हो गया (फोटोग्राफी में)!"
बता दूँ कि दिलीप काकू का देहावसान बहुत पहले हो चुका है- वे पिताजी के बाल्यसखा थे- एक बँगला नाटक में दोनों ने जिगरी दोस्त की भूमिका भी निभायी थी।
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मंगलवार, 31 जुलाई 2018

203. शिवगादी: रात्रि में

      कल जाने क्या सूझा, हम शाम ढलने के बाद 'शिवगादी' के लिए रवाना हुए। उद्देश्य- सावन की पहली सोमवारी पर शिव की पूजा-अर्चना। योजना जयचाँद की थी। मेरा पाषाणयुगीन स्कुटर (बजाज- लीजेण्ड) कुछ समय से पंगु खड़ा है। जयचाँद ने ही अपने मित्र की स्कुटी की व्यवस्था की मेरे लिए। करीब 30 किलोमीटर का रास्ता है- 20-22 किलोमीटर पर बरहेट कस्बा है और फिर, वहाँ से शिवगादी की गुफा 7 किलोमीटर दूर है। रास्ते का ज्यादातर हिस्सा पहाड़ियों की तलहटी से होकर गुजरता है- सिर्फ बरहरवा से निकलते ही एक जुड़वाँ पहाड़ी की चढ़ाई पार करनी पड़ती है। वापसी में रात होगी, यह तो पता था; मगर मूसलाधार वर्षा होगी- इसका जरा भी अन्दाजा हमें नहीं था।
      हमलोग शाम करीब छ्ह बजे निकले थे। सड़क अच्छी है। जब तक हम शिवगादी पहुँचे, अन्धेरा घिर चुका था। यह प्राकृतिक गुफा एक पहाड़ी पर है। गुफा की बाहरी दीवारों से सदा पानी टपकता- बल्कि बरसता रहता है और यही यहाँ का मुख्य आकर्षण है। गुफा के अन्दर भी पत्थर की छत से पानी टपकता रहता है। अब यह स्थल 'गजेश्वर धाम' का रुप ले चुका है और इसकी गिनती देवघर के बाबाधाम और बासुकीधाम के बाद होने लगी है। सावन भर यहाँ मेला लगा रहता है। हमलोगों ने अपने बचपन और कैशोर्य में इसका विशुद्ध "प्राकृतिक" रुप देखा है। तब झारखण्ड बिहार से अलग नहीं हुआ था। सड़कें टूटी-फूटी हुआ करती थीं। बरहेट से शिवगादी वाली सड़क कच्ची थी- पथरीली। कमर भर पानी में डूबकर गुमानी नदी को पार करना पड़ता था। गुफा तक की चढ़ाई 'पर्वतारोहण' हुआ करता था। तब भी अच्छी-खासी संख्या में यहाँ काँवड़िये आते थे- फरक्का से गंगा-जल लेकर। करीब 50-60 किलोमीटर की काँवड़-यात्रा बनती थी।
अब तो बात ही कुछ और है। सड़क शुरु से अन्त तक अच्छी है, गुमानी नदी पर पुल (बाँध सहित) बन चुका है, झारखण्ड सरकार ने तथा यहाँ की स्थानीय समिति ने बहुत खर्च करके इस स्थल पर बहुत से निर्माण कार्य किये हैं। सावन में बड़ी संख्या में काँवड़िये आते हैं- खासकर, बंगाल से। ज्यादातर पैदल ही होते हैं, पर मोटर-साइकिल या चारपहिया वाहनों में भी बहुत लोग आते हैं। 
खैर, गुफा में प्रवेश करने पर हमने देखा कि विशेष-पूजा चल रही है। बरहेट के ही किसी परिवार की ओर से पूजा चल रही थी। लगा, पूजा लम्बी चलेगी। एक परिचित- जो प्रतिदिन बरहरवा आते हैं- के माध्यम से हमने पण्डितजी और पूजा करवाने वाले परिवार से कहलवाया कि हमें भी जल चढ़ाना है। उनकी पूजा को थोड़ी देर के लिए विश्राम दिया गया। जयचाँद की पत्नी और अंशु ने बैठकर पूजा की। पिछले कई वर्षों से हर साल सावन में एकबार यहाँ आना हो रहा है, मगर रात्रि में यह पहली बार आना हुआ। अच्छा ही लगा।  
नीचे आकर हमने और जयचाँद ने चाय पी और उनदोनों ने थोड़ी खरीदारी की। जब हम वापसी की यात्रा पर रवाना हुए, तो काले आकाश में दूर बिजलियाँ चमक रही थीं। बरहेट से निकलने के कुछ देर बाद बूँदा-बाँदी शुरु हुई और इसके बाद उतरी मूसलाधार वर्षा। एक यात्री-पड़ाव में हमने शरण लिया। कुछ ही देर में तीन मोटर-साइकिलों पर सवार छह और लोगों ने वहीं शरण लिया। पहले तो कुछ पता नहीं चला कि वे कौन लोग हैं, लेकिन जल्दी ही उनके टीम-लीडर ने हमें पहचान लिया। वे ठेके पर छतों की ढलाई करने वाले लोग थे। हमारे 'रतनपुर प्रोजेक्ट' की दूसरी छत की ढलाई इन्हीं लोगों ने की थी। पता चला, आज इनकी मशीन खराब हो गयी थी, इसलिए ये काफी देर से लौट रहे थे- बरहेट में कहीं ढलाई कर रहे थे ये।
वर्षा का रंग-ढंग देखकर लगा- यह जल्दी थमने वाली नहीं है। इधर समय रात के नौ बजे से ऊपर का हो रहा था। अन्त में, उस तेज वर्षा में ही हम सब निकल पड़े। बारिश की बूँदें चेहरे पर चोट कर रही थीं। शरीर रह-रह कर ठिठुर रहा था। अन्धेरी रात, जंगली-पहाड़ी रास्ता, तेज वर्षा, मोटर-साइकिलों की हेडलाइट की रोशनी- सबने मिलकर इस छोटे-से सफर को 'एडवेंचर' में बदल दिया।
पहाड़ियों से उतरकर बरहरवा की सीमा में प्रवेश करने के बाद एक दूकान खुली दिखायी दी। दूकानदार से प्लास्टिक की थैली लेकर मोबाइल को सुरक्षित किया गया। इसके बाद बारिश की रफ्तार कुछ कम हुई। हालाँकि घर आने तक वर्षा हो ही रही थी।
कुल-मिलाकर, शिवगादी की यह रात्रि-यात्रा यादगार हो गयी। 




शनिवार, 9 जून 2018

202. Bliss@Barharwa



हमारे इलाके का  "ब्लिस" . छाया-  जयचाँद 

      "ब्लिस" का हिन्दी हुआ- परमानन्द!      
"ब्लिस" उस तस्वीर का शीर्षक है, जो कभी Windows XP का डिफॉल्ट वालपेपर हुआ करता था। इसके छायाकार हैं- चार्ल्स ओ'रियर। वे नेशनल जियोग्राफिक के मशहूर छायाकार हैं। इस तस्वीर को उन्होंने 1996 में क्लिक किया था- अमेरिका के कैलिफोर्निया प्रान्त में नेपा वैली के पास के कस्बे सोनोमा काउण्टी में। सोनोमा हाइवे से गुजरते हुए इस छोटी-सी पहाड़ी के दृश्य ने उन्हें मंत्रमुग्ध कर दिया था। आँधी-बारिश के बाद मौसम खुला ही था और आकाश में बादल आ-जा रहे थे। वहाँ उन्होंने चार तस्वीरें खींची थीं। चूँकि नेशनल जियोग्राफिक में ऐसी तस्वीरों का इस्तेमाल नहीं था, इसलिए फोटो स्टॉक करने वाली एक वेबसाइट पर उन्होंने तस्वीरें डाल दीं कि थोड़ा-सा लाइसेन्स फी चुकाकर कोई भी इनका इस्तेमाल कर सके।
किस्मत की बात। माइक्रोसॉफ्ट वालों को विण्डोज एक्स-पी के डिफॉल्ट वालपेपर के लिए यही तस्वीर पसन्द आयी और उनलोगों ने बडी कीमत अदा करके निगेटिव सहित वह तस्वीर चार्ल्स से खरीद ली। कीमत गोपनीय है- शायद यह दुनिया की दूसरी सबसे महँगी तस्वीर है!
...खैर। हाल ही में हमने वेब-पत्रिका 'लल्लनटॉप' पर "ब्लिस" पर यह लेख पढ़ा। पढ़कर ध्यान आया- क्यों न हम भी अपने इलाके के "ब्लिस" की तस्वीर को सार्वजनिक करें! उधर से कभी-कभार हमारा गुजरना होता ही है।
तो आज हम और मित्र जयचाँद जब उधर से गुजर रहे थे, तो हमने अपने इलाके के "परमानन्द" की कुछ तस्वीरें खींच ली।
उसे ही साझा करने के लिए यह ब्लॉग पोस्ट है...

(लल्लनटॉप के उपर्युक्त लेख का लिंक है-
The Bliss at Windows XP

रविवार, 13 मई 2018

201. "हागड़ा"

अभी तक जरुरत नहीं पड़ी थी; मगर पिछ्ले दिनों जब एक करीबी की चिकित्सा जाँच में गुर्दे की खराबी की समस्या सामने आयी, तो हमें (इण्टरनेट पर) गुर्दे के सम्बन्ध में थोड़ा अध्ययन करना पड़ा।
पता चला कि खराब गुर्दों को फिर से स्वस्थ बनाने के लिए कोई इंजेक्शन या दवा होती ही नहीं है! डॉक्टर सीधे डायलिसिस या फिर गुर्दा-प्रत्यारोपण (किडनी-ट्रान्सप्लाण्ट) की सलाह देते हैं। जो दवाईयाँ वे चलाते हैं, वे रक्त में हीमोग्लोबीन की मात्रा बढ़ाने; शरीर में पोषक-तत्वों की आपूर्ति करने; ब्लड-प्रेशर, थायराइड, शूगर इत्यादि को नियंत्रित करने के लिए होती हैं (अगर इनकी समस्या है, तो)। सीधे किडनी को लाभ पहुँचाने वाली कोई दवा नहीं होती! हाँ, 'डाइट-कण्ट्रोल' एक जरुरी चीज बतायी जाती है।  
ऐसा क्यों है? दवाईयों पर शोध करने वाले वैज्ञानिक कर क्या रहे हैं? तब मेरा ध्यान गया कि रक्तचाप (ब्लडप्रेशर) और मधुमेह (डायबिटिज) को भी खत्म करने के लिए दवा नहीं बनती है- शायद, जहाँ तक मेरी जानकारी है। इन मामलों में डॉक्टर दवाओं के साथ बाकी जिन्दगी बिताने की सलाह देते हैं।
माजरा क्या है? क्या दवा और शल्यक्रिया से जुड़ी कम्पनियों का दवाब है वैज्ञानिकों पर कि वे ऐसी बीमारियों को ठीक करने वाली दवाईयों या इंजेक्शनों की खोज न करें?
हमने एक डॉक्टर भाई (कजिन) से सम्पर्क किया, तो उसने खान-पान में नियंत्रण  (डाइट-कण्ट्रोल) के साथ गहरी श्वांस भरने (डीप-ब्रीदिंग) का सुझाव दिया।  
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खैर। नेट पर यह जनकारी मिली कि आयुर्वेद वाले खराब गुर्दों को पूर्णतः स्वस्थ बनाने का दावा करते हैं। हमने एक आयुर्वेद अस्पताल से सम्पर्क किया। एक महीने की दवा का खर्च आठ-नौ हजार बताया गया। साथ में खान-पान में नियंत्रण (डाइट-कण्ट्रोल) तथा प्राणायाम को जरूरी बताया गया।
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थोड़ा और अध्ययन करने पर एक घरेलू-चिकित्सा भी नजर आयी। वह थी- ''गोखरू-काँटे' के काढ़े' का सेवन। डॉक्टर ऐसी चीजों का मजाक उड़ाते हैं। कहते हैं- कुछ भी कर लो, कहीं भी चले जाओ, कोई भी जड़ी-बूटी खा लो, अन्त में किडनी ट्रांसप्लाण्ट करना ही होगा! ऐसे में, स्वाभाविक रुप से, इतनी गम्भीर बीमारी में घरेलू-चिकित्सा आजमाने की हिम्मत भी कैसे हो?
लेकिन फिर याद आता है, फिल्म "आनन्द" का आखिरी दृश्य- जब राजेश खन्ना आखिरी साँसे गिन रहे होते हैं और अमिताभ बच्चन एक होम्योपैथिक दवा की खोज में भागे जाते हैं- सुना है कि होम्योपैथी में कोई दवा है, जो लग जाय, तो मिराकल कर देती है!
...तो एक विकल्प को आजमाने में हर्ज ही क्या है?
डॉक्टर साहेबान, आपके पास खराब गुर्दों को स्वस्थ बनाने की कोई दवा नहीं है; आपने ब्लड-प्रेशर, थायराइड, हीमोग्लोबीन, न्युट्रीएण्ट्स इत्यादि की दवाइयाँ महीने भर के लिए दे रखी हैं। आपने परिजनों को किडनी-ट्रान्सप्लाण्ट के लिए तैयार रहने को कह रखा है; ऐसे में, जब हमारे पास बीस-पच्चीस दिनों का समय है, तो आपकी दवाईयों के साथ ही साथ इस घरेलू नुस्खे को क्यों न आजमायें?
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खैर, तो वह नुस्खा है- गोखरू-काँटे के काढ़े का सेवन। गोखरू खेतों में उगने वाला एक पौधा है, जिसकी पत्तियाँ लाजवन्ती के पौधों-जैसी होती है। इसमें छोटे-छोटे काँटेदार फल लगते हैं। इन्हीं काँटेदार फलों के काढ़े को पीने की सलाह दी जाती है।
काढ़ा बनवा दिया गया है, आज सुबह-शाम उसकी खुराक ली जा चुकी है। दो-चार दिनों में फायदा नजर आना चाहिए। दो-तीन हफ्ते बाद होने वाली जाँच में अगर क्रेटेनाईन-लेवल नीचे गिरता हुआ नजर आता है, तो इसका मतलब यही होगा कि यह काढ़ा काम कर रहा है।
सोशल मीडिया पर श्री ओमप्रकाश सिंह साहब इस नुस्खे को "रामवाण" बताते हैं- अपने अनुभव के आधार पर। उनके आलेख का लिंक इस प्रकार है:
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अब आप कहेंगे कि इस आलेख का शीर्षक "हागड़ा" क्यों है? तो बात ऐसी है कि जब गोखरू-काँटा लाया गया, तो महिलाओं ने इसे पहचान लिया- अरे, यह तो खेत के गेहूँ के साथ आ जाता था पहले। टोकरी में गेहूँ भरकर तालाब के पानी में गेहूँ को डुबोते ही ये काँटे पानी में तैरने लगते थे। खेतों की मेड़ों से गुजरते वक्त ये काँटे साड़ी से चिपक जाते थे, तब गाँव की महिलायें बताती थीं- देखो, "हागड़ा" के कितने काँटे चिपक गये हैं साड़ी से!  
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