बाँस को हालाँकि पेड़
नहीं माना जाता- यह घास की श्रेणी में आता है (पादप विज्ञान के अनुसार, यह ग्रामिनीई (Gramineae) कुल की एक अत्यंत उपयोगी
घास है), पर हम इसे यहाँ पेड़- पेड़ क्या, 'महीरूह' मान कर चल
रहे हैं।
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अपने
घर के पिछवाड़े में जो थोड़ी-सी परती जगह है, वहाँ हम बाँस का पौधा रोपना चाहते थे,
ताकि बहुत समय बाद वहाँ छोटा-मोटा जंगल हो जाय बाँस का। एक भागीदार से कहा, तो
उसने टाल दिया। बोला- जहाँ कई बीघा परती जमीन होती है, वहाँ यह सब लगाया जाता है।
यह युवा भागीदार था। फिर हमने बुजुर्ग भागीदार से अपनी बात कही। उन्होंने कहा कि
चैत महीने में बाँस का पौधा रोपा जाता है। तीन या चार साल पहले की बात है। हमने
चैत महीने का इन्तजार किया। चैत आया और बीतने भी लगा, आज-कल करते-करते हम जा नहीं
पाये पौधा लाने। चैत का आखिरी दिन आ गया। सुबह बाहर निकलने पर उत्तम मिला मोटर
साइकिल पर। हमने पीछे बैठते हुए कहा- चलो चौलिया, बाँस का चारा लाना है।
चौलिया
में भागीदार ने (हमारी ही) छोटी-सी बाँस-झाड़ में से एक बाँस जड़ सहित काटा, उसे
पाँच या छह फीट का बनाया फिर उसे रोपने का तरीका हमें विस्तार से बता दिया। जड़ में
भागीदार ने पाँच "आँखें" दिखायी हमें कि इससे पाँच पौधे निकलेंगे।
घर
आकर हमने और उत्तम ने निर्देशानुसार उसे रोप दिया।
आज
तीन-चार साल बाद यहाँ पाँच-सात बाँसों की अच्छी-खासी झाड़ बन गयी है। और भी तीन-चार
नये बाँस के पौधे उग आये हैं। हालाँकि यह जगह घर के पिछवाड़े में ही है, पर उस कोने
की तरफ आना-जाना नहीं होता है- दो-चार-छह महीने में ही कभी उस कोने की तरफ जाते
हैं। कुछ दिनों पहले उधर गये थे, तो झाड़ का एक विडियो बना लिये थे। बस, उसे ही
साझा करने के लिए यह ब्लॉग-पोस्ट है। अपने हाथों से रोपा हुआ कोई पौधा जब महीरूह
का रुप धारण करके लहलहाता है और उस पर चिड़ियाँ चहचहाती हैं, तो कितनी खुशी मिलती
है!
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एक और महीरूह (विशाल
पेड़) है हमारे यहाँ- सेमल का। इसकी भी एक कहानी है।
जहाँ
तक हमें याद है, इसका पौधा पिताजी कल्याण क्रिश्चियन के यहाँ से लाये थे। कहा था
कि यह उन्नत नस्ल का सेमल है। आम तौर पर पकने या सूखने के बाद सेमल के फल फटने
लगते हैं और उसकी रूई के फाहे हवा में उड़ने लगते हैं। पिताजी ने कहा था कि इसमें
ऐसा नहीं होगा। समय के साथ पौधा (या डाली- जो भी रही हो) बड़ा हुआ और उस पर फल लगे।
देखा गया- सही में, इसके फल गर्मियों में नहीं फटते थे और रुई बर्बाद नहीं होती थी।
बहुत सारे तकिये बने सेमल की रूई के।
सेमल
का पेड़ विशाल तो होता है, पर उसकी जड़ें शायद मजबूत नहीं होतीं। एक आँधी में पेड़
गिर गया। बहुत दिनों तक गिरा रहा। फिर कुछ लोगों (बेशक, भागीदार ही रहे होंगे) की
मदद से उसे खड़ा किया गया। वह फिर टिक गया और फिर फल देने लगा।
कुछ
वर्षों बाद एक आँधी में वह दुबारा गिर गया। इस बार उसे उठाने की कोशिश नहीं की गयी।
उसे मरने या सूखने के लिए छोड़ दिया गया। जो राजमिस्त्री हमारे यहाँ काम किया करता
था, उसकी नजर पड़ी मोटे तने वाले इस मरते हुए पेड़ पर। उसने इसने खरीदने की पेशकश की।
सेमल के तख्तों का इस्तेमाल यहाँ भवन-निर्माण के दौरान "शटरिंग" (हमारे
इलाके में "सेण्टरिंग" कहते हैं, जो गलत है) के लिए होता है। पता नहीं
क्यों, हम लोगों ने गिरे हुए पेड़ को बेचने में रुचि नहीं दिखायी।
कुछ
वर्षों बाद देखा गया कि जमीन पर गिरे हुए तने से नयी-नयी डालियाम फूट रही हैं और
वे सीधी होकर नये पेड़ के रुप में बड़ी हो रही हैं। जहाँ सेमल का सिर्फ एक पेड़ था,
वहीं दर्जनों पेड़ एक साथ बढ़ने लगे। आज यह एक महीरूह है। कई सारे तने सीधे खड़े हैं,
जो जमीन से नहीं, बल्कि गिरे हुए मुख्य तने से निकले हुए हैं। जड़ें वही पुरानी है,
जो उखड़ गयी थी- लेकिन एक हिस्सा तो जमीन से जुड़ा हुआ था ही। वर्षाकाल में यह बहुत
ही घना और हरा-भरा हो जाता है। गर्मियों में इसमें फल आते हैं। फलों को पोषण देने
के लिए गर्मियों में इसके ज्यादातर पत्ते झड़ जाते हैं। इस वक्त फल पक रहे हैं। फिर
सूखेंगे, इन्हें तोड़ा जायेगा, इनसे रूई निकाली जायेगी और फिर उस रूई से बनेंगे
तकिये आदि। सेमल की रूई तकियों के बहुत अच्छा होता है- बहुत ही मुलायम और आरामदायक।
इस
पेड़ के पुनर्जन्म से एक तो 'फीनिक्स'- सुरखाब की याद आती है, जो अपनी राख से
दुबारा जन्म लेता है (बेशक, किंवदन्ति है) और दूसरे, जीवन की जीवटता को भी याद
दिलाता है- कैसे गिर कर फिर से उठा जाता है...
इति।
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