रविवार, 18 दिसंबर 2016

170. पिताजी



प्रतिष्ठा
पिताजी ने अपने जीवन में पैसे ज्यादा नहीं कमाये, मगर जैसी प्रतिष्ठा उन्होंने गाँव-समाज में हासिल की, वैसा सम्मान बहुत कम लोगों को हासिल होता है। आज बरहरवा के किसी भी व्यक्ति से पूछकर देख लिया जाय (बीते आठ-दस वर्षों में जो पीढ़ी युवा हुई है, उन्हें छोड़कर), उक्त मंतव्य से वह अपनी सहमति जतायेगा।
पिताजी का नाम शुरु से ही बरहरवा के सबसे प्रतिष्ठित व्यक्तियों में शुमार रहा है।
अनुशासनप्रियता
पिताजी के जिस गुण का जिक्र लोग जरुर करेंगे, वह है- अनुशासनप्रियता। जीवन के हर क्षेत्र में वे अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे। घर में हमसब उनके अनुशासन के सामने नतमस्तक तो रहते ही थे, मुहल्ले का भी हर आदमी उनके सामने अनुशासित हो जाता था।
उनकी 'आवाज' प्रसिद्ध थी। घर के सामने खड़े होकर वे आवाज लगाते थे और हमलोग कहीं भी खेल रहे हों- हमलोगों तक आवाज पहुँच जाती थी।
शाम को अक्सर छत पर घर की तथा अड़ोस-पड़ोस की कुछ महिलायें इकट्ठी हो जाया करती थीं- खासकर फिल्म का शो छूटने के समय- सिनेमा हॉल बगल में ही था- नीचे से पिताजी की एक आवाज में सब हड़बड़ा कर भागती थीं। कभी-कभी आँगन में किसी फेरीवाले के आने पर भी महिलायें इकट्ठी होती थीं, यह मजमा भी उनकी एक आवाज से छँट जाता था। पता चला कि दीदी की कई सहेलियाँ तो घर आते समय हिम्मत जुटा कर आती थीं कि पिताजी से सामना न हो!
गर्मियों की दुपहर हमलोग छुप-छुप कर बाहर भागते थे खेलने के लिए- मगर फिर भी उन्हें पता चल जाता था और उनकी 'पुकार' हमें वापस ले आती थी।
युवाओं के बीच लोकप्रियता
जो युवा सामाजिक-सांस्कृतिक-खेल-कूद से जुड़ी गतिविधियों में जरा भी रुचि रखते थे, उन सबके बीच पिताजी बहुत लोकप्रिय थे। नयी पीढ़ी वाले- यहाँ तक कि उनके नाती-पोते भी इसे ठीक से समझ नहीं पायेंगे, मगर जिनकी उम्र चालीस पार है, उनसे बात करने पर पता चलेगा कि बरहरवा के ज्यादातर युवा एक समय में पिताजी के भक्त हुआ करते थे- फिर चाहे वे बँगाली हों, या बिहारी। बँगाली युवक उन्हें "जगदीश दा" कहते थे और बिहारी युवक "जगदीश भैया"।
एक समय में, जब जाड़े के दस्तक के साथ ही बैडमिण्टन और वॉलीबॉल के कोर्ट गली-मुहल्लों में बनने लगते थे, तब युवक उनके पास आते थे- माप जानने के लिए। यहाँ तक क्रिकेट के मैदान की बारीकियों को जानने के लिए भी लोग आते थे उनके पास।
नाटक
यह कुछ ज्यादा ही पुरानी बात है। सत्तर के दशक में शायद देश के हर कस्बे में नाटक खेले जाते थे- बरहरवा भी इससे अछूता नहीं था। क्या हिन्दी, क्या बँगला- दोनों तरह के नाटकों में पिताजी ने हिस्सा लिया है। हाँ, भोजपुरी वे नहीं बोलते थे, इसलिए भोजपुरी नाटक खेलने वाले उन्हें आमंत्रित नहीं करते थे। वे पहले ही कह दिया करते थे कि उन्हें छोटा रोल चाहिए- बड़ा रोल करने से वे बचते थे।
दो नाटकों की याद मेरे मन में बसी हुई है।
एक बँगला नाटक में वे अपने बाल्यमित्र दिलीप साव के साथ सह-नायक थे। नाटक में दोनों एक ही नायिका से प्रेम कर रहे थे शायद। मैं बच्चा था- ठीक-ठीक समझा नहीं, मगर बाद में पता चला कि दर्शकों में बैठी माँ को कुछ बँगाली महिलायें छेड़ रही थीं कि ये (नाटक की नायिका) अगर घर आ गयी तो क्या कीजियेगा! दिलीप काकू की बात अलग थी- वे क्वांरे थे और आजीवन अविवाहित ही रहे।
"शाहजहाँ" बरहरवा का एक प्रसिद्ध नाटक रहा है- यह एक बड़ा और भव्य नाटक है। 1950 में इसे पहली बार खेला गया था। सम्भवतः स्व. जोगेन्द्र चौरासिया ने मुख्य भूमिका निभायी थी। पच्चीस साल बाद 1975 में इसे फिर खेला गया, तब शाहजहाँ की मुख्य भूमिका जोगेन्द्र चौरासिया के पुत्र जयप्रकाश चौरासिया ने निभायी। सम्भवतः निर्देशन भी उन्हीं का था। इसमें पिताजी ने एक छोटा रोल स्वीकार किया था- किरदार का नाम था- "दिलेर खाँ"। आज भी बरहरवा में बहुतों के दिलो-दिमाग में इस नाटक की याद ताजा होगी। बाकायदे टिकट लगाकर इस नाटक का मंचन किया गया था।
आज जयप्रकाश चौरासिया फेसबुक पर सक्रिय हैं। युवावस्था में बूढ़े शाहजहाँ के किरदार को उन्होंने बखूबी निभाया था। वे चाहें, तो इस नाटक पर कुछ प्रकाश डाल सकते हैं। सांस्कृतिक गतिविधियों में संलग्न इन युवाओं की बाकायदे एक संस्था हुआ करती थी- "अभिनय भारती"।
इसके मुकाबले बँगालीपाड़ा की संस्था थी- "अभियात्री"। बेशक, दोनों में स्वस्थ प्रतियोगिता भी रही होगी- जानकार प्रकाश डाल सकते हैं। मेरे पिताजी दोनों तरफ लोकप्रिय थे- बँगालियों के बीच भी और बिहारियों या हिन्दीभाषियों के बीच भी। बँगलीपाड़ा में "सॉरेश दा"-जैसे युवा ऐसी टीम का नेतृत्व करते थे। दुर्भाग्य से, वे युवावस्था में ही चल बसे। उनके समय में न केवल ऊँचे दर्जे के नाटक (जैसे कि "मानुष नामे मानुष") बरहरवा में खेले जाते थे, बल्कि "कजंगल" नाम से द्विभाषी त्रैमासिक पत्रिका भी बरहरवा से छपती थी।
(प्रसंगवश, पश्चिम में साहेबगंज के "तेलियागढ़ी" से पूरब में गंगा-गुमानी संगम तक का क्षेत्र, जो उत्तर में गंगा और दक्षिण में "राजमहल की पहाड़ियों" से घिरा है- महाभारत में "कजंगल" नाम से जाना जाता था। बरहरवा इसी क्षेत्र में है।)
हैण्डराइटिंग
पिताजी की हैण्डराइटिंग बहुत सुन्दर थी। उनकी हम पाँच सन्तानों में से किसी को यह गुण नहीं मिला! उनकी अँग्रेजी लिखावट वैसी थी, जिसे cursive कहते हैं शायद। बँगला लिखावट भी सुन्दर थी और हिन्दी लिखावट की तो उन्होंने अपनी एक खास शैली ही विकसित कर ली थी!
बैडमिण्टन
लगता है, पिताजी बैडमिण्टन के दीवाने थे। जहाँ तक मुझे लगता है, इस खेल को दो शैलियों में खेला जाता है। पहली, "कलात्मक" शैली, जिसमें हार-जीत ज्यादा मायने नहीं रखता, शिष्टाचार का पालन किया जाता है और बहुत जरुरत पड़ने पर ही "स्मैश" का प्रयोग किया जाता है, अन्यथा "प्लेसिंग" से विरोधी पक्ष को छकाया जाता है। दूसरी शैली को "आक्रामक" कहा जा सकता है। इसमें "स्मैश" का भरपूर इस्तेमाल होता है, उसी अनुपात में शिष्टाचार कम होता है और जीतना ही इसका मकसद होता है। पिताजी कलात्मक बैडमिण्टन खेलते थे- ज्यादा स्मैश वाले खेल को वे "बॉमबार्डिंग" कहते थे। बैडमिण्टन के इन दीवानों ने अपनी संस्था का नाम रख रखा था- BBC, यानि "बरहरवा बुलेट क्लब"! (आज के युवा भी चाहें, तो इस नाम का उपयोग कर सकते हैं!)
मुझे याद है कि एक बार किसी दूसरे शहर के साथ प्रतियोगिता थी, तब बरहरवा की ओर से जिस युवा खिलाड़ी को चुना गया था खेलने के लिए, वे थे सनत कुमार। आज वे ज्यादातर समय "चौलिया" गाँव में ही रहते हैं- खेती-बाड़ी की देख-भाल के लिए। ...और उनके पार्टनर के रुप में पिताजी खेले थे, जबकि उनकी उम्र उस वक्त 45 से 50 के बीच रही होगी। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि बैडमिण्टन के वे कितने अच्छे खिलाड़ी रहे होंगे।
बाद के दिनों में पता चला कि पिताजी युवावस्था से ही बैडमिण्टन खेलते थे और कोलकाता से डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी करके आने के बाद भी इस खेल में रमे रहते थे- बेशक, यह जाड़े का ही खेल है। ..और तब दादाजी बहुत नाराज होते थे। माँ से कहते थे- रात आयेगा तो खाना मत देना उसको!
ब्रिज
पिताजी "ब्रिज" खेलने के भी शौकीन थे। जाड़े की शाम दस-बारह की संख्या में मित्र-मण्डली जुटती थी उनकी। सभी स्वेटर और शॉल में लिपटे होते थे। काफी देर तक वे लोग ब्रिज खेलते थे। हालाँकि इसे पसन्द नहीं किया जाता था- खासकर, माँ को यह बिलकुल पसन्द नहीं था।   
जेण्टलमैन  
एक जमाने में पिताजी की छवि जेण्टलमैन की हुआ करती थी। शाम रेलवे कैण्टीन में बरहरवा के दिग्गज और गणमान्य लोगों का जो जमावड़ा होता था- मुझे याद है- पिताजी उसमें बाकायदे सूट पहन कर जाते थे- बेशक, जाड़े में। हाँ, टाई के स्थान पर वे मफलर का इस्तेमाल करते थे, जिसमें फूल की डिजाइन की कढ़ाई थी, वह सामने से झलकती थी।
एवरग्रीन
पिताजी की एक और छवि थी- एवरग्रीन की, जिस पर उम्र का प्रभाव न हो। यह छवि मेरे ननिहाल- राजमहल- में खासतौर पर प्रसिद्ध थी। बुआजी भी बताती थीं कि तुम्हारे फूफाजी उन्हें एवरग्रीन कहते हैं!
पिताजी मॉर्निंग वाक के शौकीन थे और रोज सुबह टहलते हुए बिन्दुवासिनी पहाड़ तक जाते थे। कभी-कभी वे साइकिल से भी जाते थे। कभी बड़े भाई और कभी मैं भी साथ जाता था। सम्भवतः मॉर्निंग वाक की इस आदत ने उनको लम्बे समय तक एवरग्रीन बनाये रखा। इसके अलावे, खान-पान के मामले में तो वे खैर, अनुशासन का पालन करते ही थे।
बचपन में कुछ समय तक हमलोगों ने उनको 'सर्वांगासन' करते हुए देखा था, बाद में पता नहीं क्यों, उन्होंने बिलकुल छोड़ दिया। काश, इस आसन को करना उन्होंने नहीं छोड़ा होता... तो अभी वे कई साल और हमारे बीच रहते!
उन्हें शुगर, प्रेशर-जैसी बीमारियाँ नहीं थीं, कभी कोई बड़ा ईलाज उन्हें नहीं कराना पड़ा और मुझे ऐसा लगता है कि अभी और कुछ साल हमारे बीच रहना था...
आध्यात्म
जैसा कि पिताजी की बातों से ही पता चला था, शुरु-शुरु में वे नास्तिक ही थे। रोज सुबह बिन्दुवासिनी मन्दिर (पहाड़ी पर अवस्थित) वे जाते जरुर थे, वहाँ के सन्त "पहाड़ी बाबा" के सान्निध्य बैठते जरुर थे, मगर विचारों से वे नास्तिक ही थे। कभी-कभी वे और दिलीप काकू मिलकर पहाड़ी बाबा से तर्क-वितर्क भी करते थे। जरुर पहाड़ी बाबा मन-ही-मन हँसते होंगे.... ।
बाद के दिनों में पता नहीं क्या हुआ, वे आध्यात्मिक हो गये। उन्हें इस बात का अफसोस रहा कि जब तक उन्होंने अपने-आप को पहचानना शुरु किया, तब तक पहाड़ी बाबा बरहरवा छोड़कर (वे कुल 12 साल यहाँ रहे- 1960 से '72 तक। उनपर कुछ जानकारी मेरे एक दूसरे ब्लॉग पर मिल जायेगी) जयपुर जा चुके थे। खैर, बिना गुरु के ही पुस्तकें पढ़कर उन्होंने काफी ज्ञान हासिल किया।
होम्योपैथ
एक होम्योपैथ डॉक्टर के रुप में मेरे दादाजी- डॉ. जोगेन्द्र नाथ दास- जितने प्रसिद्ध थे, पिताजी की प्रसिद्धी उनसे कोई कम नहीं थी, मगर दादाजी ने इस पेशे से पैसे भी कमाये थे, जो पिताजी नहीं कर सके- अपने उदार स्वभाव के कारण। दोनों ने ही बहुत-से लोगों की असाध्य, पुरानी एवं जटिल बीमारियों का इलाज किया। पिताजी "शियाटिका" के इलाज के लिए प्रसिद्ध थे।
दादाजी "जोगेन डॉक्टर" या "चौलिया डॉक्टर" के नाम से जाने जाते थे। उन्होंने बरहरवा में अच्छी-खासी जमीन खरीद कर यहाँ घर बनाया। कुछ जमीन उम्होंने चौलिया और उसके आस-पास के गाँवों में भी खरीदी। वह जमाना और था। मेरे पिताजी और चाचाजी- दोनों ने किसी सरकारी नौकरी में जाकर घर से बाहर रहते हुए जीवन बिताना पसन्द नहीं किया। पिताजी होम्योपैथ के पेशे में ही रहे और चाचाजी अपने द्वारा स्थापित पाठशाला के प्रधानाध्यापक ही बन कर रह गये। दोनों अपनी-अपनी जगह सही थे। हाँ, कुछ जमीन बिकी, जिन्हें दादाजी ने खरीदा था, मगर दोनों ने पैसे को कभी ज्यादा महत्व नहीं दिया- दोनों के लिए परिवार-समाज के साथ रहना और अपने-अपने उसूलों पर जीना ज्यादा महत्वपूर्ण रहा।
"भात-घूम"
बँगला में दोपहर की नीन्द को "भात घूम" कहते हैं, यानि भात खाने के बाद एक नीन्द लेना। बँगालियों को यह बहुत प्रिय होता है- इसके लिए दोपहर में वे अपनी दूकानें बन्द रखते हैं। पिताजी को भी यह बहुत प्रिय था। दोपहर खाना खाने के बाद वे एक-डेढ़ घण्टा सोते थे- इस समय उन्हें जगाने का साहस कोई नहीं करता था।
"खोकन"
जैसे बिहारी समाज में बच्चे को बाबु या नुनु कहते हैं और बहुतों का नाम ही यही पड़ जाता है, वैसे ही बँगला में बच्चे को खोका या खोकन कहते हैं और बहुतों का नाम ही यही पड़ जाता है। तो पिताजी का नाम भी खोकन था। हमने हमेशा देखा, चाचाजी "खोकोन" कहकर ही पिताजी को बुलाते थे।
सपना
यह सही है कि पिताजी ने हमेशा आरामदायक जीवन पसन्द किया, मगर कोलकाता में रहकर पढ़ाई के दौरान एक बार वे वायु सेना में भर्ती की लाईन या शायद रैली में शामिल हुए थे। उम्र थोड़ी ज्यादा होने के कारण वे भर्ती नहीं हो पाये थे। वायु सेना में भर्ती होने के बाद जब मैं पहली छुट्टी में घर आया, तब पिताजी ने यह बात मुझे बतायी थी। पिताजी यह भी चाहते थे कि उनका एक बेटा बैंक में जाये, मगर दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो पाया। अन्ततः मैं ही वायु सेना में बीस साल बिताकर जब लौटा, तो तीन साल बाद बैंक में शामिल हुआ। यानि पिताजी की दोनों इच्छाओं की पूर्ति मेरे माध्यम से ही हुई, और इसे मैं उनका आशीर्वाद और अपना सौभाग्य समझता हूँ।
वंशावली
पिताजी ने अपने पूर्वजों के नाम कायदे से एक कागज पर लिख रखा था। 2007 में मेरी नजर इस पर पड़ी, तो मैंने इसे कम्प्युटर पर उतारा और इसका (A3 आकार में- तब मेरे पास A3 प्रिण्टर था) प्रिण्ट निकाल कर रिशेदारों के बीच बाँट दिया। अब करीब दस साल होने जा रहे हैं- इसे अपडेट करना होगा- कई नाम इसमें जोड़ने होंगे। 
(वंशावली का jpg फार्मेट यहाँ है.)
जन्मतिथि
एक बार मैंने होम्योपैथी का सॉफ्टवेयर कम्प्युटर में लोड किया था। सॉफ्टवेयर ने डॉक्टर की जन्मतिथि और रजिस्ट्रेशन नम्बर माँगा था और पिताजी से पूछकर मैंने यह तिथि डाल भी दी थी, मगर अफसोस कि हमने इस तारीख को कहीं लिख कर नहीं रखा। अब अगर उनका कोई सर्टिफिकेट कहीं मिल जाय, तो ठीक है, वर्ना पता नहीं, हम कब तक उनकी जन्मतिथि नहीं जान पायेंगे।
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विस्तार से कुछ लिखने लायक धैर्य मुझमें कभी नहीं रहा। अभी जो बातें ध्यान में आयीं, उन्हें लिखा, बाकी फिर कभी... 
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पुनश्च: 22 जनवरी 2017

पिताजी से जुड़ी दो तस्वीरें मैं जोड़ रहा हूँ। पहली तब की है, जब पिताजी बरहरवा उच्च विद्यालय में दसवीं कक्षा के छात्र थे। तस्वीर 1950 की है। इसमें पिताजी शिक्षकों वाली पंक्ति में बाँयी ओर बैठे हुए हैं। कुछ अरसा पहले फेसबुक पर मैंने इस तस्वीर को पोस्ट किया था।

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दूसरी तस्वीर को आज ही मैंने एक पुराने निगेटिव से बनाया। तस्वीर में पिताजी बाँयी ओर खड़े हैं (गले में टाई के स्थान पर मफलर है- जैसा कि मैंने आलेख में जिक्र किया है); बीच में खड़े हैं ‘काली काकू’, अर्थात् श्री काली प्रसाद गुप्ता (टोपी पहने हुए)- वे “काली दारोगा” के नाम से जाने जाते हैं, एक्साईज विभाग से सेवानिवृत्त हैं; उनके बाद, यानि दाहिने ओर जो सज्जन खड़े हैं, उनका नाम अभी मैं नहीं बता पा रहा हूँ (किसी से पूछना पड़ेगा) वे सम्भवतः ब्लॉक में अधिकारी थे।
जो बैठे हुए हैं, उनमें पहले हैं- स्वर्गीय महावीर बोहरा, बरहरवा के एक साहित्यकार एवं साहित्यरसिक सज्जन; और दूसरे हैं, श्री हीरालाल साहा, मलेरिया विभाग में अधिकारी थे।
तस्वीर 14 दिसम्बर 1975 की है, जैसा कि “सरिता स्टुडियो” के लिफाफ पर लिखा हुआ है।

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पुनश्च (20 मई 2020)
आज एक और पुरानी तस्वीर जोड़ रहा हूँ। तस्वीर साफ नहीं है, क्योंकि यह तस्वीर की "जेरॉक्स" कॉपी है। तस्वीर पिताजी के पास ही थी। एकबार उन्होंने मुझे दिया कि इससे कुछ और तस्वीरें बनवा लाओ बड़े साईज में, कुछ दोस्तों को देना है। बगल के 'रूपश्री स्टुडियो' की मदद से तस्वीरें बन भी गयीं और बँट भी गयीं। मैंने कोई कॉपी नहीं रखीं। 'ओरोजिनल' तस्वीर भी कहाँ गयी, पता नहीं। बहुत बाद में एक डिब्बे में यह "जेरॉक्स" कॉपी मिली- मैंने यूँ ही जेरॉक्स कर लिया था।
पिताजी क्रमांक- 1 में हैं।

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बुधवार, 30 नवंबर 2016

169. क्रियेटिविटी- 2


       बड़े दिनों बाद शौक हुआ कि मकान का नक्शा बनाया जाय। पहले कभी बनाता था। खोज-खाज कर एक प्रोग्राम डाउनलोड भी किया, मगर रास नहीं आया।
       अन्त में कम्यूटर को फॉर्मेट कर उसके एक हिस्से में 'विण्डो एक्स.पी.' डलवाया और अपने पुराने पसन्दीदा प्रोग्राम को ही फिर से चलाया।

       एक तीनमंजिले भवन का डिजाईन बनाया। उसी के समने वाले हिस्से की तस्वीर- 

168. क्रियेटिविटी- 1


पिछले दिनों जब अभिमन्यु घर आया हुआ था, तो हमने उसे यूँ ही दो पोस्टर डिजाईन करने को कहा था। उसने फटाक् से बना दिये। मेरे पास फोटो-पेपर थे ही, हमने उनका प्रिण्ट निकाल लिया। सोचा, लैमिनेट करवा कर एक खिड़की के दोनों तरफ इन्हें टाँग दिया जायेगा। मगर आलसवश, ये प्रिण्ट कई दिन यूँ ही पड़े रह गये। फिर लैमिनेशन के लिए दिया, तो अब लाना भूल जाते हैं। जल्दी ही याद करके इन्हें लायेंगे और दीवार पर सजायेंगे।

इस बीच आगर आपको भी ये डिजाईन पसन्द आ जाय, तो आप भी डाउनलोड कर सकते हैं।



रविवार, 27 नवंबर 2016

167. फिदेल कास्त्रो


       चौथी-पाँचवी कक्षा में हमें तीन ऐसी शख्सीयतों के बारे में पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, जिनके लिए ‘थे’ के स्थान पर ‘हैं’ शब्द का प्रयोग किया गया था। हम सहपाठियों के बीच यह कौतूहल और चर्चा का विषय बन गया था- अच्छा, तो ये अभी जीवित हैं? क्या हमलोग आज भी इनसे मिल सकते हैं, या इन्हें पत्र लिख सकते हैं?
       खैर, मिलना या पत्र लिखना तो नहीं हुआ, मगर इतना है कि हमने यह जाना कि कुछ लोग अपने जीते-जी ही किंवदन्ती बन जाते हैं, एक ऐसे मुकाम पर पहुँच जाते हैं कि पाठ्य-पुस्तकों में उन्हें शामिल कर लिया जाता है। 
       वे तीन शख्सीयत थे- 1. आचार्य बिनोवा भावे, 2. ‘सीमान्त गाँधी’ खान अब्दुल गफ्फार खाँ और 3. फिदेल कास्त्रो।
       बिनोवा भावे मेरे किशोर मन को ज्यादा प्रभावित नहीं कर सके, कारण शायद यह था कि उनके जीवन में संघर्ष और रोमांच नहीं था। हालाँकि डाकूओं के आत्मसमर्पण वाली घटना में थोड़ा-सा रोमांच था, मगर संघर्ष तो उनके जीवन में कहीं नजर नहीं आया हमें।
सीमान्त गाँधी ने प्रभावित किया। हमारे मुहल्ले के बुजुर्ग- अरूण के दादाजी- ने बताया कि वे बरहरवा भी आये थे। रेलवे के तालाब के किनारे एक नाँद को उल्टा कर दिया गया था और उसी पर खड़े होकर उन्होंने एक छोटे-से जन-समूह को सम्बोधित किया था।
       ...और फिदेल कास्त्रो? वे तो मेरे किशोर मन के लिए नायक-सरीखे बन गये थे!
      
वही फिदेल कास्त्रो कल दुनिया छोड़ गये। बिनोवा भावे और गफ्फार खान तो बहुत पहले ही दुनिया छोड़ चुके हैं- पिछली सदी में ही। मगर बीसवीं सदी के एक नायक कल अलविदा हुए। कल सोशल मीडिया पर किसी की टिप्पणी नजर आयी-

“बीसवीं सदी का आधिकारिक रुप से अन्त हुआ।“
***

रविवार, 23 अक्टूबर 2016

166. "राजमहल की पहाड़ियाँ": सौन्दर्य


हमारा सन्थाल-परगना "दामिन-ए-कोह" है: अर्थात् "पर्वतों का आँचल"। इस पर्वत-शृँखला का नाम है- "राजमहल की पहाड़ियाँ"। ये पहाड़ियाँ प्रागैतिहासिक काल की हैं- यहाँ डायनासोरों के जीवाश्म पाये जाते हैं! राजमहल इस इलाके का एक ऐतिहासिक शहर है, जो मुगलकाल में दो बार बँगाल प्रान्त (अँग-बँग-उत्कल) की राजधानी रह चुका है।
सन्थाल-परगना के विभिन्न शहरों/कस्बों में यातायात के दौरान हमने इस पहाड़ियों की जो तस्वीरें खींची है, उन्हें ही यहाँ (धारावाहिक रुप) प्रस्तुत करने का इरादा है। आशा है, इन पहाड़ियों का सौन्दर्य आपको पसन्द आयेगा। मगर इन तस्वीरों को देखने के लिए आपको मेरे एक अन्य ब्लॉग "मेरी छायाकारी" पर आने का कष्ट उठाना होगा- http://jaydeepphotography.blogspot.in/
वैसे, इन पाहाड़ियों की एक दुखती रग भी है, जिसे हमने fb page "Save the Hills of Rajmahal" पर प्रस्तुत किया है-।

अन्त में, मेरे बेटे अभिमन्यु ने अपने कॉलेज के लिए एक रपट तैयार की थी "Tribal Wall Art of Rajmahala Hills", इसमें उसने Wikipedia से जानकारियाँ लेकर दो परिशिष्ट जोड़ी थी- इन पहाड़ियों के इतिहास एवं भूगोल पर। आप चाहें, तो उस रिपोर्ट को डाउलोड कर सकते हैं- http://jagprabha.in/product/tribal-wall-art-of-rajmahal-hills/   



शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2016

165. "बात-बात में बात"


       क्या आपने कभी रामप्रिय मिश्र "लालधुआँ" का नाम सुना है?
       यह सवाल हम इसलिए पूछ रहे हैं कि हमने अपने बचपन में बाल-गीतों की एक पुस्तिका पढ़ी थी, जिसके रचयिता रामप्रिय मिश्र "लालधुआँ" जी थे। पुस्तिका का नाम था- "बात-बात में बात"। पुस्तिका आयताकार थी- लैण्डस्केप। आवरण पर बड़े-बड़े कुछ फूल अंकित थे, जिनके बीच बच्चों के चेहरे उकेरे हुए थे। कोई दर्जन भर कवितायें थीं इस संग्रह में- सभी चार-चार पंक्तियों की। हर कविता के साथ रेखाचित्र भी बने हुए थे।
       आज एक जमाने बाद जब याद करने की कोशिश करते हैं, तो पहली और आखिरी कविताओं के साथ बीच की सिर्फ दो ही कवितायें याद आ रही हैं।
       गूगल पर जानना चाहा, तो बिहार की एक साहित्यिक संस्था की वेबसाइट पर कुछ कवियों के साथ-साथ रामप्रिय मिश्र "लालधुआँ" का जिक्र मिला। उन्हें "महाकवि" कहकर सम्बोधित किया गया था। जाहिर है, वे प्रसिद्ध कवि रहे होंगे। पर अफसोस, कि नेट पर उनपर और कोई जानकारी हम नहीं ढूँढ़ पाये। उन कविताओं को तो शायद ही कभी खोज निकाल सकें।
       भूमिका में कवि ने लिखा था कि हर कविता किसी-न-किसी मुहावरे पर आधारित है, मगर बच्चे बिना उन मुहावरों को समझे इन कविताओं को गुनगुनायेंगे। जब वे कुछ बड़े होंगे, तब वे इन कविताओं में छुपे मुहावरों को समझेंगे।
       खैर, तो पहली कविता इस प्रकार थी-
       "चाँद खटोले चरखा लेकर
       बुढ़िया काते सूत,
       उस बुढ़िये को देख चहकता
       चिड़िये तक का पूत।"
       ***
       आखिरी कविता थी-
       "धरती गोल घूमकर देखा
       मगर न पाया भेद,
       चौड़ी दरी के नीचे
       मुन्ना पाया गेन्द।"
       ***
       जैसा कि मैंने कहा, बीच की भी दो कवितायें मुझे याद आ रही हैं-
       "खा लो भैया चना-चबेना
       पी लो गंगा नीर,
       कभी किसी दिन याद करोगे
       थी गरीबी में पीर।"
       ***
       "गुरूजी गुड़ तो चेला चीनी
       ये चीनी के पेड़,
       छोड़ पढ़ाई तब से अब तक
       चरा रहे हैं भेड़।
       ***
       एक कविता ऐसी है, जो आधी याद आ रही है-
       "एक ताल में नयी मछलियाँ
       बगुला भगत पुराने,
       ...............................  
       ....................................... ।
       ***
       और एक ऐसी भी है, जिसकी एक ही पंक्ति याद है-
       "कौआ राम करम के खोटे
       .......................,
       ...............................
       ........................................ ।"
       ***
       अन्त में, स्वाभाविक रुप से यही कहना चाहेंगे हम कि अगर किसी महानुभाव के पास "लालधुआँ" जी के बारे में कुछ जानकारी हो, तो वे कृपया उसे सबके समने लायें और अगर "बात बात में बात" की सारी कवितायें कोई सामने ला सके, तो यह सोने पे सुहागा वाली बात होगी...
       इति।

       ***** 

सोमवार, 10 अक्टूबर 2016

164. 'Sand Art'- बरहरवा में (दुर्गापूजा'2016)

बरहरवा के बँगालीपाड़ा (कालीतला) में जो दुर्गापूजा होती है, वहाँ की दो खासियत है- एक तो वहाँ आडम्बर, दिखावा या तामझाम नहीं के बराबर होता है; दूसरे "कला" की किसी-न-किसी विधा को वहाँ हर साल "थीम" बनाया जाता है.  
तो इस बार रेत या बालू से बनी कलाकृतियाँ वहाँ प्रदर्शित की गयी हैं. आम तौर पर सैण्ड-आर्ट का प्रदर्शन समुद्र के किनारे ही देखने को मिलता है. बरहरवा के एक पूजा-पण्डाल में इनका प्रदर्शन एक नयी बात है. 
देखिये- 









शनिवार, 21 मई 2016

163. "हीरक जयन्ती"

       कल 20 मई को माँ-पिताजी के विवाह की "हीरक-जयन्ती" (Diamond Jubilee) थी, यानि विवाह के साठ साल पूरे हुए। इस अवसर पर सुबह एक हवन और सन्ध्या में स्वल्पाहार का छोटा-सा कार्यक्रम घर में आयोजित हुआ।
       10 साल पहले "स्वर्णिम जयन्ती" (Golden Jubilee) भी मनायी गयी थी। उसके कुछ छायाचित्र यहाँ मौजूद हैं।
       इस बार के आयोजन का पैमान थोड़ा-सा (स्वर्णिम के मुकाबले) बड़ा था और इसलिए इसके लिए बाकायदे आमंत्रण पत्र भी छपवाया गया था। उस पत्र का भी चित्र यहाँ डाल रहा हूँ, क्योंकि इसकी डिजायनिंग अभिमन्यु ने की है- शब्द मेरे ही थे।


















बुधवार, 18 मई 2016

162. ...और 'जुलियट' नहीं लौटी


      मेरे इस ब्लॉग में क्रमांक 141 में एक आलेख है-"रोमियो"। इसमें बिल्ली के उस बच्चे का जिक्र है, जो मई'15 में हमारे घर में आकर रहने लगा था और अभिमन्यु से कुछ ज्यादा ही हिल-मिल गया था। यह हिलना-मिलना कुछ ज्यादा ही हो गया था। इतना कि अगस्त में जब अभिमन्यु कोलकाता चला गया, तब वह शायद अवसाद से ग्रस्त हो गया और कुछ ही दिनों के अन्दर ही चल बसा था। तब अंशु बहुत रोई थी।
अभिमन्यु अक्सर फोन पर रोमियो का हाल-चाल पूछता था और अंशु उसे झूठा हाल-चाल बताती थी। कुछ दिनों बाद जब अभिमन्यु घर आया, तो मैं उसे लेने स्टेशन पर गया था। ट्रेन से उतरकर उसने सबसे पहले यही कहा था कि बाजार होकर घर चलते हैं- रोमियो के लिए चिकन लेते हुए। हमने कहा था- पहले घर चलो। घर आने के बाद उसे बताया गया कि रोमियो नहीं रहा।
दिसम्बर में अभिमन्यु फिर घर आया था। इस बार वह बिल्ली के बच्चों का जोड़ा लेकर आया। बहुत ही नन्हे बच्चे थे। अंशु ने एक-डेढ़ महीने तक उन्हें ड्रॉपर से दूध पिलाया। चूँकि ये दो थे, इसलिए अभिमन्यु से हिलने-मिलने के बजाय आपस में खेलने में ज्यादा मस्त रहते थे।
अब तो ये करीब छह महीने के हो गये थे। हमें लगा, बड़े हो रहे हैं, तो इन्हें इनकी स्वाभाविक स्वछन्दता मिलनी चाहिए और अब ये रात में बाहर जाने-आने लगे थे। आम तौर पर 'रोमियो' ही बाहर जाता था। 'जुलियट' घर में रहना ही पसन्द करती थी। हाँ, इस बार भी बिल्ले का नाम 'रोमियो' ही रहा। बिल्ली को 'जुलियट' नाम दिया गया। हालाँकि अंशु उन्हें चुन्नू-मुन्नी कहती थी।
कभी-कभार जुलियट भी रात में बाहर जाती थी, मगर वह प्रायः भोर में बिस्तर के आस-पास चक्कर लगाने लगती थी। फिर अंशु उसे मच्छरदानी के अन्दर लाकर अपने बगल में सुलाती थी।
वही जुलियट आज सुबह नहीं लौटी।
जब रोमियो को मछली दी गयी, तो उसने खाने से इन्कार कर दिया। जबकि मछली के भक्त थे ये दोनों। कई कोशिशों के बाद भी जब उसने कुछ भी नहीं खाया, तब मेरे कान खड़े हुए कि जरुर जुलियट के साथ कुछ बुरा हुआ है और या तो रोमियो ने यह घटना देखी है, या फिर उसे आभास हो गया है!
जुलियट के इन्तजार आज का सारा दिन बीत गया, मगर वह नहीं लौटी। पता नहीं, क्या हुआ होगा उसके साथ। रोमियो ने दिन भर कुछ नहीं खाया। अभी रात में उसने थोड़ा दूध पीया, मगर बगल में पड़ी मछली को उसने देखा तक नहीं। अंशु को रह-रह कर रोना आ रहा है। अभिमन्यु को इस पोस्ट के माध्यम से पता चल ही जायेगा। वैसे, अब वह इनका ज्यादा हाल-चाल नहीं पूछता था, मगर अफसोस तो उसे होगा ही। कल ही वह घर आ रहा है... और आज यह घटना घट गयी...
काश कि कल भोर में जुलियट की म्याऊँ से हमारी आँखें खुले...
*** 
पुनश्च (19.5.2016):
       कल रात एक प्यारी-सी बच्ची "हनी" ने बड़े भोलेपन से जुलियट के बारे में कहा था- "कल आ जायेगी।" पता नहीं क्यों, मुझे भी उसकी बात पर भरोसा हो गया था। और सचमुच आज सुबह पाँच बजे जब अंशु सीढ़ी घर में गयी, तो वहाँ जुलियट मौजूद थी! वह कहाँ से आयी, कब आयी, कैसे आयी, पता नहीं, मगर उसे गोद में लेकर अंशु ने मुझे यह खबर दी। तब मैं बिस्तर पर ही था।
       ऊपर वाले की मेहरबानी, शुभचिन्तकों की दुआ और "हनी" की बात से आखिरकार वही हुआ-

       ...जुलियट के लौटने की खबर के साथ मेरी आँखें खुली।