हो
सकता है, मेरा फैसला गलत हो। हो सकता है, आगे चलकर अभिमन्यु मुझे दोषी ठहराये। मगर
मैंने उसे पढ़ने के लिए "बाहर" नहीं भेजा, जो कि यहाँ बरहरवा में एक
ट्रेण्ड बन चुका है।
ज्यादा-से-ज्यादा मैं उसे
जिला शहर स्थित साहेबगंज कॉलेज (साहेबगंज 55 किलोमीटर दूर है बरहरवा से और ट्रेनें
बहुत हैं- भले वे लेट-लतीफ भी बहुत होती हैं) में पढ़ाना चाहता था। मगर दिक्कत यह
हुई कि प्रथम श्रेणी वालों का सीधा नामांकन हो रहा था और इसके लिए एस.एल.सी. की
जरुरत थी। अभिमन्यु की एस.एल.सी. अररिया से 'कूरियर' द्वारा भेज दी गयी थी, मगर वह
हम तक पहुँची आठवें दिन! तब तक नामांकन की तिथि निकल गयी।
अपने बरहरवा के बी.एस.के.
कॉलेज में अन्तिम तिथि 26 जून थी और यहाँ भी साहेबगंज कॉलेज वाला नियम लागू था।
संयोग से 25 को एस.एल.सी. पहुँच गयी। 26 जून को एडमिशन हो गया।
इस कॉलेज की स्थापना 1977-78
में हुई थी। तब शिवबालक राय प्रिन्सिपल थे। उन्होंने मेरी बड़ी दीदी का नाम सबसे
पहले कॉलेज में लिखा था- इस प्रकार मेरी बड़ी दीदी (जो अभी अररिया में है, जहाँ मैं
रहा 5 साल) इस कॉलेज की "पहली" विद्यार्थी है।
पहले बैच के ही कुछ छात्र बाद
के दिनों में कॉलेज में स्टाफ बने। ऐसे ही एक स्टाफ नाम लिखाने के समय आवेदन तथा संलग्नक
जाँच रहे थे। उन्होंने शायद मुझे ठीक से पहचाना नहीं। अभिमन्यु से पूछा- "कहाँ
घर हुआ?" पीछे से मैंने कहा- "मेरा बेटा है, डॉक्टर जे.सी. दास का पोता।"
"अरे बाप रे!" उनके
मुँह से निकला और उन्होंने झट आवेदन पर हस्ताक्षर करके प्राचार्य की ओर जाने का
इशारा कर दिया।
बाद के दिनों में इस कॉलेज की
प्रतिष्ठा कम हो गयी थी- यह एक सच्चाई है। अब जो नये प्रिन्सिपल आये हैं, उन्होंने
इसकी प्रतिष्ठा फिर से कायम करने के लिए कुछ कदम उठाये तो हैं। अब देखा जाय। वे तो
"ड्रेस कोड" की भी बात कर रहे थे और नामांकन के समय अभिभावक का साथ होना
उन्होंने अनिवार्य कर रखा था।
चित्र में अभिमन्यु की
पृष्भूमि में कॉलेज का एक नया भवन भी दीख रहा है। ये भवन विन्दुवासिनी पहाड़ के
पीछे की तलहटी में बने हैं और नये भवन का उद्घाटन कुछ ही दिनों पहले कुलपति के
हाथों हुआ। (तभी तो 26 तक नामांकन चला, वरना यहाँ भी 20 जून को ही नामांकन बन्द हो
जाता!) पहले यह कॉलेज विन्दुवासिनी पहाड़ पर स्थित "वानप्रस्थ आश्रम" के
भवन में चलता था- मैं भी उसी में पढ़ा हूँ।
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विषयान्तर।
अखबारों में कोचिंग इंस्टीच्यूट
वालों के दो-दो पेज विज्ञापन छपते हैं। इनमें सैकड़ों तथाकथित मेधावी छात्रों की
तस्वीरें छपी होती हैं। यह "कोचिंग" परम्परा 20-25 वर्षों से तो चल ही
रही है। क्या कोई बता सकता है कि जब ये इंस्टीच्यूट इतनी बड़ी मात्रा में मेधावी
छात्रों को तैयार करते हैं, तो पिछले कुछ वर्षों में विज्ञान, तकनीक, अभियांत्रिकी
के क्षेत्र में भारत का विश्व में क्या योगदान रहा है?
अगर कोई योगदान नहीं है (शायद
है भी नहीं), तो जाहिर है कि यहाँ 'थ्री इडियट्स' के "चतुर" पैदा किये
जाते हैं- जिनके जीवन का सिर्फ एक ही उद्देश्य होता है- रट्टा मारकर परीक्षायें
पास करके मलाईदार नौकरी हासिल करना! विज्ञान या तकनीक या इंजीनियरिंग के प्रति
इनके मन में कोई "पैशन" नहीं होता।
मैं आशा कर सकता हूँ कि मेरा
बेटा अभिमन्यु कभी भी इन कोचिंग इंस्टीच्यूटों में जाने की इच्छा व्यक्त नहीं
करेगा- वैसे भी, घिसी-पिटी लीक पर चलना वह पसन्द नहीं करता।
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