कल दिन में कुछ ज्यादा ही गर्मी थी। रात ढलने तक गर्मी रही।
उसके बाद तेज हवाओं का चलना शुरु हुआ, जो भोर होने तक जारी रहा। नतीजा, अगला दिन-
यानि आज का दिन सुहाना हो गया। हम भी निकल पड़े।
पहले बिन्दुवासिनी मन्दिर में जाकर हमने पूजा की। देखा, 108
सीढ़ियों पर टाईल्स बैठाते हुए उन्हें नया रुप दिया जा रहा है। कुछ दिनों बाद ही
होने वाले रामनवमी महोत्सव में आने वाले श्रद्धालु नयी सीढ़ियाँ चढ़कर मन्दिर तक
आयेंगे। फिर वहीं पहाड़ी में एक तरफ नाश्ता किया। श्रीमतीजी घर से परांठे ले आयी
थीं और वहाँ माणिक'दा की दूकान से घुघनी ले लिया गया।
इसके बाद हमलोग बिन्दुवासिनी पहाड़ के पीछे बोरना या घोड़ाघाटी
पहाड़ की तरफ चले गये, जहाँ पत्थरों के खदान और क्रशर हैं। ये पहाड़ियाँ कभी हरे-भरे
जंगलों से ढकी होती थी। खदान और क्रशर तब भी हुआ करते थे, पर एक तो उनकी संख्या कम
थी और दूसरे, काम सिर्फ दिन में होता था। अब बड़े-बड़े डीजी सेट लगाकर रात-दिन काम
होता है, खदानों-क्रशरों की संख्या अन्धाधुन्ध तरीके से बढ़ गयी हैं, लगभग सारे प्लाण्ट
फुल्ली ऑटोमेटिक हो गये हैं, जेसीबी, पोकलेन मशीनों की मदद ली जाती है और जहाँ
चार-छह पहियों वाले ट्रकों में पत्थरों की ढुलाई होती थी, वहाँ डम्पर और दस-बारह
पहियों वाले ट्रक अब चलते हैं। कहने की जरुरत नहीं कि लगभग 80 से 90 प्रतिशत खनन
अवैध तरीकों से होता है। हम-आप कुछ नहीं कर सकते क्योंकि झारखण्ड में मंतरी से
संतरी तक सब अपना-अपना हिस्सा लूटने में लगे हुए हैं और लूट रहे हैं। यहाँ तक कि
रेलवे और बैंक-जैसी संस्थायें भी इस बहती गंगा में हाथ धो रही हैं। कोढ़ में खाज के
समान लकड़ी-माफिया अलग से इन पहाड़ियों में सक्रिय है। अगर आपने पिछले पन्द्रह
वर्षों में हमारे झारखण्ड से जुड़ी कोई "सकारात्मक" या "अच्छी"
खबर सुनी हो, तो जरुर बताईयेगा- मेरे तो कान तरस गये हैं ऐसी कोई खबर सुनने के
लिए!
खैर, इस तरह की बातें मैं अपने इस ब्लॉग में नहीं लिखता (इसके
लिए अलग ब्लॉग है और वह भी फिलहाल बन्द है), फिर भी लिख दिया, क्योंकि है तो यें
हमारे "आस-पास" की बातें ही।
पहाड़ियों के तरफ जाते समय हमने सन्थालों की कुछ झोपड़ियों की
तस्वीरें खींची। इन झोपड़ियों की प्रशंसा में हम क्या कहें, आप चित्र देखकर खुद ही
समझ जाईये।
वापस लौटते समय हमने नहर के पास सड़क के किनारे से "सेनवार"
की झाड़ियों की कुछ फुनगियाँ तोड़ लीं। इन पत्तियों को गेहूँ और चावल के साथ रखने पर
कीड़े- खासकर, "सूण्डा" कीड़ा, जो किसी भी स्थिति में पैदा हो ही जाता है-
नहीं लगते। पिछले साल हमने यही किया था और अब तक हमारे अनाज कीड़ों से सुरक्षित हैं। "सेनवार" का यह गुण
राजन जी ने बताया था, वे बहुत सारे विषयों के जानकार हैं। उनसे पहले जब मैंने
चौलिया के किसानों से पूछा था, तो तड़ाक् से उत्तर मिला था- "टैबलेट" डालकर रखो! मैंने जानना चाहा कि कौन-सा टैबलेट, तो पता चला, वे "सल्फाल" की गोलियों की बात कर रहे हैं! मैंने हैरान होकर कहा- वह तो जहर है! जवाब मिला- और कोई इलाज नहीं है।
बताईये, जो चावल-गेहूँ उपजाते हैं, उनकी मानसिकता ऐसी है। इसी प्रकार, जैविक खाद
की बातों पर वे हँसते हैं, कहते हैं- बिना रासायनिक खाद डाले कुछ उपजेगा ही नहीं!
जी तो करता है, मैं खुद ही दो-एक साल खेती करके उनकी आँखें खोल दूँ, पर छोड़ देता
हूँ।
हाँ, नहर की बात पर एक संशोधन जरुरी है। बिहार-झारखण्ड में नहर
की बात सुनकर किसी को भी चौंक जाना चाहिए! नहरें तो हमारे प्रथम प्रधानमंत्री
महोदय ने पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में बनवायी थीं- पिछड़े इलाकों को
तो राम-भरोसे छोड़ दिया गया था। दरअसल, 1980 के आस-पास राजमहल की गंगा को गुमानी
नदी से जोड़ने की एक योजना बनी थी कभी, जो बाद में ठण्डे बस्ते में चली गयी।
बिन्दुवासिनी पहाड़ी के पीछे दो-तीन किलोमीटर लम्बी नहर खुद गयी थी इसी योजना के
तहत। अब उसमें बरसात का पानी जमा रहता है और लोगों के लिए जलाशय का काम देता है।
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