शनिवार, 25 जनवरी 2020

225. 25 जनवरी



       ऊपर जो तस्वीर आप देख रहे हैं, वह 25 जनवरी के दिन की तस्वीर है। साल- 1996; स्थान- मेरठ। जहाँ तक फोटोग्राफर की बात है, किसी पत्र-पत्रिका के प्रोफेशनल फोटोग्राफर थे वे। हिन्दी पंचांग के हिसाब से, उस दिन बसन्त-पञ्चमी थी।
       तस्वीर में जो मुस्कान है, उसका यह अर्थ निकाला जा सकता है कि कोई उत्सर्ग/बलिदान करने जा रहा है। बेशक, प्राणों को नहीं, बल्कि अपने bachelorhood (उपयुक्त हिन्दी पर्यायवाची नहीं सूझ रहा) को, विवाह की वेदी पर।
       आज 24 साल हो गये। विवाह हमारा नाम-मात्र के ताम-झाम के साथ हुआ था। मुहुर्त निकलवाने की भी जरुरत नहीं पड़ी थी। सीधे बसन्त-पञ्चमी का दिन तय कर दिया गया था- बेशक, मेरी ओर से ही। विवाह-समारोह दिन की रोशनी में आयोजित हुआ था, सम्भवतः आर्य-समाजी विधि द्वारा। अल्बम का एक पन्ना उस समारोह का प्रस्तुत है।

       अब जो तस्वीर प्रस्तुत है अल्बम से, वह मेरी और अंशु की है। दोनों तस्वीरें 1987 की हैं। हालाँकि तब हम एक दूसरे को जानते नहीं थे। उसने यह तस्वीर शायद करनाल में खिंचवायी थी- इण्टर की परीक्षा के लिए फॉर्म भरते वक्त और मैंने यह तस्वीर आवडी के एक स्टुडियो में खिंचवायी थी। दो महीनों की छुट्टी बिताकर लौटा था और ड्युटी पर जाने से पहले हेयर-कट लेने गया था। सोचा, बढ़े बालों के साथ एक तस्वीर खिंचवा ली जाय! 

       उसी साल (1987) के अगस्त महीने में अंशु पर तेजाब से हमला हुआ और इसके कुछ ही महीनों बाद मैंने 'मनोहर कहानियाँ' में इस लोमहर्षक काण्ड के बारे में पढ़ा। नौ साल बाद 1996 में हमदोनों जीवनसाथी बने। 2012 (14 फरवरी) में इसी ब्लॉग पर मैंने 'सोलहवाँ बसन्त' नाम से एक आलेख भी लिखा था- अपने इस विवाह के बारे में।
       कुल-मिलाकर, आज हमारे विवाह की 24वीं वर्षगाँठ है। इस अवसर पर आज की एक तस्वीर- 

शुक्रवार, 24 जनवरी 2020

224. शहीद राजमिस्त्री

शायद 2003 की बात होगी। हम छुट्टी लेकर घर आये थे कि अपने घर के पीछे की तरफ परती जगह पर अपने लिए अलग से एक बसेरा बनवा लें, क्योंकि दो साल बाद ही हमें सेवा से अवकाश लेना था।
जो राजमिस्त्री आया, वह काम के लिए राजी तो हुआ, लेकिन उसका कहना था कि वह अगले महीने से काम शुरु करेगा। हमने जानना चाहा क्यों, तो पता चला कि यह चैत का महीना है और इस महीने नये घर के निर्माण का काम शुरु नहीं होता। काम शुरु होगा बैशाख में।
हमने कहा- हम तो छुट्टी लेकर आये हैं, तो हमें तो काम शुरु करवाना ही होगा। वह नहीं माना। तब माँ ने कहा कि पड़ोस के मुहल्ले में "शहीद" नाम का एक राजमिस्त्री है, उसको कहो। हम गये उस मुहल्ले में। पता चला, वह अब दूर के एक मुहल्ले में रहता है। वहाँ जाकर बताये। वह आया। जगह देखी उसने। राजी हुआ। हमने पूछा- कब से काम शुरु होगा। उसका कहना था- कल से। ...और अगले दिन से काम शुरु हो गया। 
हमारा यह छोटा-सा बसेरा उसी के हाथों से बना हुआ है।
धीरे-धीरे हमें पता चला कि वह बहुत-बहुत-बहुत काबिल राजमिस्त्री है। शरीर में ताकत बहुत, मजदूरों पर नियंत्रण बहुत बढ़िया, बहुत तेज दिमाग, कभी मालिक का नुकसान न होने दे, और भी बहुत सारे गुण थे उसमें। जल्दी ही हमारे घर से उसका पारिवारिक रिश्ता बन गया। स्वभाव हँसमुख होने के कारण जैसे ही वह घर में प्रवेश करता, एक रौनक-सी आ जाती थी। घर में सबसे- माँ-पिताजी, चाची से भी वह बातचीत करता था। भैया का तो वह करीबी दोस्त था।
बाद में पता चला कि वह टाईल्स का काम करता है, प्लम्बिंग का भी काम करता है और भी बहुत कुछ। ऐसा हो गया था कि किसी भी तरह का काम हो घर में- उसको एकबार फोन किया जाता था और ज्यादातर मामलों में वह काम कर देता था या करवा देता था। हमारी बातचीत बँगला में होती थी- हम उसे "आप" सम्बोधित करते थे और उसे "शहीद-दा" कहते थे। बदले में वह भी हमें "मोनू-दा" ही कहता था और श्रीमतीजी को "भौजाई" (भाभी)।
2017 में जब हमारा 'रतनपुर प्रोजेक्ट' (व्यवसायिक भवन) शुरु हुआ, तो उसी ने शुरु किया। बाद में बेशक, उसके भाँजे अनीस और एक दूसरे सहयोगी रहीम ने काम सम्भाला, पर शुरुआत उसी ने की थी। ईद-बकरीद में उसके घर से हमारे यहाँ कुछ न कुछ आता था। हमारी भी कोशिश होती थी कि होली-दिवाली में उसका मुँह मीठा करवाया जा सके।

इस बीच उसे कई बीमारियों ने घेर लिया। काफी ईलाज चला। करीब महीने भर पहले हमने उसे पूरी तरह फिट देखा। हमें अच्छा लगा। कुछ कारणों से हमारा रतनपुर प्रोजेक्ट रुका हुआ है। हमने सोचा, जब दुबारा काम शुरु होगा, तो उसी से कुछ खास काम करवाया जायेगा। कुछ नया और खास काम करने में उसे महारत हासिल थी। हाँ, हमारे यहाँ एक बाथ-टब बनाने से वह पीछे हट गया, लेकिन चाहता, तो तस्वीर देखकर बना सकता था। खैर, रतनपुर प्रोजेक्ट में उससे हमें फौव्वारा बनवाना था।

मगर सब खत्म हो गया। कल- 23 जनवरी की सुबह यह अशुभ खबर आयी कि शहीद मिस्त्री नहीं रहा... । यकीन करना मुश्किल था, मगर यह हुआ। हमदोनों उसके घर गये अन्तिम दर्शन के लिए।
उसके परिजनों और उसके शागिर्दों को ईश्वर यह आघात सहने लायक ताकत दे और उसकी आत्मा को शान्ति मिले।    
*** 
पुनश्च: 
अल्बम से शहीद की एक तस्वीर मिली- 
शहीद बीच में है (उसके दाहिने 4 और बाँये 2 मजदूर हैं) तस्वीर में- घर के लिए पहले खम्भे की नींव खोदी जा रही है.

इसमें शहीद की जगह पर हम खड़े हैं, मतलब तस्वीर शहीद ने खींची होगी.


निर्माणाधीन मकान. स्कूल ड्रेस में अभिमन्यु है और छत पर शहीद किसी के साथ बैठा है.


यह दीवार पर कंक्रीट की आलमारी शहीद ने एक तस्वीर देखकर बनायी थी.

गुरुवार, 2 जनवरी 2020

223. सुन्दरबन में नया साल

2020 का नया साल हमने सुन्दरबन के जंगलों में बिताया। स्टीमर पर।
अल्बम फेसबुक पर है. देखने के लिए कृपया तस्वीर पर क्लिक करें
       सुन्दरबन के परिचय में कुछ कहने की जरुरत तो खैर नहीं है, फिर भी बता दिया जाय कि यह करीब 10,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला विश्व का सबसे बड़ा डेल्टा है। गंगा और ब्रह्मपुत्र-जैसी विशाल नदियों द्वारा ढोकर लायी गयी गाद से यह डेल्टा बना है। इन नदियों की यहाँ दर्जनों धारायें बहती हैं और दर्जनों टापु इनसे बनते हैं। यह क्षेत्र अपने मैंग्रूव जंगलों के लिए प्रसिद्ध है। खारे पाने में उगने वाली यह बहुत ही खास वनस्पति है। ...और ये जंगल प्रसिद्ध हैं बाघों के लिए, जिन्हें 'रॉयल बेंगॉल टाईगर' कहा जाता है। यह डेल्टा युनेस्को के 'विश्व धरोहर' में शामिल है। इसका 60 प्रतिशत हिस्सा बाँग्लादेश में पड़ता है और 40 प्रतिशत भारत में।
       ***
       कुछ दिनों पहले हमें जैसे ही पता चला कि हमारे इलाके के ही एक टूर-ऑपरेटर घुमक्कड़ों को सुन्दरबन ले जा रहे हैं, जहाँ 30 और 31 दिसम्बर की रात स्टीमर पर ही बितानी है, हमने बिना कुछ सोच-विचार किये पहले हाँ कर दिया। वैसे, हमने कभी सोचा नहीं था कि हम कभी सुन्दरबन घूमने जायेंगे। हाँ करने के बाद हमने इण्टरनेट पर सुन्दरबन-ट्रिप के बारे में जानकारी हासिल की।
       योजना के अनुसार 29 दिसम्बर की दोपहर हम बरहरवा से पाकुड़ पहुँचे। वहाँ टूर-ऑपरेटर शेषनाथ जी के घर पर ही हम रुके। रात पौने ग्यारह बजे हमारी ट्रेन थी सियालदह (या सियालदा) के लिए- गौड़ एक्सप्रेस। ('गौड़' मालदह या मालदा के पास एक ऐतिहासिक स्थान है, जहाँ कभी बँगाल की राजधानी हुआ करती थी।) ट्रिप के और भी कुछ यात्री रात तक उनके घर पहुँचे। रात का खाना वहीं हुआ। रात पौने ग्यारह बजे हम सभी गौड़ एक्सप्रेस से रवाना हुए।
       सुबह मुँह अन्धेरे हम सियालदह स्टेशन पर थे। चाय पीकर लोकल ट्रेन से कैनिंग के लिए (64 किमी) रवाना हुए। कैनिंग इस रूट का आखिरी स्टेशन है। कैनिंग से टेम्पो में बैठकर हम सभी सोनाखाली के लिए (36 किमी) रवाना हुए। सोनाखाली स्टीमर घाट पर बहुत सारे स्टीमर नजर आये। हमारे स्टीमर का नाम 'भोलानाथ' था। करीब 50 लोग इस सवार हुए। कागजात वगैरह बनने में समय लगा। करीब बारह बजे हमारा स्टीमर रवाना हुआ। इस बीच स्टीमर पर गर्मागर्म नाश्ता हुआ।
       नदी में थोड़ा आगे बढ़ते ही मैंग्रूव के जंगलों की शुरुआत हो गयी। आगे चलकर यह और भी घना हो गया। पहले दिन हम जिस प्वाइण्ट पर उतरे, उसका नाम सांझेखाली वाइल्डलाईफ सैंक्चुअरी था। बहुत-से टापुओं में इस तरह की व्यवस्था है, जहाँ सैलानी उतरकर टापु पर घूमते हैं और 'वाच टावर' पर चढ़कर जंगल का नजारा देखते हैं। यहाँ एक संग्रहालय भी था।
       रात में हमारे स्टीमर ने ट्रिपलीघेरी बाजार नाम के एक टापु के पास लंगर डाला। उस शाम वहाँ साप्ताहिक 'हाट' भी लगी हुई थी। रात होने पर भी चहल-पहल थी। हमारे स्टीमर के कुछ यात्री वहीं गेस्ट-हाउस में ठहरे- रात बिताने के लिए। वैसे, स्टीमर पर गद्दों-रजाईयों की व्यवस्था थी; ठण्ड भी ज्यादा नहीं थी, इसलिए ज्यादातर यात्री स्टीमर पर ही सोये। 
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       अगले दिन- यानि 31 दिसम्बर को- हमारा स्टीमर तीन जगहों पर रुका- सुदर्णखाली, दुबांकी कैम्प और झारखाली इको पार्क। पहले टापु पर वाच टावर था, दूसरे पर वाच टावर के साथ-साथ एक पक्षी-अभयारण्य भी था और तीसरे पर दो बाघों को रखा गया था- सैलानियों के लिए। इस दरम्यान स्टीमर कम रफ्तार में चलता रहा- कभी संकरी, कभी चौड़ी धाराओं में। दोनों तरफ तरह-तरह के जंगल देखने मिल रहे थे। कहीं-कहीं जंगल बहुत घने थे। ज्यादातर टापुओं के जंगल रस्सी की विशाल जालियों से घिरे थे- ताकि कोई इनमें प्रवेश न कर सके। कई मगरमच्छ पानी से निकलकर किनारे पर धूप सेंकते हुए नजर आये। अक्सर बन्दर भी नजर आ रहे थे। जहाँ तक बाघों की बात है, हमें नहीं लगता कि जिन धाराओं से सैलानियों को लेकर स्टीमर गुजरते हैं, उन धाराओं के किनारे कभी बाघ आते भी होंगे। यही कारण है कि सैलानियों को दिखलाने के लिए झारखाली इको पार्क में दो बाघों को बन्दी अवस्था में रखा गया है, ताकि सुन्दरबन आने वाले सैलानी निराश न हों और बाघ देखकर ही जायें। इस पार्क में छोटा-सा सुन्दर बाजार भी है।
दोपहर के बाद हम जिस जगह से गुजरे, वहाँ तो किसी सागर का अहसास हो रहा था- शायद बँगाल की खाड़ी यहाँ से ज्यादा दूर नहीं थी।
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       दूसरी रात भी हमारे स्टीमर ने ट्रिपलीघेरी बाजार में ही डेरा डाला। उस रात बारह बजे तक हम स्टीमर में अन्ताक्षरी खेलते रहे- नये साल के स्वागत के लिए।
       2020 के पहले दिन, यानि 1 जनवरी को हमारे स्टीमर ने पाखीरालय नामक टापु के किनारे डेरा डाला। यहाँ भी एक बाजार था। इसके बाद लौटने का क्रम शुरु हुआ। लौटते हुए स्टीमर गोसाबा शहर के किनारे भी रुका। स्टीमर के एक यात्री का जन्मदिन था और उसे स्टीमर में बाँटने के लिए मिठाईयाँ भी खरीदनी थीं।
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       जो लोग मांसाहर के शौकीन हैं, लगता है, उनके लिए यह ट्रिप बढ़िया है, क्योंकि टूर आयोजन करने वालों की ओर से स्टीमर पर भोजन आदि का इन्तजाम बहुत ही खुले दिल से किया जा रहा था। पहले दिन जिस मछली का व्यंजन चावल के साथ परोसा गया, उसके बारे में बताया गया कि यह गंगा की 'भेटकी' मछली है, जिसकी कीमत आम मछलियों की तुलना में ज्यादा होती है। यह मछली हमें वाकई स्वादिष्ट लगी। दूसरे दिन के भोजन में बड़े आकार की झींगा मछली थी। पता चला, यह भी महँगी मछली है, लेकिन चूँकि यह समुद्र की मछली है, इसलिए बहुतों को इसका स्वाद नहीं रुचेगा। हम भी इसकी खास महक और बनावट के कारण इसे नहीं खा पाये। तीसरे दिन के भोजन में मछली तो साधारण थी, पर उसे पकाया गया था खास बँगाली तरीके से, यानि 'सरसे बाँटा' (सरसों पीसकर) के साथ। यह व्यंजन भी स्वादिष्ट लगा हमें। रात के खाने में एक रोज मुर्गे और दूसरे रोज मांस का इन्तजाम था। चावल के साथ रोटियाँ भी रहती थीं- हालाँकि एक रात हमने रोटियाँ कम पड़ते देखा। शाम के स्नैक्स में एक शाम चिकन-पकौड़ा था। सुबह के नाश्ते में मैदे की पूरियाँ होती थीं। तीनों वक्त चाय-कॉफी तो चलता ही था। कुल-मिलाकर, भोजन के शौकीनों को यहाँ निराश नहीं होना पड़ेगा। उम्मीद करते हैं कि हर स्टीमर में ऐसा ही इन्तजाम रहता होगा।
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       रही बात इस ट्रिप की कमी की, तो वह है- खारा पानी, जिससे नहाना- खासकर, सिर धोना मुश्किल है। इससे बचने के लिए आपको रात स्टीमर में न ठहर कर किसी टापु के लॉज या होटल में रुकना पड़ेगा- जिसका खर्च अलग पड़ेगा। हो सकता है, किसी स्टीमर में कुछ और भी व्यवस्था हो। दरअसल ज्वार के कारण यहाँ नदियों का पानी भी खारा हो जाता है। हम अब तक जानते थे कि ज्वार पूर्णिमा के दिन आता है और भाटा अमावस्या के दिन, पर यहाँ बताया गया कि हर छह घण्टों में ज्वार-भाटा होता है। रात में तो खैर, हमने स्पष्ट देखा, तेजी से पानी बढ़ते हुए। दिन में भी एकबार पानी चढ़ता है।
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       आम तौर पर नये साल के दिन पिकनिक मनाया जाता है; पिकनिक को हिन्दी में बनभोज या वनभोज कहते हैं और सुन्दरबन एक जंगल है, यानि वन। यहाँ स्टीमर पर दो रातें तीन दिन बिताते हुए भोजन करना- इससे बड़ा "बनभोज" भला और क्या हो सकता है!
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पुनश्च:
हम यह मानकर चल रहे थे कि स्टीमर-यात्रा के दौरान रॉयल बेंगाल टाईगर का दर्शन असम्भव है, लेकिन सुन्दरबन से लौटने के कुछ ही दिनों बाद एक फेसबुक-पोस्ट पर नजर गयी, जिसमें यात्रा के दौरान बाघ के दर्शन का जिक्र है. तस्वीर भी ऐसी थी कि मानो स्वप्नलोक की तस्वीर हो! वैसे, यु-ट्युब पर भी बाघों के दो-एक ऐसे विडियो मिल जायेंगे, जिन्हें स्टीमर से ही शूट किया गया है. खैर, हम फेसबुक वाली उस तस्वीर को यहाँ साभार प्रस्तुत कर रहे हैं और इस तस्वीर को क्लिक करने वाले ने साथ में जो पंक्तियाँ लिखी थीं, उन्हें भी साभार उद्धृत करते हैं: 

 (On Facebook)
Once upon a time, there was a King. There is a King. There will be a King.

I was travelling as a mere admirer that afternoon through his kingdom, offcouse I was not invited, but still was very eager rather greedy to get a glimpse of the king before coming back to my small space in a huge city where I live like a machine.

Time passes by almost 72 hrs, noh! there was no sign of him but the Sun yes the Sun waited for him that afternoon. Suddenly a whiff of air ruffled the deep Mangroves, he swam long rivers, he walked through the Sundari, Goran, Gewa for me. (?) Perhaps I have seen this moment in my dreams , oh yes he is my King.

Sundarban National Park

Nikon.
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उपर्युक्त आलेख हिन्दी में कुछ यूँ बनेगा-


पुराने जमाने की बात है. किसी देश में एक राजा हुआ करता था... वह राजा आज भी है... वह कल भी रहेगा...

मैं उस राजा के एक मामूली प्रशंसक के रुप में उसके राज्य में घूम रहा था. बेशक, मुझे आमंत्रित नहीं किया गया था, फिर भी, अपने बड़े शहर के छोटे-से आशियाने में लौटने से पहले- जहाँ कि मैं एक यंत्र के समान जीवन बिताया करता हूँ- राजा की एक झलक पाने के लिए मैं बेताब था.
धीरे-धीरे 72 घण्टे बीत गये. अफसोस, राजा के दर्शन की कोई उम्मीद नजर नहीं आयी, लेकिन उस शाम सूर्य मानो डूबने से पहले राजा की झलक दिखलाने के लिए इन्तजार कर रहा था. अचानक. मैंग्रूव की जंगलों में सरसराहट हुई. राजा आया. वह नदी में तैरा... वह सुन्दरी, गोरान, गेवा के वृक्षों के बीच से गुजरा... मेरे लिए (वाकई मेरे लिए?). कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा था? नहीं, यह तो मेरा राजा ही था... मेरी आँखों के सामने. 

-प्रान्तिक चैटर्जी

सुन्दरबन नेशनल पार्क. 9 जनवरी 2020. कैमरा- निकोन.