स्कूली दिनों में हम
जो कवितायें पढ़ते थे, उनमें से एक कविता की पंक्तियाँ थीं-
"नहीं हुआ है
अभी सवेरा
पूरब की लाली पहचान
चिड़ियों के जगने से पहले
खाट छोड़ उठ गया किसान।"
अब जबकि जाड़ा चला गया है और गर्मी पूरी तरह से आयी नहीं है-
स्थिति यह है कि पूरब में लाली छाने के साथ जब पंछीगण चहचहाना शुरु करते हैं, उसी
समय आँखें खुल जाती हैं। (प्रसंगवश यह बता दूँ कि रात हमलोग देर तक नहीं
जागते हैं- साढ़े नौ बजते-बजते हमारा "दीप-निर्वाण" हो जाता है। यह भी एक
कारण है, मुँह अन्धेरे चिड़ियों की चहचहाहट के साथ आँखें खुल जाने का।)
सबसे
पहले तो पपीहे की "पीऊ-कहाँ" से शुरुआत होती है। मैंने सुना है, और एक
जमाने में अनुभव भी किया है कि पपीहा कभी-कभी रात भर बोलता है। हो सकता है, वे
चाँदनी रातें हों- ठीक से याद नहीं। पर खुले में सोते वक्त रात भर उसकी आवाज सुनने
का अनुभव मुझे है।
पपीहे
के बाद शुरु होती है अलग-अलग स्वरों में कोयल की "कुहू-कुहू"। इस
कुहू-कुहू में वाकई अलग-अलग तरह के स्वर और भाव होते हैं- कभी लगता है, कोई मनुहार
कर रहा है, तो कभी लगता है कोई आवेश में आ गया है।
तीसरे
स्थान पर बटेर का "घूघू-घू" शुरु हो जाता है।
इसके
बाद तो अन्यान्य पंछियों की आवाजें ऐसे घुल-मिल जाती हैं कि समझना मुश्किल हो जाता
है कि आखिर कितने तरह के पंछियों का वास इस इलाके में है! यह भी सही है कि
ज्यादातर पंछियों की आवाजों को मैं पहचानता ही नहीं। हाँ, घरेलू मैनों, गौरैयों और
कौओं की आवाज को पहचाना जा सकता है। मगर "टी-ट्वीट" करने वाली और
"टटर-टटर" करने वाली चिड़िया का नाम मैं नहीं जानता। और भी कई आवाजों को
मैं नहीं पहचानता।
कुछ
देर तक यह कलरव सुनने के बाद मस्जिदों से "अजान" सुनायी पड़ने लगती है।
जहाँ
तक मुर्गे की बाँग की बात है- मैं देख रहा हूँ कि उनकी मुँह-अन्धेरे वाली
"पहली" बाँग यहाँ सुनायी नहीं देती। काफी उजाला फैल जाने के बाद जाकर
उनकी "कूँकड़ू-कूँ" सुनायी पड़ती है। हो सकता है, शहरी मुर्गों की आदत कुछ
अलग हो, या फिर मुझे ही धोखा हो रहा है। मगर मैं देहात में भी रहा हूँ और मुझे
ध्यान है कि मुर्गे की "पहली" बाँग मुँह-अन्धेरे ही होनी चाहिए।
***
पिछले
साल इस कलरव से जागने के बाद मैं टहलने चले जाया करता था। यह अर्द्धशहरी इलाका है-
(जहाँ मैं फिलहाल नौकरी के सिलसिले में रह रहा हूँ। मेरा अपना घर तो "राजमहल
की पहाड़ियों" की तलहटी में बसा है, जहाँ टहलने के लिए "प्राकृतिक" स्थानों
की कमी नहीं है।) एन.एच.-57 शहर के बीच से गुजरता है- बहुत-से लोग इसके फोर-लेन फ्लाइ-ओवर
पर टहलने आते हैं। मैं भी जाता था। मगर जल्दी ही महसूस किया कि ट्रकों की आवाजाही
के कारण हवा में ताजगी नहीं है वहाँ। इससे ताजी हवा तो मेरी अपनी छत पर मिल जाती
है। सो, टहलना बन्द कर मैंने अपनी छत पर "गहरी साँस" लेने की दिनचर्या
शुरु कर दी थी। अभी भी मैं यही करता हूँ- हालाँकि किसी भी अभ्यास में मैं
"नियमित" नहीं रहता हूँ। मन किया, तो किया, नहीं तो छोड़ दिया।
प्रसंगवश,
अब मैं अपने ढंग से "प्राणायाम" करता हूँ। 6 की गिनती तक साँस अन्दर
भरना, 6 की गिनती तक साँस को अन्दर रोकना (कुम्भक), 6 की गिनती तक साँस को बाहर
निकालना और 6 की गिनती तक साँस को बाहर ही रोके रखना (रेचक)। इन चारों क्रियाओं के
चक्र को मैं कुल 12 बार दुहराता हूँ। इसके बाद हर चक्र के साथ एक-एक कर गिनती
बढ़ाना शुरु करता हूँ। अभी तक मैं 17 की गिनती तक पहुँच पाया हूँ। शायद इससे आगे
बढ़ना मुश्किल है। फिर भी, देखा जाय- मेरा लक्ष्य 24 की गिनती तक पहुँचना है!
फेफड़ों
में ताजी हवा भरने का काम तो इससे हो जाता है, मगर इससे शरीर की मांसपेशियों की
कसरत तो नहीं होती। अतः, अगर कोई मेरी इस दिनचर्या को अपनाना चाहे, तो उन्हें बता
दूँ कि इसके लिए आपको रात में खाना खाने से कुछ पहले "रनिंग ऑन द स्पॉट"
करना चाहिए। रबर का फुटमैट बिछा लीजिये, उसपर पुरानी दरी भी डाल सकते हैं और फिर
एक ही स्थान पर दौड़ना शुरु कर दीजिये। 1000, 2000 से लेकर 5,000 स्टेप्स तक की
रनिंग की जा सकती है।
किसी
प्रदूषित इलाके में "मॉर्निंग/इवनिंग वाक" करने से तो यही बेहतर रहेगा।
***
हालाँकि
जिनका जीवन महानगरों में बीता है, उन्हें शायद अनुभव ही न हो कि हवा में "ताजगी"
किस तरह की होती है। (सम्भव है, "मुँह-अन्धेरे" वाली "कलरव"
का भी उन्हें अनुभव न हो।) अन्य स्थानों पर कई बार रात जागने के क्रम में मैंने
अनुभव किया है कि भोर के साढ़े तीन बजते-बजते हवा में एक अद्भुत किस्म की ताजगी आ
जाती है, जो यातायात शुरु होने के साथ-साथ खत्म होने लगती है। इसका महानगरों में
पूर्णतः अभाव होता है। महानगरों में रहते हुए मैंने अनुभव किया है कि "ब्रह्म-मुहुर्त"
के वक्त भी वहाँ हवा में "ताजगी" नहीं होती। बल्कि मुझे एक खास किस्म की "महानगरीय-बदबू" (जिसमें फैक्ट्रियों, मोटर गाड़ियों के धुयें तथा गन्दे
नालों की बदबू का मिला-जुला असर होता है) का अहसास सुबह-सुबह होता है।
...और मैंने देखा है कि इसी
बदबूदार हवा में लोग-बाग "मॉर्निंग वाक" कर के प्रसन्न हो रहे हैं...
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बहुत दिनों बाद हिंदी पढ़ कर अच्छा लगा. मैं तीसरी चौथी कक्षा मैं पढ़ी हिंदी कविता "नहीं हुआ है अभी सवेरा पूरब की लाली पहचान" और "ख़ुशी मनाओ ख़ुशी मनाओ आज दिवाली रे" तथा "बड़े काम के ये जानवर" कवितायें ढूंढ रहा था पर नहीं मिलीं. यदि आपके पास हैं तो शेयर करें.
जवाब देंहटाएंआपने जो हवा की ताजगी की बात कही है वह बहुत सही है. करीब १०-१५ वर्ष पहले तक वह ताजगी शहरों मैं भी मिलती थी पर अब नहीं है. बिलकुल नहीं. सबकुछ बदल रहा है, बहुत तेजी से.
जवाब देंहटाएंऋतुएँ
जवाब देंहटाएंसूरज तपता धरती जलती।
गरम हवा ज़ोरों से चलती।
तन से बहुत पसीना बहता,
हाथ सभी के पंखा रहता।
आ रे बादल! काल्रे बादल!
गरमी दूर भगा रे बादल!
रिमझिम बूँदें बरसा बादल!
झम-झम पानी बरसा बादल!
लो घनघोर घटाएँ छाईं,
टप-टप-टप-टप बूँदें आईं।
बिजली चमक रही अब चम-चम,
लगा बरसने पानी झम-झम!
लेकर अपने साथ दिवाली,
सरदी आई बड़ी निराली।
शाम सवेरे सरदी लगती,
पर स्वेटर से है वह भगती।
सरदी जाती, गरमी आती,
रंग रंग के फूल खिलाती।
रंग-रँगीली होली आती,
सबके मन उमंग भर जाती।
रात और दिन हुए बराबर,
सोते लोग निकलकर बाहर।
सरदी बिलकुल नहीं सताती,
सरदी जा
दीप जलाओ, दीप जलाओ, आज दिवाली रे . खुशी-खुशी सब हंसते आओ, आज दिवाली रे . मैं तो लूंगा खेल-खिलौने, तुम भी लेना भाई नाचो, गाओ, खुशी मनाओ, आज दिवाली आई . आज पटाखे खूब चलाओ आज दिवाली रे . दीप जलाओ, दीप जलाओ आज दिवाली रे . नए-नए मैं कपड़े पहनूं, खाऊं खूब मिठाई . हाथ जोड़कर पूजा कर लूं आज दिवाली आई . खाओ मित्रों, खूब मिठाई, आज दिवाली रे . दीप जलाओ, दीप जलाओ, आज दिवाली रे . आज दुकानें खूब सजी हैं घर भी जगमग करते . झिलमिल-झिलमिल दीप जले हैं कितने अच्छे लगते . आओ, नाचो, खुशी मनाओ, आज दिवाली रे . दीप जलाओ, दीप जलाओ, आज दिवाली रे .
मैंने जब चौथी या पश्चिमी कक्षा में पढ़ रहे थे तो एक कविता मैंने पढ़ा था जो कि रामधारी सिंह दिनकर का है अभी वह बुक नहीं मिला है समय के अनुकूल बदल गया है मैं जवाब चाहूंगा कि अगर आपके पास में वह कविता है तो गूगल पर सेंड जरूर करेंगे रूपा
जवाब देंहटाएंsundar hai
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