बुधवार, 19 जुलाई 2017

179. टखने वाले जूते



       ट्रेनिंग सेण्टर (ATI, AF, Belgaum) में सुबह परेड के समय हमलोग टखने वाले जूते (Ankle Shoes) पहनते थे- सफेद 'एंक्लेट' के साथ। उन दिनों इस जूते को पहनना हमारे लिए "सजा के समान" होता था।
       ...और आज, यानि प्रायः 32 वर्षों के बाद देखिये कि दफ्तर जाने के लिए उन्हीं टखने वाले जूतों को हम "शौक से" पहन रहे हैं। 


       हालाँकि दोनों में अन्तर है। ट्रेनिंग सेण्टर वाले जूतों की तली चमड़े की होती थी, तली में कई सारी लोहे की कीलें और एड़ियों पर "नाल" हमलोग ठुकवा कर रखते थे; जबकि अभी जो जूते पहन रहा हूँ, वह "रबर सोल" वाले हैं। इन्हें हमने अररिया में रहते समय SSB की कैण्टीन से लिया था- कोई 5 साल पहले। कभी-कभी इन्हें शौक से पहनता हूँ।
       कुछ भी कहिये- ऐसे जूतों और बेल्ट के साथ जब कपड़े पहने जाते हैं, तो अच्छा लगता है। हम तो कई बार सोचते हैं कि टी-शर्ट, जीन्स, चप्पल पहन कर और बिना दाढ़ी बनाये लोग दफ्तरों में काम कैसे कर लेते हैं! हम तो ऐसा सोच भी नहीं सकते। दफ्तर जाने का मतलब ही हम समझते हैं- जूते और बेल्ट के साथ पैण्ट-शर्ट पहनना और शेविंग करके जाना- चाहे दफ्तर का कोई 'ड्रेस-कोड' न हो, फिर भी। हालाँकि 'अति सर्वत्र वर्जयेत' के तहत 'आडम्बर' और 'दिखावे' का अहसास न हो- इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए। कुल मिलाकर, 'फुर्सत का पहनावा' और 'काम का पहनावा'- दोनों में कुछ तो अन्तर होना ही चाहिए। क्यों?


       एक बार फिर ट्रेनिंग सेण्टर की याद। परेड के दौरान MWO पोखरियाल साहब की कड़कदार आवाज हमेशा गूँजती रहती थी- जैसे कि-
       "March on your heels!"
       "Feel your Collar!"
       "A soldier never looks down!"
       इनके अलावे "look-up!" "chin-up"-जैसी आवाजें तो चारों तरफ से आती थीं, क्योंकि अन्यान्य Instructors मैदान में इधर-उधर मौजूद रहते थे।
       वही पोखरियाल साहब जब शाम को PT के दौरान टी-शर्ट में होते थे, तो अक्सर "जॉली" मूड में होते थे। लगता है- मेरे "अवचेतन" मस्तिष्क ने इस बात को नोट कर लिया था- पैण्ट-शर्ट में "मूड" अलग और टी-शर्ट में मूड अलग होना चाहिए।
       बहुत-से पूर्व-सेनानी हैं, जो बाद में दूसरी सेवाओं में शामिल होते हैं। प्रायः सभी- खासकर, वायु सेना वाले- पूरी तरह से "सिविलियन" बन जाते हैं- उन्हें देखकर कोई कह नहीं सकता कि इस बन्दे ने फौज में बीस साल बिताये होंगे। मगर हमने अपना एक पैटर्न बना लिया है- दफ्तर जाने के लिए जितनी भी कमीजें हैं, सबमें सामने दो जेबें हैं- "फ्लैप" के साथ। जहाँ तक पैण्ट की बात है- वायु सेना में शामिल होने से पहले ही हमने काली पैण्ट पहननी शुरु कर दी थी... और आज तक उसी पर कायम हैं। यानि हमने अपना एक "युनिफॉर्म" बना रखा है!


       ***   

गुरुवार, 13 जुलाई 2017

177. इस बार सावन बहका हुआ है...



       मौनसून के बादलों के आने से एक दिन पहले हमारे बरहरवा के पश्चिमी क्षितिज पर राजमहल की पहाड़ियों के ऊपर सूर्यास्त के बाद रंगों का कुछ ऐसा मेला सजा था- मानो, मौनसून के आगमन की सूचना मिल गयी हो और उसी के स्वागत में यह रंगोली सजायी जा रही हो...



       अगले दिन मौनसून ने दस्तक दिया। 'दस्तक' शब्द छोटा पड़ रहा है। जैसी गर्जन और जैसी कड़कड़ाहट थी कि यही कहा जा सकता है कि धूम-धड़ाके के साथ मौनसून से ने हमारे "कजंगल" क्षेत्र में, हमारे 'दामिन-ए-कोह" में प्रवेश किया!



       इसके बाद आया आषाढ़ का महीना। वाकई वर्षा ऋतु का अहसास हो गया।



       और सावन?
       मत पूछिये। सावन के पहले दिन से ही जो झड़ी शुरु हुई, कि बस मन का मोर नाच उठा।
       सारे ताल-तलैये भर गये...



       खेतों में धान रोपने का काम जोर-शोर से शुरु हो गया...



       दूर जाने की क्या जरुरत? हमारे घर के आस-पास भी पानी जमा हो जाता है... (कंक्रीट की सड़कें ऊँची होती जाती हैं, रिहायशी इलाके डूबते जाते हैं... । हम तो उस महान आदमी का खुर-स्पर्श करना चाहेंगे, जिसने कंक्रीट की मोटी-मोटी सड़कें बनवाने का आइडिया सरकार को दे रखा है!)



       ***
       यह सही है कि बहुत-से नगरों में वर्षा ने तबाही मचा रखी है, मगर ध्यान से सोचिये तो इसमें दोष वर्षा ऋतु का नहीं, हम मानव जाति का है। जनसंख्या, नगरीकरण, औद्योकिकरण हमीं लोगों ने बढ़ाया है। नगरों में तालाबों, नालों का अस्तित्व समाप्त हो रहा, मिट्टी का क्षेत्रक़ल घट रहा और कंक्रीट का बढ़ रहा, तो ऐसी समस्यायें आयेंगी ही।
       सच तो यह है कि मानव द्वारा पर्यावरण पर किये जा रहे इतने अत्याचारों के बाद भी वर्षा ऋतु का समय पर आना प्रकृति की हम पर बड़ी कृपा है...
       ये अन्तिम दो तस्वीरें अभी कुछ देर पहले की-
 


       *****

मंगलवार, 4 जुलाई 2017

176. "क्रॉस डि मिस्टिक"


      बचपन में हमने हस्तरेखा पर एक पुस्तक पढ़ी थी। वह दौर ही था पुस्तक, पत्रिका, कॉमिक्स पढ़ने का; जैसे कि आज की बाल-किशोर-युवा पीढ़ी फेसबुक, व्हाट्स-अप इत्यादि पढ़ती है। वह पुस्तक चाचाजी की थी और उस पर बाकायदे गत्ते की जिल्द चढ़ी हुई थी। उन दिनों अच्छी पुस्तकों पर लोग गत्ते की जिल्द चढ़वाकर रखते थे, ताकि कई हाथों में घूमने के बाद भी पुस्तक खराब न हो।
       खैर, तो पुस्तक की जो दो-एक बातें हमें याद रह गयीं, उनमें से एक थी- "रहस्य क्रॉस" का जिक्र! बताया गया था कि किसी-किसी व्यक्ति की हथेली पर मस्तिष्क एवं हृदय रेखाओं के बीच एक छोटा-सा "क्रॉस" बना होता है। ऐसे व्यक्ति भाग्यशाली होते हैं। पुस्तक के अनुसार, महान हस्तरेखाविद "कीरो" ने ही इस चिह्न को "रहस्य क्रॉस" (क्रॉस डि मिस्टिक) नाम दिया था।
       जब किसी बात के साथ 'रहस्य' शब्द जुड़ जाय, तो वह बात याद रह ही जाती है। इस प्रकार, यह जानकारी मेरे मस्तिष्क में हमेशा तरोताजा रही।
       ***
       अब एक जमाने के बाद कल अचानक एक वेब-पत्रिका में इस "क्रॉस" का उल्लेख पढ़ने को मिला। वेब-पत्रिका का नाम है- Hindi Town और आलेख का शीर्षक है- 'केवल 2 प्रतिशत लोगों के हाथों में होता है ये निशान, आपके हाथ में भी है तो जानें क्या है इसका मतलब!!' (उस आलेख का लिंक यहाँ है।)
       इस आलेख में हालाँकि "रहस्य क्रॉस" शब्द का जिक्र नहीं है, मगर हथेली पर "क्रॉस" का स्थान वही बताया जा रहा है- मस्तिष्क एवं हृदय रेखाओं के बीच। बताया जा रहा है कि यह चिह्न रखने वाले लोग भाग्यशाली होते हैं। जो रोचक बात इसमें कही जा रही है, वह यह है कि प्राचीन काल में सम्राट अशोक और सिकन्दर के हाथों में यह निशान था। (इतिहास में दोनों को "महान" का दर्जा प्राप्त है।) आधुनिक काल में महात्मा गाँधी और हिटलर के हाथों में इस निशान के होने की बात कही जा रही है।
       ***
       उपर्युक्त दोनों जानकारियों के बीच हमने एक अन्तर नोट किया। पुस्तक में हथेली का जो रेखाचित्र छपा था, उसमें "क्रॉस" को स्वतंत्र दिखाया गया था- भाग्य रेखा के बगल में; जबकि वेब-पत्रिका के आलेख में हथेली का जो छायाचित्र प्रकाशित हुआ है, उसमें दिखाया गया है कि एक छोटी-सी रेखा भाग्य रेखा को काटते हुए "क्रॉस" बना रही है- हालाँकि स्थान वही है- मस्तिष्क एवं हृदय रेखाओं के बीच।
       हो सकता है, सिर्फ "क्रॉस" और उसकी स्थिति मायने रखती हो- वह "स्वतंत्र" हो या "भाग्य रेखा के साथ संयुक्त"- इससे फर्क न पड़ता हो।
       ***
       अब सच्चाई चाहे जो हो, यहाँ हम अपनी बात बताना चाहते हैं।
       हस्तरेखा को मानना या न मानना एक अलग बात है, मगर यह एक रोचक विषय है और इसके प्रति मन में उत्सुकता बनी रहती है- इस बात से शायद ही कोई इन्कार करेगा। मेरे साथ भी यही बात है। हम इस पर विश्वास करें या न करें, इसके प्रति मन में उत्सुकता जरुर है।
       खैर, तो साहिबान, दिल थाम कर बैठिये कि हम यह बताने जा रहे हैं कि मेरी दाहिनी हथेली पर उपर्युक्त दोनों ही प्रकार के "क्रॉस" मौजूद हैं। मस्तिष्क एवं हृदय रेखाओं के बीच एक तरफ एक छोटी-सी रेखा भाग्य रेखा (इसे शनि रेखा भी कहते हैं) को काटते हुए "क्रॉस" बना रही है, वहीं दूसरी तरफ, एक छोटा-सा स्वतंत्र "क्रॉस" भी बगल में मौजूद है!
       सवाल यह है कि अब इसे क्या समझा जाय? 1 + 1 = 2, या 1 – 1 = 0?
       यानि या तो हम "डबल" भाग्यशाली हैं, या फिर एक "क्रॉस" ने दूसरे के महत्व को "शून्य" कर दिया है...
       हा:-हा:=हा:-हा:...
       ***** 
मेरी दाहिनी हथेली की तस्वीर... "रहस्य क्रॉस" को दर्शाती हुई-