रविवार, 15 दिसंबर 2013

98. चौलिया



       पिछले- नवान्न वाले पोस्ट में- नये चावल का जिक्र आया था। यह नया चावल हमारे घर में चौलिया गाँव से आता है। यह हमारा पैतृक गाँव है। बरहरवा से कुछ ही किलोमीटर दूर है।
आज क्या मन में आया, हम सबने चौलिया चलने का कार्यक्रम बना लिया
       एक जुगाड़ किराये पर लेकर हम रवाना भी हो गये। 'जुगाड़' को यहाँ 'भुटभुटिया' कहते हैं।
       बरहरवा से बाहर निकलते ही सुन्दर तालाब दीखने लगे।
एक खलिहान में धान की पिटाई का कार्य चल रहा था- पिटाई हो चुकी थी- उसके बाद का कार्य चल रहा था। एक व्यक्ति एक परात-जैसे सूफ में पिटा हुआ धान बीच में लहरा कर फेंक रहा था और उस ढेर के चारों तरफ खड़ी 7-8 महिलायें तुरन्त सूफ से हवा करके धान में से 'पतान' (धान के साथ आ जाने वाले 'पुआल' और बिना चावल वाले धान को) को उड़ाकर अलग कर रही थीं। ऐसा करते हुए वे दो-तीन कदम चलते भी थे- यानि धान की ढेर के चारों तरफ वे परिक्रमा कर रहे थे। थोड़ी धूल भी साथ में उड़ती थी- इसलिए महिलाओं ने आधे चेहरे को कपड़े से ढाँप रखा था- ताकि नाक में धूल न जाये। दृश्य जबर्दस्त था- तस्वीर खींचने के लिहाज से- खासकर, विडियोग्राफी के लिहाज से। मगर भुटभुटिया रुकवाकर मैं फोटो खींचने लगूँ- यह एक अटपटी बात होती। खैर। किसी जमाने में हमारे घर के आस-पास ही तीन-चार खलिहान बना करते थे- बचपन में हमलोग बैठकर पूरी प्रक्रिया देखते थे। अब कहाँ?
सड़क फिर से निर्माणाधीन है- इस बार चौड़ी सड़क बन रही है। हिचकोले खाते हुए हम आधे घण्टे में चौलिया पहुँच गये।
 करीब तीन घण्टे गाँव में बिताकर, परिचितों, रिश्तेदारों, भागीदारों से मिलकर और चाची के यहाँ खाना खाकर हमलोग करीब साढ़े तीन बजे गाँव से निकले। (इस ब्लॉग के 2रे पोस्ट 'चरक मेला' तथा 5वे पोस्ट 'टप्परगाड़ी' में चाची का जिक्र है।)
कच्ची सड़क छोड़कर हम खेतों से चलते हुए रेलवे के 'लूप लिंक केबिन' की ओर बढ़ गये। खेतों के ज्यादातर धान कट चुके थे। यहाँ रेल ट्रैक का एक लूप बनता है- यह लूप बरहरवा से फरक्का और पाकुड़ जाने वाले रेल ट्रैक को जोड़ता है। इस केबिन पर कुछ सवारी रेलगाड़ियाँ रुकती हैं- हमें 'अप बरौनी पैसेन्जर' पकड़नी थी।
चालीस मिनट चलकर हम केबिन पहुँचे। यहाँ भी करीब चालिस मिनट इन्तजार करने के बाद ट्रेन आयी। कुल पाँच मिनट की यात्रा के बाद हम बरहरवा में थे!     


















गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

97. नवान्न


       पंजाब में गेहूँ की फसल कटने के बाद "बैशाखी" (बैशाख महीने में) मनाया जाता है- यह तो सब जानते हैं; मगर बंगाल में धान की फसल कटने के बाद "नवान्न" मनाया जाता है (अग्रहायण- मार्गशीर्ष- अगहन महीने में)- यह बहुतों को नहीं पता होगा
हमारा परिवार बँगलाभाषी है- भले अगली पीढ़ी हिन्दीभाषी बन चुकी है- इसलिए आज भी हमारे यहाँ नवान्न मनाया जाता है
थोड़े-से नये धान को ओखली में कूटकर चावल बनाया जा चुका है- इसका प्रसाद बनेगा- इसमें केला, गुड़ इत्यादि मिलाकर
एक दूसरा प्रसाद भी बनेगा- नये चावल के आटे का पहले यह आटा भी हमलोग खुद बनाते थे- ओखली में कूटकर- इसमें समय लगता था सुबह 8-9 बजे से ही प्रक्रिया शुरु हो जाती थी अब मिल से नये चावल का आटा बनवा लिया जाता है ओखली भी पुरानी हो गयी है उस आटे में दूध, केला, गुड़, किशमिश, नारियल गिरी इत्यादि मिलाकर प्रसाद बनाया जा रहा है बबलू (छोटा भाई) इस काम में लगा है माँ बैठी है पास में
अब नये चावल का चूड़ा खाया जायेगा दही और गुड़ के साथ- बेशक, केले के पत्ते पर
हालाँकि अब गुड़ में पहले वाला स्वाद नहीं है
रात नये चावल का भात बनेगा और बनेगी 7 तरह की सब्जियाँ! कभी 14 सब्जियाँ भी बना करती थीं- जब पहाड़ (बिन्दुवासिनी पहाड़) के "झाजी काकू" आया करते थे वे गिन-गिन कर सब्जियाँ खाते थे
मिट्टी की छोटी-सी कोठी में थोड़ा-सा नया चावल रखा जायेगा, जो अब अगले नवान्न में ही निकलेगा और भी कुछ रिवाज होंगे, तो मैं ठीक से नहीं जानता हमें तो बस दही-चूड़ा खाने से मतलब है
यह और बात है कि अब हमारे बच्चे दही-चूड़ा खाने में रुची नहीं दिखाते...







शनिवार, 7 दिसंबर 2013

96. हाथ के बुने स्वेटर





       दो साल पहले यह हाफ स्वेटर बुना था श्रीमतीजी, यानि अंशु ने। कोटालपोखर के चचेरे भाई की शादी में इसी हाफ स्वेटर को मैंने पहन रखा था। पिताजी ने इसकी प्रशंसा की थी और बधाई देने के अन्दाज में अंशु से पूछा था- तुमने बुना है यह स्वेटर?
       आज इसे पहनकर दफ्तर गया था। ट्रेन से उतरकर जहाँ चाय पीता हूँ, वहाँ दो लोगों ने इसकी तारीफ की। दफ्तर में बॉस ने तारीफ की। बाद में तीन-चार और लोगों ने तारीफ की। मेरी समझ में नहीं आया कि इस स्वेटर में खास क्या है?
       घर लौटकर पूछा- इसमें खास क्या है? अंशु का कहना था इसका रंग-संयोजन बढ़िया है और अपनी मर्जी से जो डिजाइन मैंने बना दी है, वह भी बढ़िया है। मैंने कहा- बाद में मुँह-हाथ धोया जायेगा- पहले एक तस्वीर खींच ली जाय!
       ***
       सच पूछिये, तो मैं अपने-आप को भाग्यशाली मानता हूँ कि होश सम्भालने से लेकर अब तक मैं हाथ के बुने स्वेटर ही पहनता आया हूँ। पहले माँ बुनती थी, फिर दोनों दीदी और अब पत्नी। कुछ स्वेटर चाची ने भी बुने थे। मेरा मानना है कि हाथ के बुने स्वेटर पहनने का मतलब है- दुनिया में कोई तो है, जो आपकी परवाह करता है! यह सिर्फ ऊन का वस्त्र नहीं होता, इसमें किसी की ममता, किसी का अपनापन, किसी का प्यार, किसी की शुभकामना रची-बसी होती है...
       अंशु ने मेरे लिए जो स्वेटर बुने हैं, उनमें से कुछ के डिजाइन लीक से हटकर हैं और उन्हें प्रशंसा भी बहुत मिली है।
      

***

      मगर हर कोई इनका महत्व नहीं समझता। अभी बीते नवम्बर के तीसरे हफ्ते में मैं करनाल में था। एक खुले रिसोर्ट में विवाह समारोह था। बहुत ही सुन्दर और नया एक फुल स्वेटर मैंने पहन रखा था- क्रीम रंग का। बेशक, अंशु का बुना हुआ। दो-ढाई बजे रात के आस-पास ठण्ड के कारण मैंने एक ऊनी टोपी पहन ली थी। बेशक टोपी रेडीमेड थी और अच्छी थी।
       शादियों में लोग 'सूट' पहनते ही हैं। एक सूटधारी मेहमान ने मुझे स्वेटर में देखकर रिसोर्ट का कोई स्टाफ समझने की भूल की। मैंने हँसकर उन्हें समझा दिया। मुझे जरा भी बुरा नहीं लगा। मुझे लगा, आडम्बर से परहेज करने वालों के साथ ऐसा होना स्वाभाविक है।
       मुझे महापुरुषों के दो प्रसंग याद आ गये। एक पार्टी में पहुँचे जॉर्ज बरनार्ड शॉ को मेजबान ने 'पार्टी वियर' में आने को कहा। दुबारा पार्टी में आने के बाद शॉ खाने की चीजों को सूट पर लगाने लगे। पूछने पर बताया- मुझे नहीं, मेरे कपड़ों को पार्टी में आमंत्रित किया गया है, इसलिए....
       दूसरी घटना जरा मार्मिक है। रात डॉ. राजेन्द्र प्रसाद इलाहाबाद के आनन्द भवन में पहुँचे। आजादी से पहले की बात है। नेहरूजी सो चुके थे। सीधे-सरल डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को नौकरों ने मामूली गँवई समझा और बरामदे पर रात गुजारने को कह दिया। दमा की शिकायत थी। बड़े कष्ट से उन्होंने बरामदे पर जाड़े की वह रात बिताई। सुबह नेहरूजी उन्हें देखकर अवाक् रह गये- सोचिये कितना शर्मिन्दा हुए होंगे वे...
       ***
       एक और बात बाद में याद आयी। अगाथा क्रिस्टी ने अपनी आत्मकथा में जिक्र किया है। क्रिस्टी को सम्मानित करने के लिए एक आयोजन किया गया था। जब क्रिस्टी वहाँ पहुँची, तो गेट पर तैनात सुरक्षाकर्मियों ने "आमंत्रणपत्र" दिखाने को कहा। क्रिस्टी आमंत्रणपत्र साथ लाना भूल गयी थीं। वे शर्मिन्दा होकर इधर-उधर टहलने लगीं। कुछ देर बाद किसी ने उन्हें देखा, तब उन्हें सम्मान के साथ अन्दर ले जाया गया। इस घटना का जिक्र सुनकर अगाथा की बेटी ने कहा- आखिर आपने क्यों नहीं कहा कि आपही अगाथा क्रिस्टी हैं और आपही को सम्मानित करने के लिए यह आयोजन किया जा रहा है? बेटी का कहना था- अगर मैं होती, तो जोर-शोर से प्रचार करती कि मैं ही अगाथा क्रिस्टी हूँ जासूसी उपन्यासों की महान लेखिका!
       मगर क्रिस्टी ऐसा नहीं कर पायीं। सोचिये, कि अगर क्रिस्टी ने अपना परिचय दे दिया होता और जवाब में सुरक्षाकर्मी व्यंग्य से मुस्कुरा देता, तो उनपर क्या गुजरती?
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अन्त में एक दूसरी बात।
अँग्रेजी में "sweat" माने पसीना होता है और हिन्दी (संस्कृत) में "स्वेद" माने पसीना होता है। शरीर से पसीना निकालने की क्षमता रखने वाले वस्त्र को अगर अँग्रेजी में अगर "sweater" कह सकते हैं, तो हिन्दी में इसे "स्वेदर" क्यों नहीं कहा जा सकता?
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दिसम्बर'2015
यह अंशु की नवीनतम कृति है-   हालाँकि पिछले साल की- 

95. अभिमन्यु लेखक भी है!

मैं नहीं जानता WAC किस तरह की वेबसाइट है, मगर इतना है कि Abhimanyu (मेरा बेटा) इसके लिए करीबन 40 लेख लिख चुका है- बेशक, "Prince" नाम से. 
हाल में वेबसाइट ने पत्रिका भी प्रकाशित की है, जिसमें उसके दो लेख हैं- ये लेख "Abhimanyu" नाम से ही है. शायद इसकी हार्ड कॉपी फरवरी में प्रकाशित भी हो. फिलहाल पीडीएफ कॉपी नेट पर उपलब्ध है. 
वेब- http://worldanimeclub.com/product/anime-reign-magazine-issue-2/