भोर की ट्रेन
रविवार, 2
सितम्बर को हमने भोर 4:40 वाली ट्रेन पकड़ने का फैसला किया। एक ऑटो वाले ‘साहिब’ का नम्बर था मेरे पास (बदरीनाथ
यात्रा पर जाते समय स्टेशन जाने के लिए उसे बुक किया था), उसे फोन किया- उसने कहा कि
हम निश्चिन्त रहें, वह चार बजे पहुँच जायेगा।
हम रात साढ़े तीन बजे का अलार्म लगाकर सो
गये, मगर अलार्म का हमें पता ही नहीं चला- हम सोते रह गये। चार बजे अंशु की आँख
खुली, तब हम फटाफट तैयार होने लगे। सवा चार बजे साहिब को फोन लगाया, तो उनीन्दी
आवाज में वह बोला, “अच्छा किये फोन कर दिये, नहीं तो हम सोते रह जाते। ...बस हम
पहुँच रहे हैं।”
4:30 तक हम निकलने के लिए
तैयार थे। पड़ोसी सिंह जी
हमारी खटपट से जाग गये थे, मुमताज भाई साहब तो सुबह जल्दी जागते ही हैं- अक्सर
दोनों बच्चे- मुस्कान और राज भी उनके साथ ही जाग जाते हैं- आज भी सब हमें विदा
देने के लिए तैयार थे।
अररिया से गुजरने वाला फोर-लेन नेशनल हाई-वे
तो चकाचक है, मगर स्टेशन तक जाने वाली सड़क ऐसी है कि कब कहाँ टेम्पो-ऑटो पलट जाय,
कहा नहीं जा सकता!
खैर, पौने
पाँच बजे जब तक हमारे ऑटो ने अररिया कोर्ट के स्टेशन परिसर में प्रवेश किया, ट्रेन
भी प्लेटफार्म पर आ रही थी।
जल्दी से टिकट लेकर हम ट्रेन में बैठ गये।
मनिहारी
घाट की कचौड़ी
सुबह 7 बजते-बजते हम कटिहार स्टेशन पर उतरे,
बस अड्डे पहुँचे और मनिहारी घाट तक जाने वाली एक जीप में जा बैठे। घण्टे भर में हम
घाट पर पहुँचे, तो स्टीमर घाट पर लगा हुआ था। जल्दी से टिकट लिया। एक दूकान से
कचौड़ी-इमरती लेकर हम स्टीमर पर सवार हो गये- स्टीमर आने में देर होती, तो दूकान पर
ही बैठकर नाश्ता करते।
स्टीमर की डेक पर ट्रक वगैरह सवार हुए। 9:30
पर स्टीमर खुला। कुछ देर बाद हमने नाश्ते का सामान निकाला। मनिहारी घाट की
कचौड़ियों का असली दीवाना अभिमन्यु है- हमारा बेटा। हम तो एक-दो ही खाते हैं और साथ
में घर से लाया नाश्ता करते हैं। आज भी भोर चार बजे उठते ही अंशु (मेरी पत्नी) ने
दर्जन भर आलू के परांठे सेंक लिये थे- ऐसे मौकों पर रात में ही सारी तैयारी वह
करके रख लेती है। रसोई में उसके हाथ चलते भी फुर्ती से हैं।
अभिमन्यु ने मुश्किल से आधा पारांठा खाया; वह भी इस शिकायत
के साथ कि कचौड़ियों का स्वाद खत्म हो गया!
4 साल पहले जब हमने इस रास्ते पर आना-जाना शुरु किया था, तब
स्टीमर का किराया प्रतिव्यकि 7 रुपया था, आज बढ़ते-बढ़ते यह 24 रुपया हो गया है।
साहेबगंज
स्टेशन पर
गंगाजी का जलस्तर कुछ बढ़ा हुआ था।
बीच गंगा में जब स्टीमर ने हॉर्न बजाया था, तो हम चौंक पड़े
थे- बस या ट्रेन की तरह स्टीमर तो बीच में नहीं रुकते यहाँ! मगर वास्तव में एक “दियारा” (टापू-जैसी
संरचना, जो काफी उपजाऊ साबित होती है- बड़े दियारा में तो बाकायदे गाँव बस जाते
हैं) पर किसी यात्री को उतारने के लिए स्टीमर रुका।
फरक्का बाँध बनने के बाद से न केवल मछलियों का जीवनचक्र
प्रभावित हुआ है (खारे पानी की कुछ मछलियाँ अण्डे देने गंगाजी में आती थीं और मीठे
पानी की कुछ मछलियाँ बंगाल की खाड़ी में जाती थीं- खारे पानी में अण्डे देने),
बल्कि गंगाजी के पानी का बहाव भी धीमा हो गया है, जिस कारण रेत के जिन कणों को
बहना चाहिए, वे तली में जमते जाते हैं और आज यहाँ दर्जनों “दियारा” दीखने लगे हैं-
स्टीमर को बचकर निकलना पड़ता है कि कहीं उसकी तली रेत में फँस न जाये! अब
उत्तराखण्ड में कई और बाँध बन रहे हैं, जो गंगाजी के बहाव को और धीमा करेंगे। हो
सकता है कि 25 वर्षों के बाद स्टीमर तो दूर, बड़ी नावें भी यहाँ नहीं चल पायेंगी!
साहेबगंज स्टेशन के बाहर "झूरी" तौलते हुए एक हॉकर |
इस बार ट्रेन ने ज्यादा समय भी नहीं लिया- लगभग डेढ़ घण्टे
में ही हमें बरहरवा पहुँचा दिया।
ट्रान्सफार्मर
खराब
घर पहुँचने के बाद आम तौर पर पड़ोस के स्टूडियो रुपश्री वाले
चन्द्रशेखर चाचा से सबसे पहले मुलाकात होती है। (उनकी शारीरिक बनावट से उनकी उम्र का
पता नहीं चलता और स्वभाव से भी वे सामाजिक तथा मिलनसार हैं; इसलिए मुहल्ले के मेरे
दोस्त लोग उन्हें “चाचा” के बजाय “भैया” कहते हैं।) उन्होंने मुझे देखते ही खबर दी, “लाईन के हालत अभी
सुधरल बा, मगर देख न, आजे बिहाने हमनी के ट्रान्सफार्मर जल गईल।”
बरहरवा में बिजली शायद
1955-56 से ही है; पहले स्थिति ठीक थी- हमने भी बचपन में (1970 के आस-पास) देखा है। अब स्थिति बद से बदतर हो गयी है। बरहरवा-वासी अक्सर बिजली के मुद्दे पर बातचीत करते तथा
सब्जबाग देखते हुए पाये जाते हैं।
मगर सच्चाई कोई स्वीकरने के लिए तैयार नहीं है कि झारखण्ड बनने के बाद से आज तक
यहाँ किसी नये पावर-प्रोजेक्ट की योजना बनी ही नहीं है, तो बिजली आयेगी कहाँ से?
सब-स्टेशन बनाते जाने से क्या होता है?
यहाँ के कोयले की शक्ति से दिल्ली, पंजाब, गुजरात,
महाराष्ट्र की रातें चमचमाती हैं और यहीं के लोग अन्धेरे में जीते हैं। अक्सर लगता
है, झारखण्ड एक ‘उपनिवेश’ है, इसके प्राकृतिक संसाधनों का सिर्फ दोहन होता है,
बदले में कुछ मिलता नहीं है। जब भारत उपनिवेश था, तो अँग्रेजों की चरणवन्दना करने
वाले राजे-महाराजे, जमीन्दार वगैरह गद्दार की भूमिका में थे; आज झारखण्ड के
राजनेतागण उसी स्थिति में हैं। इतनी खुली तथा “वैधानिक” लूट शायद ही
किसी और राज्य में हो!
पिछले ट्रान्सफार्मर के लिए मुहल्ले के मेरे दोस्तों ने
चन्दा उठाकर 15,000 रुपया घूँस दिया था बिजली विभाग वालों को; इसबार देखा- 25,000
या 35,000 रुपया घूँस देने की तैयारी चल रही है- वह भी रसूख रखने वाले स्थानीय
राजनेता के नेतृत्व में- स्थानीय विधायकजी की जानकारी में!!!
ए.टी.एम.
खराब
रात गर्मी थी- हम डबल बेड के गद्दे को खींचकर बाहर बरामदे
पर ले आये। उसे फर्श पर ही बिछाया, बिस्तर लगाया, मच्छरदानी टांगी, फोल्डिंग
चारपाई को सीढ़ी पर टिकाकर सुरक्षा का थोड़ा-सा अहसास पाया और हम तीनों सो गये। हमारा
यह घर हमारे पैतृक घर के पिछवाड़े में है- जंगल, खण्डहर, तालाब, सब हैं आस-पास; और
जाहिर है, निशाचर प्राणियों की भी कमी नहीं होगी!
"माँ बिन्दुवासिनी" |
"पहाड़ी बाबा" |
दिन में मैं ‘बहादुरिया’ भैया (हमारे इलाके में अक्सर लोग
एक-दूसरे का असली नाम नहीं जानते- ज्यादातर लोगों का एक प्रचलित नाम होता है;
जैसे, मुझे ‘मोनू’ नाम से जाना जाता है- बहुत-से लोग नहीं जानते होंगे कि ‘जयदीप’
कौन है) की दूकान से “सोलर सिस्टम” का दाम तय कर आया। जाते समय मैंने देखा था- ए.टी.एम. खुला
था, मगर आते वक्त पता चला- खराब हो गया है! यह शायद यहाँ का रिवाज है- जैसा कि
बबलू (मेरा छोटा भाई) बताता है। अगले कुछ दिनों तक इसका शटर नहीं ही उठा!
हाँ, अगले दिन से शाम के वक्त थोड़ी बूँदा-बांदी होने लगी,
जिससे मौसम अच्छा रहने लगा था।
ननिहाल
का गंगाघाट
गंगाजी में डूबे 'बुर्ज'. अभी जलस्तर ऊँचा होने के कारण बुर्ज का कम ही हिस्सा दीख रहा है . |
राजमहल में मेरा नानीघर गंगाजी के किनारे है- ‘नीलकोठी’
इलाके में। अब तो नानी नहीं रहीं- मँझले नाना-नानी हैं- उम्र के नवें दशक में।
मामा-मामियों के अलावे छोटी मौसी भी हैं। उन्होंने ही बुलाया था। शिकायत थी कि
शहीद मिस्त्री ने मकान बनाते समय कई गलतियाँ कर दी हैं। शहीद बरहरवा का
राजमिस्त्री है, मेरा घर उसीने बनाया है। मौसी को उसका नाम मैंने ही सुझाया था।
मिट्टी की प्याली में चाय की चुस्की. तीनपहाड़ स्टेशन के बाहर. |
मंगलवार, 4 सितम्बर की सुबह ‘गया पैसेन्जर’ से शहीद के साथ
ही मैं रवाना हुआ। दिन बदली वाला था- धूप नहीं थी। तीनपहाड़ स्टेशन से राजमहल के
लिए शटल ट्रेन चलती है- अभी खुलने में आधा घण्टा समय था। हम स्टेशन के बाहर गये-
चाय पीया हमने और एक आदर्श कस्बाई बाजार का चक्कर लगाया, जहाँ जरुरत की हर चीज एक
छोटे-से वृत्ताकार दायरे में मौजूद थी।
तीनपहाड़ बाजार में एक टिपिकल नाश्ता दूकान. |
घाट पर पानी में आधे डूबे हुए किले के विशालकाय अवशेष (बुर्ज)
बचपन से ही मुझे रोमांचित करते हैं।
जीप
की छत पर
वापसी के लिए हम एक टेम्पो पकड़ कर उधवा आये- वहाँ से दूसरी
सवारी पकड़नी थी। पता चला, एक दुर्घटना के बाद दिग्घी के पास सन्थालों ने रास्ता
जाम कर दिया है- गाड़ी ‘सुरंगा’ होकर बरहरवा जायेगी (सुरंगा एक बस्ती का नाम है)।
चाय पीने के चक्कर में एक जीप बरहरवा की ओर चल पड़ी। अब टेम्पो से जाना था- वह अन्य
यात्रियों की राह देख रहा था।
हम टहलते हुए आगे बढ़े, तो देखा वही जीप कुछ दूरी पर खड़ी है।
कुछ कदम चलने के बाद शहीद ने ड्राइवर को पहचान लिया- वे बरहरवा के रतनजी थे। पास
पहुँच कर शहीद ने कहना शुरु किया, “क्या रतन भैया, हमलोग कितने देर से आवाज लगा रहे हैं- आप
सुनबे नहीं कर रहे हैं। हमलोग यहीं रहेंगे क्या? मोनू भैया यहीं रहेंगे?”
रतनजी ने एकबार मुझे और एकबार भरी हुई जीप को देखा- जगह
नहीं थी। जीप की छत पर तीन ही लोग थे- हम बैठ सकते थे। मैंने यही कहा। रतनजी को
बुरा भी लगा- मोनू जीप की छत पर बैठेगा! मगर और कोई उपाय नहीं था। शहीद और मैं जीप
की छत पर बैठ गया। कुछ दूर चलने के बाद एक सीट खाली होते ही रतनजी ने मुझे नीचे बुला
लिया।
केलाबाड़ी से पहले ही उधर से आ रही जीपवाले ने खबर दे दी-
जाम हट गया है। केलाबाड़ी के बाद कुछ देर के लिए झमाझम बारिश हुई। शहीद तथा कुछ और
लोग ऊपर ही थे। रतनजी ने झट प्लास्टिक की एक शीट ऊपर बढ़ा दी- “इसको ओढ़कर आपलोग
बैठ जाईये।”
‘शिक्षक
दिवस’
हम कुछ दोस्तों ने कार्यक्रम बनाया था- ‘शिक्षक दिवस’ के
अवसर पर “कुमुद बाबू” से मिलने का। कुमुद बाबू उच्च विद्यालय के हमारे
प्रधानाध्यापक रहे हैं- वे इलाके में बहुत प्रसिद्ध हैं। घर तो उनका तीनपहाड़ के
पास काजीगाँव में है, मगर वे मालदा में रह रहे हैं- अवकाशप्राप्ति के बाद से।
3 की ही रात सतीश ने जगदीश बाबू (आप भी हमारे शिक्षक रहे
हैं- अभी फरक्का में रहते हैं) से फोन पर कुमुद बाबू का फोन नम्बर ले लिया था। मगर
डर के मारे कुमुद बाबू को फोन करने की मेरी हिम्मत नहीं हुई थी। (सोचिये, 28 साल पहले
हमने हाई स्कूल छोड़ा है, मगर आज भी हम अपने हेडमास्टर साहब से खौफ खाते हैं!)
मैंने सतीश को कहा था- फोन करने- वह अभी खुद शिक्षक है, मगर उसने नहीं किया।
खैर, 4 की रात फोन करना ही था कि कल हम आपके कुछ
पूर्व-विद्यार्थी आपके पास आना चाहते हैं। सो, मैंने किया। पता चला, अभी वे
कोलकाता में हैं। इस प्रकार, मालदा का कार्यक्रम रद्द हो गया।
3 की ही शाम मैं उच्च विद्यालय के अपने वरिष्ठतम शिक्षक
हजारी बाबू से मिल आया था, वे मेरे पिताजी के भी शिक्षक रहे हैं। मैंने उन्हें
‘नाज़-ए-हिन्द सुभाष’ की एक प्रति भेंट की थी।
बुधवार, 5 सितम्बर, शिक्षक दिवस वाले दिन सबसे पहले मैं
‘नाज़े-हिन्द’ की प्रति लेकर भागीरथ बाबू के पास गया- कॉलेज के रसायनशास्त्र के
प्राध्यापक। आज वे “नैनो” टेक्नॉलॉजी के एक जाने-माने वैज्ञानिक हैं। मैं इण्टर की
पढ़ाई छोड़कर ’85 में भारतीय वायु सेना में शामिल हो गया था। ट्रेनिंग समाप्त होने
के बाद मैंने ’87 की परीक्षा देनी चाही- कला विषयों के साथ। तब भौतिकीशास्त्र के
प्राध्यापक (श्यामकिशोर बाबू) और गणित के प्राध्यापक (सुबोध बाबू) ने मेरे आवेदनपत्र
पर “अनापत्ति” दे दी थी, मगर भागीरथ बाबू ने मना कर दिया था। उनका सीधा
कहना था- “साइन्स नहीं पढ़ोगे तो क्या घास-पात लिटलेचर पढ़ोगे?”
वायु सेना स्थल आवडी (मद्रास) के ‘बिल्लेट’ (बैचेलर आवास) में तीन या
चार महीने खुद तैयारी करके आखिर मैंने विज्ञान विषयों के साथ ही इण्टर की परीक्षा
दी थी। मैंने कोई ‘ट्यूशन’ नहीं ली
थी और इस कारण ‘कैलकुलस’ ठीक से समझ नहीं पाया था। गणित में 2 अंकों के ‘ग्रेस’ के
साथ कुल 42.5 प्रतिशत अंक मैंने हासिल किये थे। हाँ, ‘प्रैक्टिकल’ के समय सीनियर
छात्रों ने मुझे जान-बूझ कर आसान विषय दिया था।
खैर। फिर मैं कॉलेज गया- अभी डी.एन. वर्मा प्रभारी
प्राचार्य हैं- वे जाने-माने इतिहासकार हैं। मैंने ‘नाज़े-हिन्द’ की उस प्रति पर
लिखा था- ‘मेरे महाविद्यालय के पुस्तकालय के लिए’। पढ़कर वे हँसने लगे। बोले, “इसे आज तो मैं
पुस्तकालय में नहीं दूँगा, कल भी नहीं, और परसों भी नहीं...” मैं समझ गया।
मैंने कहा, “हाँ, आप पढ़ने के बाद ही दीजिये सर, यह आपही का विषय है।”
अन्त में मैं अपने प्राथमिक विद्यालय श्री अरविन्द पाठशाला
गया। मेरे चाचाजी यहाँ प्रधानाध्यापक हुआ करते थे- तब इस विद्यालय का बड़ा नाम था। यहाँ
के वर्तमान शिक्षकों में से ज्योतिन सर, श्याम सर तथा निर्मल सर ने मुझे पढ़ाया है।
मैंने वहाँ अनुरोध किया कि शनिवार के दिन आधे घण्टे के लिए सभी विद्यार्थियों को
इकट्ठा करके एक विद्यार्थी द्वारा ‘नाज़े-हिन्द’ के कुछ पन्ने पढ़वाये जायें।
शस्यश्यामला
धरती
वृहस्पतिवार, 6 सितम्बर को मुँह-अन्धेरे 3 बजे ही हम बरहरवा
के रेलवे स्टेशन पर थे- चुँचुड़ा (Chinsura) जाने के लिए। यह कोलकाता के निकट एक शहर है, जहाँ मेरी
चचेरी बहन रहती है, जिसके “ठहाकों” के हम सभी मुरीद हैं।
हमने ‘अपर इण्डिया’ (वाराणसी-सियालदह एक्सप्रेस को अक्सर
उसके पुराने नाम से ही यहाँ पुकारा जाता है। पहले यह दिल्ली तक चलती थी। पता नहीं,
इतनी अच्छी ट्रेन को क्यों खराब कर दिया गया!) छोड़ दी- क्योंकि हमें बर्द्धमान
उतरकर चुँचुड़ा के लिए लोकल ट्रेन पकड़नी पड़ती। घण्टे भर बाद ‘दानापुर फास्ट
पैसेन्जर’ आयी- हम उसी में सवार हुए। इस ट्रेन का सही समय रात ग्यारह बजे का है,
मगर यह आती है भोर तीन-चार बजे ही।
कोई पौन घण्टे बाद ही हमारी ट्रेन बंगाल की शस्यश्यामला
घरती पर दौड़ रही थी। धान के हरे-भरे खेत, कास के सफेद फूलों के झुरमुट,
‘ग्राम-बाँग्ला’ की छोटी-छोटी झोपड़ियाँ पीछे छूटती जा रही थीं। आकाश काले-काले
बादलों से घिरा था, ठण्डी हवायें चल रही थीं, रह-रह कर रिमझिम वर्षा भी हो रही थी।
आस-पास के दृश्यों को देखकर मैंने आविष्कार किया कि बंगाल
को “शस्यश्यामला” धरती इसलिए कहते हैं कि यहाँ “कंक्रीट के जंगल” खड़े करने के बाद
भी लोग पेड़ों तथा तालाबों के प्रति अपना मोह नहीं त्यागते हैं- गाँवों से लेकर
मेट्रो शहरों तक ऐसा होता है।
ट्रेन में बहुत कम यात्री थे, मगर शौचालय बुरी दशा में थे। देर
रात या भोर रात के वक्त बिहार से होकर गुजरने वाली ट्रेनों में- खासकर पैसेन्जर
ट्रेनों- में ऐसा होना सामान्य बात है। रामपुरहाट या इससे पहले के किसी स्टेशन पर
शौचालय की सफाई हुई।
दोपहर हम बहन के घर पहुँचे। बरसाती हवाओं के असर से अंशु और
अभिमन्यु दोनों को बुखार हो गया था। केमिस्ट से दवा लाया। केमिस्ट ने खुद ही कम
पावर वाली सिर्फ एक दवा दी और वह भी एक ही दिन के लिए। अगले दिन दूसरे केमिस्ट ने
भी वही दवा दी और एक ही दिन की। इस दवा से दोनों को आराम भी मिला।
मेरे पेट में कभी-कभार दर्द होता है। पूर्णिया में दो बार अल्ट्रासाउण्ड
करा चुका हूँ- कोई शिकायत नहीं मिली। यहाँ के अच्छे स्कैन सेण्टर में भी जाँच
कराना चाहा। मगर वहाँ 11 सितम्बर, मंगलवार की तारीख मिली। सो इरादा छोड़ दिया।
शुक्रवार, 7 सितम्बर की शाम अंशु, मुनमुन (मेरी बहन) और
मीतू (बरहरवा में हमारे पड़ोसी सन्तोष भैया की बेटी, जो श्रीरामपुर में पढ़ती है और
जिसे यहाँ बुला लिया गया था) बाजार गयी- थोड़ी खरीदारी करने। घर में अभिमन्यु और
टारजू (भांजा) कम्प्यूटर से चिपके रहे, नाड़ू (मुनमुन के पतिदेव) टीवी पर बँगला
धारावाहिक देख रहे थे और मैं कुछ पढ़ने में व्यस्त रहा।
ट्रेन में "बाउल गान". |
‘पारासिटामोल’
बनाम ‘बेलाडोना’
शनिवार, 8 सितम्बर की सुबह 8:40 पर वापसी के लिए जिस
पैसेन्जर ट्रेन में हम बैठे, उसका प्रचलित नाम “बरौनी” है। हालाँकि
मुनमुन ने दोपहर 12:40 पर “दानापुर फास्ट पैसेन्जर” से ही जाने की
सलाह दी थी। उसकी सलाह न मानकर हमने गलती की। इस ट्रेन ने हमें खूब झेलाया। ऊपर से
तेज गर्मी एवं ऊमस। और जब गर्मी-ऊमस ज्यादा हो, तो स्वाभाविक रुप से ट्रेन में
भीड़-भाड़ ज्यादा होती ही है!
नौ घण्टे की उबाऊ सफर के बाद शाम पाँच बजे घर आकर अंशु ने
बिस्तर पकड़ लिया। अभिमन्यु की तबियत भी ठीक नहीं थी। भाग्यवश मुझे सरदर्द नहीं हुआ।
अगली सुबह मैं अररिया लौटना चाहता था, सो शाम मैं फिर ऐलोपैथिक दवा ले आया, ताकि
दोनों चैन से सो सकें और कल यात्रा कर सकें। अशोक भैया (इनकी बड़ी एवं प्रसिद्ध दवा
दूकान है) ने तीन दवायें दीं- पाँच दिनों की। पहली दवा को अंशु ने पहचान लिया- वह
‘पारासिटामोल’ थी- हालाँकि नाम अलग था। अभिमन्यु को रात हमने आधी-आधी गोलियाँ दीं,
जबकि अंशु ने तीन पूरी गोलियाँ ले ली। अभिमन्यु तो जैसे-तैसे सो गया, मगर अंशु रात
भर तेज बुखार के कारण अनर्गल बोलती रही। गर्मी और प्यास से भी वह परेशान रही।
सुबह पिताजी को पता चला, तो वे बोले, “हमसे दवा लेनी थी।” पिताजी
होम्योपैथ डॉक्टर हैं। उन्होंने बेलाडोना और रसटॉक्स देने को कहा। 30 पावर की
दवायें थीं। उन्होंने तो घण्टे-घण्टे में दवा लेने को कहा, मगर मैं जानता था कि 30
पावर की दवा को 10-10 मिनट पर भी लिया जा सकता है- अगर तकलीफ की तीव्रता ज्यादा हो
तो! मैंने इसी तरह दवा लेने को कहा। शाम तक जब दोनों की तबियत ठीक होने लगी, तब
मैंने ऐलोपैथिक दवायें लौटा दीं।
हड़बड़
वापसी
ट्रेन से खींची गयी एक तस्वीर. |
रविवार, 9 सितम्बर को तो खैर, सफर करने का सवाल ही नहीं था।
सोमवार, 10 को भी दोनों सफर के लायक फिट नहीं थे। वर्ना हम भोर 3:30 वाली ‘अपर
इण्डिया’ से साहेबगंज के लिए रवाना होने वाले थे। (बरहरवा जंक्शन पर ‘अप’ व ‘डाऊन’
दोनों ‘अपर इण्डिया’ का समय 3:30 के आस-पास है और अक्सर दोनों एक ही समय में
अलग-अलग प्लेटफार्मों पर विपरीत दिशाओं में मुँह किये खड़ी रहती है!)
साढ़े नौ बजे करीब मैंने अररिया में बैंक की अपनी शाखा के
हेड-कैशियर साहब को फोन किया कि आज मैं शाखा नहीं आ पा रहा हूँ। उन्होंने कहा कि
कोई बात नहीं, कल-परसों आ जाओ। दोनों की तबियत ठीक हो जाने दो। साथ में उन्होंने
यह भी बताया कि मैडम ने भी तीन दिनों से छुट्टी ले रखी है। यह सुनकर मैं चिन्तित
हुआ कि सारा बोझ उनपर पड़ गया है। मैंने अंशु और अभिमन्यु को यह बात बताई और पूछा-
अभी निकल पड़ें? आज रात तक अररिया पहुँच जाने से मैं मंगलवार, 12 को आराम से ड्यूटी
शुरु कर सकता था। दोनों तैयार हो गये।
मैं झट स्टेशन गया। (स्टेशन सौ-डेढ़ सौ कदमों की दूरी पर है।)
पता चला, रामपुरहाट-साहेबगंज पैसेन्जर गुमानी आ रही है- यानि हमारे पास 15-20 मिनट
समय था।
हमलोग जल्दी से तैयार होकर स्टेशन पहुँचे। बबलू ने पहले
जाकर टिकटें ले ली। सन्तोष भैया पीछे से ढेर सारी मिठाईयाँ तथा कचौड़ी लेकर पहुँचे।
(माँ ने अलग ही नाश्ता पैक कर दिया था।) उन्होंने मिठाई की नयी-नयी दूकान खोली है
और हमने बड़े शौक से ढेर सारे “लौंगलता” उनके यहाँ से लेकर खाये थे। एकरोज पुतुल दी आयी थी, उन्हें
भी मैंने दस लौंगलता लाकर दी- कहा, कहा- पाँच अनिदी को दे दीजियेगा। अनिदी मेरी
छोटी दीदी हैं, जबकि पुतुल दी चचेरी बहन हैं- दोनों फरक्का में हैं।
खैर, साढ़े दस बजे करीब हमारी ट्रेन चली। सुहाना मौसम था।
बरसाती बादल छाये थे। रह-रह कर बारिश भी हो रही थी। चूँकि मौसम सुहाना था, इसलिए
स्वाभाविक रुप से ट्रेन में भीड़ नहीं थी! हाँ, ट्रेन अपनी स्वाभाविक रफ्तार से चल
रही थी- कहीं दस मिनट, तो कहीं बीस मिनट और कहीं 30 मिनट रुकते हुए! तीन घण्टे में
साठ किलोमीटर की दूरी तय करके हम साहेबगंज पहुँचे।
शाम
की ट्रेन छूट गयी
हमारा स्टीमर साहेबगंज घाट पर तैयार खड़ा है. इसकी डेक पर पत्थर लदे ट्रक सवार होते हैं. यात्री ऊपर के हिस्से में रहते हैं. |
स्टीमर में इंजन का मरम्मत चल रहा था- थोड़ी देर हो गयी। रही-सही
कसर मनिहारी घाट से चलने वाले टेम्पो वाले ने पूरी कर दी- वह कटिहार रेलवे स्टेशन
के बजाय बस अड्डे पहुँच गया। शाम 5:30 वाली ट्रेन छूट गयी।
अगली ट्रेन 7:45 पर चली। दस बजे रात हम अररिया स्टेशन पर
उतरे और करीब पौने ग्यारह बजे रात हम अपने डेरे पर थे।
हफ्ते भर की हमारी छुट्टी समाप्त हो गयी थी!
स्टीमर की छत पर "झाल-मूढ़ी" |
पुनश्च:
दिसम्बर में जब मैं फिर घर गया, तब पता चला कि ट्रान्सफार्मर के लिए जो चन्दा वसूली हो रही थी, वह "भूतपूर्व"-विधायक जी की जानकारी में हो रही थी. वर्तमान विधायक जी ने न केवल खराब 1 केवीए के ट्रान्सफार्मर के बदले 2 केवीए का ट्रान्सफार्मर लगवा दिया, बल्कि लोगों से पूछ्कर सुनिश्चित भी किया कि चन्दे के रुप में उनसे वसूले गये पैसे उन्हें वापस मिले या नहीं!
दिसम्बर में जब मैं फिर घर गया, तब पता चला कि ट्रान्सफार्मर के लिए जो चन्दा वसूली हो रही थी, वह "भूतपूर्व"-विधायक जी की जानकारी में हो रही थी. वर्तमान विधायक जी ने न केवल खराब 1 केवीए के ट्रान्सफार्मर के बदले 2 केवीए का ट्रान्सफार्मर लगवा दिया, बल्कि लोगों से पूछ्कर सुनिश्चित भी किया कि चन्दे के रुप में उनसे वसूले गये पैसे उन्हें वापस मिले या नहीं!