गुरुवार, 21 मार्च 2019

207. होली'2019


राजन जी के साथ, जो कभी होली की सुबह 'स्वांग' रचा करते थे...

हमारे इलाके में होली को दो भागों में मनाते हैं- पहले भाग में सुबह से दोपहर तक पानी वाले रंग से होली खेलते हैं और दूसरे भाग में शाम को गुलाल से। ऐसी परम्परा देश के किन-किन हिस्सों में है, यह नहीं पता। जाहिर है कि पहले भाग में लोग पुराने कपड़े पहनते हैं और दूसरे भाग में नये (या अच्छे) कपड़े। पहले भाग में 'भर फागुन बुढ़वो देवर लागे' वाला सिद्धान्त काम करता है- यानि जिन्हें हम मुहल्ले में चाचा कहते हैं, या जो उम्र में बड़े होते हैं, वे भी हमप्याला-हमनिवाला बन जाते हैं। रंग भी डालते हैं एक-दूसरे पर। बच्चे भी बड़ों पर पिचकारी मारने से नहीं चूकते; मगर शाम को नजारा उल्टा हो जाता है- बड़ों के चरणों पर गुलाल लगाया जाता है और छोटों के मस्तक पर। हमउम्र की बात अलग होती है- जैसे दिन में पानी वाला रंग एक दूसरे पर डालते हैं, वैसे ही गुलाल से भी एक-दूसरे को सराबोर कर सकते हैं। 
        पूर्वार्द्ध वाली पानी के रंग वाली होली के भी तीन चरण होते हैं। शुरुआत बच्चे करते हैं। नौ-दस बजते-बजते उनका जोश कुछ ठण्डा पड़ने लगता है, तब बड़ों की होली शुरु होती है। 

बड़े होली खेलते कम हैं, कहीं कोना पकड़ कर खाने-पीने में मस्त रहते हैं। इनका जोश भी एक-दो बजते-बजते ठण्डा पड़ जाता है- ये घरों में लौटने लगते हैं। 


इसके बाद शुरु होती है महिलाओं-गृहिणियों की होली। बड़ी लड़कियाँ भी इनमें शामिल रहती हैं। तब तक रसोई में पकवान बनाने का काम सम्पन्न हो चुका होता है। पानी वाले रंग का असली इस्तेमाल या तो बच्चे करते हैं, या फिर ये महिलायें करती हैं। 

जहाँ तक नौजवानों की बात है, ये होली खेलते कम हैं और हुड़दंग ज्यादा मचाते हैं। कई बार तो 'कपड़ा फाड़' होली पर उतारु हो जाते हैं ये।
       सोच रहे हैं, इस साल की होली के बहाने कुछ यादों को भी रतोताजा कर लें...
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       होली की सुबह सबसे पहले लोग चौक-चौहारों की दीवारों पर नजर डालतेथे कि "बुरा न मानो, होली है" वाला पोस्टर चिपका है या नहीं। ये पोस्टर आधी रात में चिपकाये जाते थे। इनमें मुहल्ले के गणमान्य लोगों की कमियाँ खोज-खोज कर उन्हें बड़े ही तीखे और चुटीले अन्दाज में लिखा जाता था। माने, धज्जियाँ उड़ा दी जाती थीं! इस परम्परा का सन्देश यही था कि लोग अपनी कमियों को जान जायें और अपने में सुधार लायें, पर कई बार कई लोग वाकई बुरा मान जाते थे। ऐसे न सुधरने वालों की फजीहत हर साल होली में और ज्यादा होती थी। कई साल हम भी इस गोपनीय मिशन में शामिल रहे थे। जाहिर है, वह "राजन-इकबाल" वाला जमाना था। आधी रात में घरों से चुपके से निकल कर कोई आधा दर्जन पोस्टर मुहल्ले भर में चिपकाने का एक रोमांच था। सुबह भोले बन कर उन पोस्टरों को पढ़ते हुए जिक्र करना कि अबे कौन लिख कर चिपका गया है इन्हें- इसका भी एक अलग मजा था। कोई वाकई बुरा मान जाये, या तिलमिला जाये, तो फिर बोनस!
       जो "महामूर्ख सम्मेलन" हुआ करता था, उनमें भी ऐसी सूचियों को बाकायदे माईक पर पढ़ा जाता था। अब न ऐसे पोस्टर बनाये जाते हैं और न ही अब होली की पूर्व सन्ध्या पर महामूर्ख सम्मेलन आयोजित होते हैं। महामूर्ख सम्मेलनों की कुछ यादों पर बाद में फिर कभी लिखा जायेगा।
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       दो-एक बार ऐसा हुआ था कि होली की सुबह- अहले सुबह- कोई चिमटाधारी साधू-फकीर या कोढ़ी भिखारी दरवाजे पर हाजिर हो जाता था। फकीर की दुआओं से कभी कोई महिला प्रभावित होती, तो कभी कोई महिला भिखारी को दुत्कारती। नौ-दस बजते-बजते भेद खुलता कि धत्त तेरे की- यह तो "रजनवा" का स्वांग था। यानि राजन जी की कारस्तानी थी। कई बार खुद कोई स्वांग न करके वे किसी दूसरे लड़के को कुछ और बना कर यह ड्रामा करते थे। यह बता दें कि स्वांग के लिए राजन जी फुलप्रूफ तैयारियाँ किया करते थे- एकबारगी उन्हें पहचान पाना मुश्किल होता था!
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       होलिका दहन के लिए जो लकड़ियाँ इकट्ठा करते थे हमलोग, उसका एक खास ढर्रा बन गया था। दोपहर बाद"यमुना भगत" के घर से बैलगाड़ी माँग कर लायी जाती थी- सिर्फ "गाड़ी", बैल नहीं। बैलों का काम हम्हीं लोग करते थे। भगत जी कुछ बड़े लड़कों को जिम्मेदारी दे दिया करते थे कि गाड़ी को नुकसान न पहुँचाया जाय। अब इस गाड़ी को लेकर हो-हल्ला करते हुए हमलोग दो-तीन मुहल्लों में घूमते थे और घरों से लकड़ियाँ, गोयठा (उपले) पुआल इत्यादि इकट्ठा करते थे। कई ट्रिप लगते थे- इसी में अन्धेरा हो जाता था। खेतों के बीच एक स्थान पर सब जमा कर "सम्मत" जलाया जाता था। हाँ, सम्मत के बीचों-बीच रेंड़ी (अरण्डी) का एक पेड़ रोपने की परम्परा था- पता नहीं क्यों।
       कई साल इसमें भी कई बदमाशियाँ हुईं- एक बार लाख मना करने के बावजूद "जयश्री टॉकीज" के जेनरेटर रूम की छत पर चढ़ कर टूटी-फूटी कुर्सियाँ उतार ली गयी थीं; एक बार महावीर भगत के आँगन से पेड़ का तना लाकर जलती सम्मत में डाल दिया गया था- उनकी आँखों के सामने; एक बार "कल्याण क्रिश्चियन" की बाड़ का एक हिस्सा उखाड़ कर जला दिया गया था- इसी तरह और क्या। जो आदमी जितना टेढ़ा होता, उसे उतना ही नुकसान पहुँचाने की कोशिश होती- स्वाभाविक रुप से।
       सम्मत यानि होलिका अब भी जलती है, पर अब बैलगाड़ी नहीं होती। मुहल्ले के किशोर लड़के कई दिनों पहले से ही थोड़ा-थोड़ा करके जलने लायक चीजें जमा कर देते हैं। खेत-खलिहान तेजी से घट रहे हैं और उन पर मकान दर मकान बनते जा रहे हैं। देखा जाय, और कितने वर्षों तक होलिका दहन चलता है।
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       एक "जोगीरा" गाने वाली परम्परा भी थी। होली से हफ्ते भर पहले यह शुरु होता था। एक नाचने वाले "जानी" (स्त्री की वेशभूषा में नृत्य करने वाला पुरूष, जिसे होली के गानों में "जोगी जी" कहते हैं- पता नहीं क्यों) को लेकर कुछ लोग ढोल-मंजीरा लेकर होली के लोकगीत गाते हुए दरवाजे-दरवाजे घूमते थे। ये लोग रात में आते थे- कई बार हम बच्चे नीन्द से उठ कर बाहर आते थे। आखिरी रात- यानि होलिका दहन वाली रात- ये लोग थोड़े-बहुत पैसे माँगते थे।
       अब गाने-बजाने वाले कम रह गये हैं, फुर्सत भी किसी के पास नहीं है। हमलोगों ने दो साल पहले एक शॉर्टकट अपनाया था। "विषहरी गान" में स्त्री भूमिका निभाने वाले चार "जानी" को बुलवाया था, एक डीजे बुक किया था और आजमगढ़ तरफ के बढ़िया "जोगीरा", "होरी" और "फाग" गानों का एक संकलन तैयार किया था। दो साल पहले जब यह जुलूस निकला था, तो बाजार में रौनक आ गयी थी। पिछले साल यह आयोजन नहीं हो सका। इस साल फिर किया, मगर सब कुछ फीका-फीका रहा। यानि अगले साल से यह कार्यक्रम बन्द!
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(फिलहाल इस आलेख को यहीं तक रखते हैं। बाद में फिर कभी कुछ और बातें जोड़ेंगे।)