मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

"सोलहवाँ बसन्त"





      मेरठ नगर से कुछ दूर एक शहर है- गढ़ मुक्तेश्वर
      वहाँ कुछ बदमाशों ने एक लड़की को तेजाब से बुरी तरह जला दिया था।
      यह 1987 के अगस्त की बात है। लड़की ग्यारहवीं की छात्रा थी।
      बदमाशों ने पहले घर की बिजली काट दी। ऊमस से परेशान होकर परिवार आँगन में सोने आ गया। लड़की की छठी इन्द्रिय ने खतरे की सूचना दी, मगर माता-पिता ने इसे गम्भीरता से नहीं लिया। लड़की एक मोटे चादर से खुद को सर से पाँव तक ढाँपकर सो गयी।
      बदमाश दीवार फाँदकर आँगन में आये, लड़की के मुँह से चादर खींचकर उन लोगों ने ढेर सारा तेजाब लड़की के चेहरे पर डाला और भाग गये।
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      बाद के दिनों में उस लड़की के चेहरे तथा शरीर पर दो-चार नहीं, कुल अट्ठारह ऑपरेशन होते हैं। ज्यादातर मेरठ मेडिकल में, कुछ अलीगढ़ में और कुछ दिल्ली के 'एम्स' में (स्वर्गीय राजीव गाँधी के सौजन्य से)। लड़की जीना चाहती थी, और उससे भी बड़ी बात, उसके पिता उसे हर हाल में बचाना चाहते थे। उनका परिवार मेरठ मेडिकल के बरामदे पर ही रहने लगा था।
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1987 में ही, एक लड़का "मनोहर कहानियाँ" पत्रिका में इस खौफनाक हादसे के बारे में पढ़ता है। इसे एक सामान्य अपराध कथा समझ कर वह इसे भूल भी जाता है।
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1995 में "जनसत्ता" अखबार में वह लड़का फिर उस लड़की के बारे में एक लेख पढ़ता है। उसके दिलो-दिमाग में बिजली-सी कौंधती है। दिमाग उसे आठ साल पहले "मनोहर कहानियाँ" में पढ़ी उस खौफनाक हादसे की याद दिलाता है, तो दिल उसी वक्त फैसला लेता है- अब तो शादी इसी लड़की से करनी है!
"जनसत्ता" के सम्पादक (स्वर्गीय प्रभाष जोशी) के माध्यम से लड़के का पत्र लड़की के पिता तक पहुँचता है। लड़की के पिता को लगता है कि उनकी अधूरे चेहरे वाली बेटी को 'देखने' के बाद शायद लड़का अपना विचार बदल ले, इसलिए वे पहले मेरठ आकर लड़की को देख लेने की सलाह लड़के को देते हैं।
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लड़का तब ग्वालियर में होता है। मेरठ जाकर वह लड़की से मिलता है। लड़की भी उसे पसन्द कर बैठती है। लड़की के साथ हुए हादसे का पूरा वाकया अँग्रेजी पत्रिका "सेवी" में 'कवर स्टोरी' के रुप में छपा होता है। इसका फोटोस्टेट लड़का अपने पिता के पास भेज देता है और अपना निर्णय भी बता देता है।
घर से उत्तर आता है- परम्परा के नाते एकबार लड़की के पिता को लड़के के पिता से आकर मिलना चाहिए। ऐसा ही होता है- लड़की के पिता लड़के के पिता से जाकर मिलते हैं। 
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1996 की "बसन्त पँचमी" के रोज मेरठ में एक सादे समारोह में दोनों का विवाह होता है। दो दिनों बाद लड़के के भी घर में भी एक सादा समारोह होता है। इसके बाद दोनों आसाम की हरी-भरी वादियों में चले जाते हैं। हाँ, तबतक लड़के का तबादला ग्वालियर से तेजपुर में हो चुका था।
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इसके बाद कुछ प्यार, कुछ तकरार, कुछ कष्ट, कुछ खुशियों के बीच दिन गुजरते हैं... और आज वे अपनी विवाह का "सोलहवाँ बसन्त" मना रहे हैं... पन्द्रह साल का एक किशोर बेटा है उनका।
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साथियों, वह लड़की है- अंशु और वह लड़का मैं खुद हूँ- जयदीप।
सुना है कि हमारे पूर्वज बसन्त काल में "मदनोत्सव" मनाया करते थे; यह भी सुना (और देखा भी) है कि "फागुन" के महीने में अच्छे-अच्छे "बौरा" जाते हैं; और आजकल सुना जा रहा है कि आज के दिन (14 फरवरी) को लोग "प्रेम की अभिव्यक्ति" दिवस के रुप में मनाने लगे हैं... तो मैंने भी यह कहानी सुना दी।
क्योंकि मेरे लिए तो यही "प्रेम" है... यही मेरी "प्रेम-कहानी" है...