मेरे ख्याल से, हर व्यक्ति को अपने कैशोर्य एवं नवयौवन में
"नास्तिक" एवं "बागी" होना ही चाहिए! जो ऐसे होते हैं, वही
आगे चलकर "धर्म" के "मर्म" को, "परम्पराओं" के
"निहितार्थ" को समझ सकते हैं। बचपन से ही धर्मपरायण होना
कोई शुभ लक्षण नहीं है- खासकर, "कर्मकाण्डी" तो बिलकुल नहीं होना चाहिए!
हम भी एक "नास्तिक" के रुप में
पिताजी के धर्मिक क्रियाकलापों का विरोध किया करते थे। तब हम "पितृपक्ष"
के बारे में न कुछ जानते थे, न ही जानना चाहते थे। पिछले साल पिताजी गुजर गये। इस
साल हमने पहली बार जानने की कोशिश की कि "पितृपक्ष" क्या है। बेशक,
"कर्मकाण्डी" हम आज भी नहीं हैं, मगर इस पक्ष के प्रति मेरे मन में
श्रद्धा जरुर जाग गयी है। आज ही की बात है, पण्डितजी भोजन कर रहे थे, उन्होंने
बताया कि जिसका एक ही पुत्र होता है, उसे सोमवार को दाढ़ी नहीं बनानी चाहिए। हमने
तुरन्त प्रतिवाद किया और कहा कि आज से ढाई हजार साल पहले ही गौतम बुद्ध यह कह गये
हैं कि किसी गुरूजन की बात को आँख बन्द करके सिर्फ इसलिए मत मान लो कि इसे गुरूजन
ने कहा है। उस बात को तर्क की कसौटी पर कसो और जब अन्तरात्मा सहमत हो, तभी मानो।
...तो इस दाढ़ी न बनाने वाली बात के पीछे हमें कोई तर्क नजर नहीं आ रहा। मेरे हिसाब
से, "श्रद्धा" को भी "तर्कपूर्ण" होना चाहिए! नहीं तो
हमें "अन्धश्रद्धालु" बनते देर नहीं लगेगी!
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खैर, अब एक दूसरी बात। मेरे दादाजी ने 1931
में हमारे कस्बे के मेन रोड पर मुख्य बाजार से कुछ बाहर एक प्लॉट खरीदा था दस हजार
वर्गफीट का। यह पिताजी के जन्म से पहले की बात है। बाद के दिनों में चाचाजी ने आधा
हिस्सा बेच दिया और आज पाँच हजार वर्गफीट का प्लॉट हमारे पास है। हम चाहते थे कि
पिताजी की आँखों के सामने वहाँ एक शानदार भवन बन जाय, मगर वे सिर्फ मेरे द्वारा
बनाये गये "प्लान" को ही देख पाये, जिसे हमने कम्प्यूटर पर (एक पुराने
प्रोग्राम '3-डी होम आर्टिटेक्ट' पर) बनाया था। प्लान देखकर पिताजी ने मुस्कुरा कर
अपना "भरोसा" जता दिया था कि जो भी बनेगा, अच्छा ही बनेगा। हमने यह भी
बताया कि इस भवन को "JMC" नाम देने की
इच्छा है- दादाजी के नाम पर- 'जोगेन्द्र मेमोरियल कॉम्प्लेक्स'।
इस साल उस प्लॉट पर- सामने के हिस्से में- लगभग 1200
वर्गफीट क्षेत्रफल वाले भवन निर्माण का काम
शुरु हुआ। दादाजी के बनवाये दो कमरों के पुराने मकान को तोड़ा गया। अफसोस कि
तुड़वाने से पहले उस मकान की तस्वीर लेने की सुध हमें नहीं रही। निर्माण शुरु होने
के बाद बीच-बीच में तस्वीरें ले रहे हैं। हमलोग आर्थिक रुप से बहुत सक्षम तो नहीं
है, फिर भी अपने "पितरों के आशीर्वाद के भरोसे" काम चलाये जा रहे हैं और
यह उम्मीद करते हैं कि यहाँ एक शानदार भवन बनेगा।
यह भवन ही देखा जाय, तो हमारा पितरों के
प्रति "तर्पण" होगा...
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पुनश्च:
जब
हम पिताजी के धार्मिक या आध्यात्मिक क्रिया-कलापों पर सवाल उठाते थे, तब वे (आम
तौर पर) स्पष्टीकरण नहीं देते थे। उन्हें लगता होगा- समय आने पर हम खुद अपने
सवालों के उत्तर खोज लेंगे। उन्हें ऐसा इसलिए लगता होगा कि वे खुद अपनी युवावस्था
में नास्तिक हुआ करते थे। एक उम्र के बाद वे आध्यात्मिक हुए। जहाँ तक दादाजी की
बात है, मेरा अनुमान है कि जीवन के उत्तरार्द्ध या अन्तिम दिनों में भी वे धार्मिक
या आध्यात्मिक प्रवृत्ति के नहीं हुए होंगे।
आज हम पुत्र अभिमन्यु की नास्तिकता को
देखकर मन ही मन प्रसन्न होते हैं। एक उम्र के बाद वह बिलकुल "अपने ढंग से"
धर्म एवं पराम्पराओं को समझेगा।
ऐसे ही हर व्यक्ति को अपना
"सत्य" खुद खोजना चाहिए... लकीर का फकीर बनने में जीवन की कोई सार्थकता
नहीं है!
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