रविवार, 10 नवंबर 2013

94. हाथ के बने ग्रिटिंग कार्ड्स



       एक समय मैंने "खजुराहो स्पेशल "ग्रिटिंग कार्ड्स" बनाये थे- वह भी हाथ से! एक ही जैसे चित्र बहुत सारे कार्ड्स पर बनाने के लिए बेशक, मैंने अपनी एक तकनीक विकसित कर ली थी, फिर भी, यह मेहनत का काम था। दूसरी तरफ कुछ पंक्तियाँ लिखनी भी थीं।
       कुछ कार्ड्स मेरे पास बच गये हैं। हाल में सफाई करते वक्त ये निकल आये थे। नमूना देखिये:-







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       इससे भी ज्यादा मेहनत वाले कार्ड्स भी मैंने एकबार बनाये थे। इसमें अपने ही खींचे हुए कुछ फोटोग्राफ्स के प्रिण्ट का मैंने इस्तेमाल किया था:-

      
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       एक सामान्य और कम मेहनत वाला कार्ड:- 


93. अन्ततः...



       अन्ततः मेरे पैसे मेरे खाते में आ ही गये। अगर एक दिन और देर हो जाती, तो फिर पता नहीं, कितना लम्बा चक्कर लग जाता।
       बात यूँ है कि पिछले साल सितम्बर में मेरा एक के.वी.पी. (किसान विकास पत्र) परिपक्व हुआ था। बड़े पापड़ बेलने के बाद 11 महीनों बाद- इस साल अगस्त में- डाकघर से मुझे चेक मिला। चेक को बैंक में जमा कर मैंने चैन की साँस ली कि अब कुछ दिनों में पैसे मेरे खाते में आ जायेंगे।
       मगर नहीं। दो महीने से कुछ ज्यादा समय बीतने के बाद- जब चेक की वैधता खत्म होने में सिर्फ चार दिन बाकी थे, तब यह चेक लौट आया। पता चला कि यह गया तो सही शहर में था, मगर गलत शाखा में। यह गलती इसलिए हुई कि चेक पर शाखा का 'कोड' न तो छपा था, न ही शाखा-कोड का मुहर लगा था। वैधता का अन्तिम दिन छुट्टी का दिन था।
       मैं खुद चेक लेकर उस शहर की सही शाखा में गया, तब राशि मेरे खाते में आयी।
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       इस अनुभव के बाद मुझे "रविवार" के एक लेख की याद आयी। लेख किसी विदेशी ने लिखा था। लेख में भारतीय डाकघर के साथ हुए अपने व्यक्तिगत कटु अनुभव का जिक्र करते हुए लेखक ने भारतीय सरकारी दफ्तरों की लापरवाह कार्यशैली का विशद वर्णन किया था। लेख का शीर्षक था- "ये लकीर के फकीर, देश का क्या भला करेंगे?"
       बता दूँ कि कोलकाता से प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक पत्रिका "रविवार" कभी बहुत ही लोकप्रिय पत्रिका हुआ करती थी। बाद में, जब इसने केन्द्र सरकार का 'मुखपत्र' बनने की कोशिश की, तो इसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया! मैं जिस लेख का जिक्र कर रहा हूँ, वह तीस साल से भी पहले छपा होगा। (अनोखे शीर्षक के कारण यह मेरे अवचेतन मस्तिष्क में दर्ज था।)
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       सोचता हूँ कि क्या पिछले तीन-चार दशकों में हमारे देश में सरकारी विभागों के काम-काज की शैली में कोई बदलाव नहीं आया है...? दर्जनों बार अनुनय-विनय करने के बाद मई माह में अगर मैंने डाकघर के अधिकारी को उपभोक्ता अदालत जाने की धमकी न दी होती, तो क्या मेरा चेक मिलता? अगर मैं खुद चेक लेकर दूसरे शहर के बैंक में न जाता, तो क्या बैंक इसकी वैधता का नवीणीकरण करवाता? मेरी कहीं कोई गलती नहीं थी, फिर भी, मेरा पैसा मुझे चौदह महीनों के बाद मिला! वर्षों पहले इस पैसे को जमा करने का उद्देश्य यह था कि जब बेटा मैट्रिक पास कर लेगा और आगे की पढ़ाई के लिए कहीं बाहर जायेगा, तो ये पैसे काम आयेंगे। बेटे को मैंने बाहर नहीं भेजा, यह अलग बात है; अगर भेजता, तो दिक्कत होनी ही थी!
       उधर रिजर्व बैंक ने चेक की वैधता की अवधि छह महीनों से घटाकर तीन महीने कर दी- मानो, सरकारी विभागों की कार्य क्षमता में वृद्धि हो गयी हो!
       जबकि सच्चाई, लगता है, वही है, जिसे तीस-पैंतीस साल पहले एक विदेशी ने महसूस किया था-
       "ये लकीर के फकीर, देश का क्या भला करेंगे?"
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शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

92. छठ (2013)



       मेरे घर के नजदीक दो तालाबों में छठ पर्व मनाया जाता है। ऐसे, बरहरवा में और भी दर्जनों तालाबों में छठ का आयोजन होता है, पर नजदीक यही दोनों है। एक जगह भरपूर सजावट के साथ यह आयोजन होता है, दूसरी जगह बिलकुल सादगी के साथ। दोनों के बारे में मैंने इस ब्लॉग में पहले लिखा है।
       यहाँ मैं दोनों ही आयोजनों की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत कर रहा हूँ।
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       पहले जब हमारे घर में कोई छठ नहीं करता था, तब मैं रंजीत के परिवार के साथ इस आयोजन में शामिल होता था। तब यह एक सरल त्यौहार हुआ करता था। रेलवे के विशाल तालाब के किनारे छठ होता था। दुर्गापूजा के बाद ही छठ करने वाले परिवारों के युवक और किशोर तालाब के किनारे खुद ही सफाई करते थे, सीढ़ीनुमा घाट बनाते थे और सजावट करते थे। महिलायें खुद ही छठ के गीत गाती थीं।
       अब समितियाँ बन गयी हैं। उन्हीं के तरफ से घाट बनवाये जाते हैं। सजावट, प्रकाश–व्यवस्था तथा आतिशबाजी (कहीं-कहीं) पर हजारों-हजार रुपये खर्च किये जाते हैं। चन्दा भी उगाहा जाता है। और छठ के गीत? यह तो यह व्यवसाय बन चुका है। दर्जनों गायक-गायिकायें हर साल नये-नये अल्बम जारी करवाते हैं- वे गीत ही सब जगह बजते रहते हैं। इनमें से कुछ धुनें सदाबहार बन जाती हैं। उन धुनों पर कई गीत बनते हैं। उनके बोल समझ में आये, न आये, हर किसी को ये कर्णप्रिय और मधुर लगते हैं। 
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       आम तौर पर छठ को सूर्य की उपासना का व्रत माना जाता है। मगर वास्तव में यह "षष्ठी देवी" का व्रत है, जो शिशु के प्रसव के बाद छह दिनों तक शिशु के साथ ही रहती है। छठे दिन उस देवी की पूजा होती है। यह देवी निराकार है। चूँकि इसकी पूजा सूर्य के वंशजों ने शुरु की इसलिए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।
       यह बात मैं भी नहीं जानता था। ऊपर जिस सादगी वाले आयोजन का जिक्र हुआ है, वहाँ पण्डित जी जब छठ की महिमा बता रहे थे, तब मुझे पता चला।

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       पिछले साल बड़ी दीदी (अररिया) का अन्तिम छठ था; इस साल छोटी दीदी का अन्तिम छठ है, जो फरक्का से यहाँ आकर छठ करती है। अगले साल शायद भाभी छठ शुरु करे।
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जहाँ पूरी सजावट के साथ पूजा होती है... 







जहाँ सादगीपूर्ण पूजा होती है... 





















91. आल्पना-2


       दीवाली के रोज मैंने बताया था न कि मेरी एक भांजी बहुत अच्छा आल्पना बनाती है- यही है वह- नेहा







सोमवार, 4 नवंबर 2013

90. दीपावली पर: एक सन्देश...



रजनीश की एक किताब "उत्सव आमार जाति, आनन्द आमार गोत्र" मेरी पसन्दीदा पुस्तकों में से एक है उसमें एक स्थान पर वे कहते हैं कि कमरे में अगर अन्धेरा भरा हो और हम 'अन्धेरा दूर करने के लिए' बोरे में भर-भर कर अन्धेरे को बाहर फेंकना चाहें, तो हम अन्धेरे को दूर नहीं कर सकते इसके बजाय एक तीली ही जला लें, या दीपक या मोमबत्ती, तो अन्धेरे कमरे में 'प्रकाश आ जाता है' यानि अन्धेरे को दूर करने के बजाय हमें प्रकाश को लाना है अन्धेरे का अपना कोई अस्तित्व नहीं है- "प्रकाश का न होना" ही अन्धेरा है
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इसे "नकारात्मक" और "सकारात्मक" सोच के रुप में भी समझा जा सकता है अगर हम अन्धेरे को दूर करने की कोशिश करते हैं, तो यह नकारात्मक सोच है; और अगर हम प्रकाश को लाने की कोशिश करते हैं, तो यह सकारात्मक सोच है
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दशकों बीत गये, हम आज भी गरीबी हटाने, बेरोजगारी हटाने, अशिक्षा हटाने, कुपोषण हटाने की सोचते हैं, तो हम कहाँ से सफल होंगे? यह तो नकारात्मक सोच है- बोरे में भरकर कमरे के अन्धेरे को दूर फेंकने की कोशिश!
क्यों न हम समृद्धि, खुशहाली लाने; हर हाथ को काम देने; सबको सुसभ्य, सुशिक्षित, सुसंस्कृत बनाने; सबको जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें सुलभ कराने की सोचें...
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कौन जानता है- क्या पता, फर्क पड़ ही जाये........
शुभ दीपावली....
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पुनश्च:
....पिछले कई दशकों से हम एक और नकारात्मक सोच से ग्रस्त हैं वह सोच है- बात-बात में 'धर्मनिरपेक्षता', 'साम्प्रदायिकता', 'अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक', 'सवर्ण-दलित'-जैसे शब्दों का प्रयोग ये सारे शब्द "नकारात्मक" हैं ऐसी सोच जब तक कायम रहेगी, न भारत राष्ट महान बन सकता है और न ही भारतीय समाज उन्नति कर सकता है
हमें सकारात्मक ढंग से सोचना होगा- हम सब भारतीय हैं; ('मानवता' के बाद) 'भारतीयता' ही हमारा धर्म है; हम सब एक हैं, बराबर हैं साथ ही, बिना किसी पक्षपात के हमें 'गलत को गलत' और 'सही को सही' कहना सीखना होगा अपनी तथा अपनों की गलत बातों को सही ठहराने और दूसरों की सही बातों को नजरान्दाज करने की प्रवृत्ति किसी भी राष्ट्र या समाज के लिए घातक है!
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रविवार, 3 नवंबर 2013

89. आल्पना


आल्पना (खल्ली मिट्टी या पीसे हुए चावल को पानी में मिलाकर रूई के फाहे से) बनाने में मेरी दो बुआ (मंझली और छोटी) सिद्धहस्त हैं. मेरी दोनों दीदी भी इस कला में पारंगत हैं. तीसरी पीढ़ी में मेरी छोटी दीदी की बेटी बहुत सुन्दर आल्पना बनाती हैं. 
बरहरवा में करीब-करीब हर घर की लड़कियाँ अच्छा आल्पना बनाती हैं. 
इन्हें किसी तरह के 'ड्राफ्ट' या आरेख की जरुरत नहीं पड़ती. 



यह कला मेरे बस की नहीं है; फिर भी, चॉक से एक आरेख बना दिया है... 
अब देखना है कि श्रीमतीजी इसे कितने सुन्दर आल्पना का रुप दे सकती है...
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तो कुछ ऐसी बनी अल्पना. 

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आज (दीवाली) की रात अगर लक्ष्मीजी हमारे घर आयीं, तो बेशक उन्हें "कितकित" खेलते हुए घर में प्रवेश करना होगा... 

88. "छोटी" का "बड़ा" "घरकुण्डा"!



      आज सुबह छोटी घरकुण्डा सजाने में व्यस्त थी। "घरौंदा" शब्द को बिगाड़कर यहाँ "घरकुण्डा" कहा जाता है। सोचा, जरा देख आया जाय, कैसा घरौंदा बना है। छत पर जाकर देखा- एक बड़ा-सा कमरा बना दिया गया है, जिसमें तीन-चार बच्चे आराम से बैठ सकते हैं! पूछा, घरौंदा तो छोटा होता है, इतना बड़ा किसने बनाया? छोटी ने बताया- भैया लोगों ने बना दिया। यानि अभिमन्यु, शिवम और (पड़ोस के) निकेश ने मिलकर।
       नीचे आकर अभिमन्यु से पूछा, इतना बड़ा घरौंदा क्यों? उसका जवाब था- मुझे क्या पता, घरौंदा क्यों बनता है? मैंने सोचा, पटाखा फोड़ने के लिए बनता है, इसलिए बड़ा-सा बना दिया- ताकि पटाखा फोड़ने में आसानी हो।
       उसे बताया कि लड़कियाँ छोटा-सा घरौंदा बनाकर उसे खील-खिलौनों से भरती हैं, ताकि उसे जो ससुराल मिले, वह भी धन-धान्य से भरा-पूरा रहे।