शनिवार, 26 नवंबर 2011

मेरी पसन्दीदा चार पुस्तकें



बँगला कथाकार "बनफूल" की एक कहानी है- 'पाठक की मृत्यु' (बँगला में- 'पाठकेर मृत्यु') इस कहानी में उन्होंने यह दिखाया है कि एक समय जो पुस्तक हमें अच्छी लगती है, कोई जरूरी नहीं है कि एक अन्तराल के बाद वही पुस्तक हमें फिर अच्छी ही लगे बल्कि कई बार तो आश्चर्य होता है कि इस पुस्तक को एक समय में मैंने पसन्द कैसे किया था? अर्थात् उस 'पाठक' की मृत्यु हो जाती है, जिसने कभी इस पुस्तक को पसन्द किया था  
      खैर, अपनी चारों पसन्दीदा पुस्तकों को मैंने अपने जीवन के अलग-अलग कालखण्डो में पढ़ा है और अब भी इन्हें मैं पसन्द करता हूँ

1. "योगी कथामृत"

इस पुस्तक को मैंने 12-14 वर्ष की आयु में पढ़ा था। इसने मुझे आध्यात्मिक बनाया। वर्ना मैं नास्तिक हुआ करता था। नास्तिकों की तरह बहस भी कभी-कभार किया करता था। मगर इस पुस्तक ने जीवन के प्रति मेरा दृष्टिकोण ही बदल दिया। मेरे अन्दर आस्था तथा विश्वास की एक शक्ति पैदा कर दी इस पुस्तक ने। जबकि इसे मैंने 'समय बिताने' के उद्देश्य से हाथ में लिया था।
दर-असल, "गुरू पूर्णिमा" में मैं बिन्दुवासिनी पहाड़ पर साथियों के साथ स्वयंसेवक के रुप में महाप्रसाद (खिचड़ी, मिली-जुली सब्जी और आमड़े की चटनी) खिलाने में जुटा था। भोज समाप्त होने पर हमलोगों ने भी खाया और उसके बाद भारी वर्षा शुरु हो गयी। हमें रुकना पड़ा। मैंने "झाजी काकू" (पहाड़ के एक सन्यासी "बिल्ल्ट झा जी") से कुछ पढ़ने को माँगा और उन्होंने यही किताब झाड़-पोंछ कर थमा दी।
जब पढ़ने में अच्छी लगी, तो इसे मैं घर ले आया। पिताजी ने भी पढ़ा। उन्होंने कुछ ऐसा प्रचार किया कि बहुत-से लोग इसे मँगवाकर पढ़ने लगे।
हालाँकि सब पर एक जैसा असर नहीं होता। मेरे एक परिचित ने मुझसे सुनकर इस पुस्तक को खरीदा, पर उन्हें अच्छा नहीं लगा। खैर। मुझे तो यह पसन्द है। बाद में, यानि दो साल पहले मैंने 'फ्लिपकार्ट' (Flipcart.com) से इसे फिर मँगवाया। और जब कभी मन होता है कोई एक अध्याय पढ़ लेता हूँ- हृदय में आस्था-विश्वास की भावना और मजबूत हो जाती है। 
यह परमहँस योगानन्द की आत्मकथा है, जिसके अँग्रेजी संस्करण "Autobiography of a Yogi" की गिनती विश्वप्रसिद्ध पुस्तकों में होती है

2. "उत्सव आमार जाति, आनन्द आमार गोत्र" 

 इसे मैंने 20-22 की उम्र में पढ़ा था। इसने मेरे अन्दर तर्क तथा बुद्धि की शक्ति को मजबूत किया।
पुणे में रजनीश का आश्रम देखने गया था मैं। (तब मैं पुणे में था- वायु सेना के लोहेगाँव स्थित यूनिट में- तैराकी के लिए।) हम कुछ भारतीय दर्शनार्थियों को एक सन्यासी अन्दर ले गये और एक गाईड के रुप में सारा आश्रम उन्होंने घुमाया। विदा करने से ठीक पहले, एक बुक स्टॉल पर हमें खड़ा किया गया, वहीं मैंने इस पुस्तक को खरीदा था। यह 1988 की बात है। (पुस्तक पर पड़ी तारीख से दिन भी बता सकता हूँ- 28 अगस्त।)
इस पुस्तक में रजनीश द्वारा 1 जून से 10 जून 1979 के दौरान पुणे में दिये गये प्रवचन संकलित हैं, जो उन्होंने भक्तों द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर के रुप में दिये हैं। एक मानव के दिमाग में जितने तरह के प्रश्न उठ सकते हैं, लगभग उन सबका उत्तर इसमें मिल जाता है। बीच-बीच में मुल्ला नसीरूद्दीन के तथा कुछ अन्य चुटकुले इतना हँसाते हैं कि पेट में बल पड़ जाय!
पुस्तक का शीर्षक किसी बँगला कविता की एक पंक्ति है। सम्भवतः रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता है।
आज भी, कभी-कभार पुस्तक को खोलकर कोई एक अध्याय पढ़ता हूँ और पाता हूँ कि मस्तिष्क तरोताजा हो गया है।

3. "बसेरे से दूर"


इसे मैंने 28-30 की उम्र में पढ़ा था। इसमें लगता है, 'बनफूल' की 'पाठक की मृत्यु' का सिद्धान्त काम कर रहा है। अभी हाल में इसे मँगवाकर जब मैंने इसके पन्ने पलटे, तो उतना रुचिकर नहीं लगा; जबकि पहली बार पढ़ते समय इसने मेरे अन्दर विपरीत से विपरीत परिस्थियों में भी डटे रहने की भावना को बल दिया था। फिलहाल, दो-चार दिनों का फुर्सत मिलते ही मैं इसे फिर से जरूर पढ़ूँगा।
यह "बच्चन" की आत्मकथा का तीसरा भाग है। पहले मुझे यही पढ़ने का मौका मिला था, पहला भाग ('क्या भूलूँ क्या याद करूँ') पढ़ने का मौका बाद में मिला।
वायु सेना में रहते हुए वहाँ के पुस्तकालयों से लेकर मैंने ढेरों पुस्तकें पढ़ी थीं। मैं खुद को भाग्यशाली समझता हूँ कि मुझे यह अवसर मिला और मैं आज भारतीय वायु सेना के प्रति हृदय से कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।

4. "रूद्रप्रयाग का आदमखोर बाघ"


यह अब तक की आखिरी पुस्तक है, जो मुझे पसन्द है। जिम कॉर्बेट की एक अमर रचना। 2003 या 04 में मैंने इसे पढ़ा। पढ़कर रख दिया। दो-चार दिनों बाद जब पन्ने पलटा, तो फिर पढ़ने का मन करने लगा और मैं इसे दुबारा पढ़ गया। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि एक पुस्तक को मैंने दुबारा पढ़ा हो, वह भी उसी चाव से।
इस पुस्तक के रोमांच के बारे में अब क्या बताया जाय! बस इतना जान लीजिये कि एक रात हम कुछ वायुसैनिक ड्यूटी पर थे- एक एकान्त-से भवन में, हल्के-फुल्के जंगलों के बीच। मेरे एक साथी ने मुझसे यह पुस्तक माँगी- पढ़ने के लिए। पढ़ना शुरु भी किया, मगर 10-15 पन्ने भी शायद वे नहीं पढ़ पाये। रोमांच से सिहरकर उन्होंने पुस्तक मुझे वापस कर दी। कहा- आप जब लौटा दोगे, तब पुस्तकालय से लेकर मैं इसे पढ़ूँगा- दिन में!
जहाँ तक मेरी बात है, मैं इस पुस्तक के रोमांच से तो प्रभावित हूँ ही। मैंने और भी कुछ सीखा है इससे, (यूँ कहा जाय- जिम कॉर्बेट से) जैसे-
1. जिस विषय को मैंने हाथ में लिया है, उससे सम्बन्धित ज्यादा-से-ज्यादा जानकारियाँ प्राप्त करने की कोशिश करूँ।
2. जिस काम को जिस ढंग से किया जाना है, उसी ढंग से करूँ- शॉर्टकट न अपनाऊँ।
3. 'सतर्कता' को अपने स्वभाव में लाने की कोशिश करूँ।
4. शरीर को आरामपसन्द न बनने दूँ।
5. अनुमान लगाने, विश्लेषण करने, आकलन करने में पारंगत बनने की कोशिश करूँ।
6. मामूली-से-मामूली बातों, चीजों को भी नजरअन्दाज न करूँ।
इत्यादि-इत्यादि।
जिम कॉर्बेट की और भी रचनायें मैंने पढ़ी, मगर यह तो अद्भुत रचना है!


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शनिवार, 5 नवंबर 2011

“ढक्कन वाली रोटी” की याद...



अररिया में अपनी बड़ी दीदी के अलावे एक कौशल्या दीदी भी रहती है, जो बरहरवा में मेरे मुहल्ले की ही है तथा मेरी छोटी दीदी की सहेली है। जब उन्होंने गाय ली, तो मैं उनके यहाँ से दूध लेने लगा था। यह पिछले जाड़े की बात है।
एक रोज उन्होंने मुझे एक कटोरी दूध में उबले हुए शकरकन्द मथकर खाने को दिया। खाते समय मैं सोचने लगा- कि पिछली बार मैंने दूध-शकरकन्द कब खाया था? याद ही नहीं आया। यानि बचपन के बाद मैंने यह ‘डिश’ खाया ही नहीं था!
इसी के साथ मुझे माँ के बनाये ‘ढाकुन दिया रुटी’ यानि ‘ढक्कन वाली रोटी’ की याद आने लगी थी। बचपन में यह हम बच्चों का पसन्दीदा व्यंजन हुआ करता था।
वे गुलाबी जाड़े के दिन हुआ करते थे- अगहन का महीना। चौलिया (हमारा पैतृक गाँव) से नया धान आता था। कुछ नये चावल का आटा बनता था। आटे का गाढ़ा घोल तैयार किया जाता था। फिर लकड़ी की आँच पर मिट्टी की कड़ाही पर यह रोटी बनती थी। मिट्टी की इस कड़ाही को माँ ‘सॅरा’ कहती थीं। यह रोटी बनने का कार्यक्रम तय होने पर ‘बुधवार हटिये’ से ‘सॅरा’ तथा उसका ढक्कन (मिट्टी का ही) खरीद कर लाया जाता था।
चावल के आटे के घोल को कटोरी में भरकर सॅरा में डालकर ढक्कन से ढक दिया जाता था। ढक्कन में पकड़ने के लिए एक खास बनावट होती थी। ढक्कन के चारों ओर थोड़ा पानी डाला जाता था। लकड़ी की मद्धम आँच पर कुछ देर पकाने के बाद ढक्कन हटाकर पलटे से इस मोटी-सी छोटी रोटी को निकालकर गुनगुने मीठे दूध में डाल दिया जाता था। बस ‘ढाकुन दिया रुटी’ तैयार हो जाती थी और हम बच्चे इन्हें खाना शुरु कर देते थे।
पहले तो रसोईघर में कोयले वाले चूल्हे के बगल में एक लकड़ी का भी चूल्हा हुआ करता था और रात रोटियाँ बनाने में रोज उसका इस्तेमाल होता था। बाद में जब लकड़ी वाले चूल्हे का प्रचलन समाप्त हुआ, तब आँगन में रसोईघर के बाहर ईंटें जोड़कर लकड़ी का चूल्हा बनाकर इस ढक्कन वाली रोटी का कार्यक्रम बनता था।
मेरे मुहल्ले के दोस्त, जो भोजपुरी बोलते थे, इस रोटी को ‘चितुआ’ कहते थे और वायु सेना के ट्रेनिंग सेण्टर में जब इसका जिक्र चला, तो आरा के आस-पास के एक मित्र ने इसे ‘ढकनेसन’ बताया था।  
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      उन्हीं जाड़ों के दिनों में उसी चावल के आटे की मोटी-मोटी रोटियाँ भी कभी-कभी नाश्ते में बनती थीं। चटनी के साथ इसे धूप में बैठकर खाने का आनन्द ही कुछ और था। चटनी न बनाकर सिर्फ नमक-तेल के साथ भी इस गर्मागर्म रोटी को खाने में मजा आता था।
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जहाँ तक "पीठा" की बात है- इसके बारे में तो बहुत लोग जानते होंगे। यह भी चावल के आटे से बनता था। इसके अन्दर कभी खोआ, कभी गुड़ तथा पीसी हुई तीसी का मिश्रण और कभी उबले दाल भरे जाते थे। दाल वाला पीठा नमकीन होता था, जबकि खोए वाले पीठे को दूध में उबाला जाता था।
यह अब भी माँ जब-तब बनाती हैं। (इसके लिए 'लकड़ी की आँच' तथा हटिये से 'सॅरा' खरीदकर लाने का झमेला नहीं है।)
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बचपन के एक और ‘डिश’ की याद आ रही है- ‘गुलगुले’। इसे भी खाये हुए जमाना बीत गया है।
वे बरसात के दिन होते थे, जब पके हुए ‘ताड़’ के फल खुद ही पककर नीचे गिर जाते थे। चौलिया से भागीदार कुछ पके हुए ताड़ के फल ले आते थे। क्या मादक खुशबू होती थी उनमें!
एक बड़ी थाली के ऊपर एक टोकरी को धोकर उलट दिया जाता था। फल को छीलकर उल्टी टोकरी पर रगड़ा जाता था। थाली पर गाढ़ा पीला द्रव जमा होने लगता था। शायद आटे के साथ इसे फिर गूँधा जाता था और फिर छोटी-छोटी गोलियाँ बनाकर उन्हें तला जाता था। शायद गुड़ भी इसमें (गूँधते वक्त) मिलाया जाता था।
ऐसा नहीं है कि ताड़ के ये फल बरसात में पकने के बाद ही खाये जाते थे। जेठ की भीषण गर्मियों में इन्हें ‘ताड़कुल’ के रुप में भी हम खाते थे। तब इस फल को ‘दाव’ (भारी हँसिया) की मदद से काटा जाता था। इसके अन्दर से तीन या शायद चार ‘जेली’-जैसी चीज से बने खाद्य पदार्थ निकलते थे- ये एक परत से ढके होते थे। (इन्हें 'खाजा' कहते थे- जैसाकि दीदी ने याद दिलाया।) उन्हें छीलकर हम खाते थे। उसके अन्दर पानी भी होता था।
पके हुए ताड़ के फलों के बीज को पिछवाड़े में फेंक दिया जाता था- अगली बरसात में ताड़ के पौधे उनसे उग आते थे। उन्हें उखाड़कर उनके बीज को काटा जाता था। यह कुछ बड़े बच्चों का काम होता था और इसकी गिनती शरारत में होती थी। उन बीजों के अन्दर सफेद खाद्य पदार्थ जमा रहता था- नारियल के तरह, मगर मुलायम। इसे भी हम खाते थे। इसे ‘कोआ’ कहते थे शायद। शायद चौलिया में बच्चे अब भी इनका मजा लेते हों, हम तो भूल ही गये हैं... ।
कभी-कभी इन लम्बे रेशेदार बीजों को फेंकने के बजाय मेरी दीदी उन्हें अच्छे से धो लेती थी। फिर बीज पर एक बुजुर्ग की मुखाकृति उकेरती थी- रेशों को दाढ़ी तथा बालों के रुप में सँवार देती थी। इस प्रकार, यह एक कलाकृति बन जाती थी और इसे दरवाजे के ऊपर टाँग दिया जाता था। लोग इसकी तारीफ करते थे। 
देखा जाय, इस बचे हुए जीवन में फिर कब और कितनी बार इन चीजों को खाने का सौभाग्य फिर प्राप्त होता है......
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एक चीज है, जो अब भी खाने को मिल रहा है और मैं खाता भी हूँ। जाड़ा शुरु होते ही चौराहों-तिराहों पर कुछ लोग सुबह-सुबह "भक्का" बनाने के काम में लग जाते थे। इसे "धुक्की" भी कहते हैं। यहाँ अररिया में आम तौर पर महिलायें इसे बनाती हैं। उनका आग सेंकना भी हो जाता है और थोड़ी कमाई भी। सुबह टलह कर लौटते वक्त मैं अक्सर दो रूपये में एक "भक्का" खाते हुए लौटता हूँ।
मिट्टी या अल्यूमुनियम के एक घड़े में पानी भरकर उसके मुँह को मिट्टी के ही एक गहरे प्लेट से सील कर दिया जाता है (कच्ची मिट्टी या आटे से)। प्लेट में एक छेद होती है, जिससे पानी की भाप निकलती रहती है। घड़ा आग पर रखा रहता है। चावल के मोटे पीसे आटे को एक कटोरी में भरकर एक सूती कपड़े के टुकड़े की मदद से उस छेद पर पलट कर रख दिया जाता है- कटोरी हटा ली जाती है तथा आटे को उसी कपड़े से ढक दिया जाता है। आटे में हल्का नमक तथा गुड़ के कुछ टुकड़े मिले होते हैं। मिनट भर भर में ही चावल का वह आटा भाप में पककर खाने लायक हो जाता है। इस भाप निकलते गर्मागर्म "भक्का" को बच्चे बड़े चाव से खाते हैं- मगर मेरा बेटा इसे नहीं खाता। इसलिए मैं अक्सर खुद ही इसे खाते हुए घर लौटता हूँ।
याद है कि बचपन में मेरी दोनों दीदीयों ने इसे चुनौती के रुप में लिया था- कि इसे घर में क्यों नहीं बनाया जा सकता! ...और कहने की आवश्यकता नहीं, वे घर में ही "भक्का" या "धुक्की" बनाने में सफल रहीं थीं।
सोचता हूँ, यहाँ किसी दिन बड़ी दीदी को इस बात की याद दिलाऊँ...
**********
बूढ़ी काकी "भक्का" बनाते हुए 
*** 
पुनश्च: 
"भक्का" वाली बात जोड़ते हुए सम्पादन: 15 जनवरी' 2012 
      

छठ_बरहरवा_2011


इस साल 1 और 2 नवम्बर को छठ पड़ा

पिछले वर्षों की तरह इस बार भी 'न्यू स्टार क्लब' वालों द्वारा 'मुन्शी पोखर' पर आयोजित छठ की व्यवस्था तथा सजावट सबसे अच्छी रही

झिकटिया के 'झाल दीघी' तालाब की सजावट तथा व्यवस्था की भी प्रशंसा (पिछले साल से ही) हो रही है

रेलवे के विशाल तालाब 'कल पोखर' पर होने वाले छठ की व्यवस्था एक जैसी ही रहती है- सजावट पर कम ही ध्यान दिया जाता है यहाँ का छठ सबसे पुराना है (प्रसंगवश, इस तालाब के एक हिस्से को भरा जा चुका है, अब कुछ और हिस्से को भरने की तैयारी है सुना है, रेलवे इसे भरकर चौथा प्लेटफार्म तथा कुछ पटरियाँ बिछायेगा अब बताईये, कि तालाब तथा रेलवे के विकास, दोनों में से किसी एक को चुनना कितना मुश्किल है!)

इस साल की सबसे उल्लेखनीय बात यह रही हमारे मुहल्ले के एक तालाब- दुर्भाग्य से, जिसका नाम मरल (मृत) पोखर है- में छठ की शुरुआत हुई। इसका श्रेय उत्तम को जाता है। उसने तय कर लिया था कि चाहे उसे अकेले ही करना पड़े और चाहे दो इमेर्जेन्सी लाईट रखकर करना पड़े, मगर वह छठ करेगा तो यहीं! जैसा कि हम जानते हैं- इस तरह के फैसले लेने के बाद रास्ते अपने-आप निकलने लगते हैं! छठ से तीन-चार रोज पहले प्रदीप भैया तथा मेरा छोटा भाई बबलू उसकी मदद को आगे आये और देखते-ही-देखते सारा इन्तजाम हो गया। प्रदीप भैया सात-आठ व्रतियों को ले आये, दिलीप भैया ने जेनरेटर दिया, किसी ने केले के पेड़ दिये, किसी ने चाय-शर्बत गछा, किसी ने साउण्ड सिस्टम के पैसे दिये, किसी ने शटरिंग के पैसे दिये (घाट पर तख्तों के शटरिंग कर उन्हें सुविधाजनक बनाने का रिवाज यहाँ है), काली काकू तथा कुछ अन्य लोगों ने चन्दे के रुप में पैसे दिये, फागू ने बच्चों की फौज से सजावट का इन्तजाम करवाया, प्रदीप (यह दूसरा प्रदीप है) ने अपना होटल बन्द कर सारी कुर्सियाँ भेजवा दीं, हाटपाड़ा का एक युवक (नाम मैं भूल रहा हूँ) तो तीन दिनों तक यहाँ डटा रहा। लम्बू पण्डित जी ने यहाँ के वातावरण से प्रभावित होकर स्वेच्छा से अर्घ्य की दोनों बेला में आकर मंत्रोच्चार किया मुहल्ले के मुसलमान बच्चों तथा किशोरों का योगदान भी देखने लायक था! जैसा कि फागू ने मुझे बताया कि मोनू भैया, मुहल्ले के किशोरों तथा बच्चों का उत्साह देखकर वे दिन याद आ गये, जब आपलोग सरस्वती पूजा करते थे और हम बच्चों की फौज सहायता के लिए हर वक्त मुस्तैद रहा करती थी। उन दिनों न हम मजदूर रखते थे और न ही डेकोरेटर। सारा काम हमलोग स्वयं किया करते थे!
खैर, यह तो तय हो गया कि अगले साल से यहाँ का छठ प्रसिद्ध हो जायेगा। हमारे मुहल्ले के सभी व्रतधारी (जिन्होंने इस साल ‘मुन्शी पोखर’ में जगह बुक करा ली थी) अगले साल से यहीं छठ करेंगे। उत्तम का कहना है कि वह यहाँ बिल्कुल धार्मिक भाव से आयोजन करवायेगा- प्राकृतिक माहौल में और हाँ, इस तालाब का नाम अब से गंगा पोखर होगा!
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मेरे पास डिजिटल कैमरा न होने के कारण मैं बरहरवा के छठ की खूबसूरती आपके सामने नहीं ला सकता... बस मोबाइल से खींचे हुए कुछ तस्वीर प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो कि उस खूबसूरती को बयान करने में सक्षम नहीं हैं।

ये हैं झालदीघी की तस्वीरें- रंजीत मुझे छठ का अर्घ्य शुरु होने से पहले वहाँ ले गया था


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..और ये रहीं प्रसिद्ध मुन्शी पोखर की कुछ तस्वीरें. (काश कि सारी तस्वीरें मैं प्रस्तुत कर पाता...) -