आज फेसबुक पर वरिष्ठ मित्र नारायण
प्रसाद शर्मा जी ने उन गीतों की याद दिलायी, जिन्हें हम अपने बचपन
में विभिन्न खेल खेलते समय दुहराया करते थे। उनकी पोस्ट निम्न प्रकार से है:
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बच्चों का अपने खेलों
में टॉस करने का मनोरंजक एवं रचनात्मक तरीका। उसकी कुछ बानगी
प्रस्तुत है-
१.
अब्बक दब्बक दायं दीं, गोल चौवल पायं पीं, रंग रूप सरूप राय रज्जा
(१३ शब्दों की आवृत्ति)
२.
अटकन, बटकन, दही, चटाकन, लौहा, लाटा, बन के, काटा, तुहुर, तुहुर, पानी आवै , सावन में करेला पाके, चल, चल, बिटिया, गंगा, जाई, गंगा, ले, गोदावरी, पाका, पाका, बेल खाई, बेल, के डारा, टूट गए, भरे, कटोरा, फूट गए, (१७ शब्दों की आवृत्ति)
३.
इस, पीस, कोयला, पीस, मारे, दबक्का, उन्नीस, बीस (८ शब्दों की
आवृत्ति)
देश के विभिन्न
क्षेत्रों में पद्यों के सैकड़ों प्रकार मिल जावेंगे जो कि भुलाए नहीं भूले जाते। मित्र अपने बचपन में
कुछ समय के लिए प्रवेश करें तो उन्हें वह सब कुछ याद आ जावेगा जिसके लिए आज वे तरस
रहे हैं।
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जैसा कि उन्होंने कहा है-
हमने भी अपने बचपन में प्रवेश कर गीतों को याद करने की कोशिश की, मगर अफसोस, कि कोई गीत पूरा याद नहीं
आया। जितना याद आया, उतना
लिख रहा हूँ और यह उम्मीद कर रहा हूँ कि कोई-न-कोई मित्र इन गीतों को जरूर पूरा करेगा:-
१.
"ओक्का-बोक्का, तीन-तिरोक्का, लोहा-लाठी, चन्दन-काठी, बाग में बघवन डोले, सावन में करैला फूटे, ................" (बाकी
याद नहीं आ रहा)
इस गीत को आम तौर पर 'ओक्का-बोक्का' खेलते समय गाया जाता था।
इस खेल में सभी बच्चे गोल घेरा बनाकर बैठते थे और सभी अपने हाथों को सामने उँगलियों
पर टिकाकर रखते थे। एक बच्चा 'ओक्का-बोक्का' गाते हुए अपनी उँगली से सभी
हाथों को छूता था। जहाँ गीत खत्म होता था, वहाँ उस हथेली को पिचका दिया
जाता था। इसके बाद और भी कई चरण थे, जो अब ठीक से याद नहीं रहे।
२.
एक खेल ऐसा था, जिसमें एक बच्चा अपना एक
पैर आगे कर उसके अँगूठे को पकड़ लेता था। फिर उसके (हाथ के) अँगूठे को दूसरा बच्चा पकड़ता
था और फिर इस तरह सभी बच्चे मिलकर एक पेड़ बना लेते थे। फिर एक बच्चा एक हथेली को कटार
बनाकर पेड़ को काटता था। तब जो गीत गाया जाता था, वह कुछ इस प्रकार से था:
"ताड़ काटे, तरकुल काटे, काटे रे बनखाजा........"
(बेशक,
आगे कुछ याद नहीं)
३.
एक गीत जो हम बच्चों को बहुत प्रिय होता था, वह था- "घुघुआ-घूघ"।
इसे बड़े गाते थे, या
हम बच्चों में से ही जो बड़े होते थे, वे गाते थे। इसमें छोटे बच्चों को झुला झुलाया जाता था, इसलिए शायद यह छोटे बच्चों
को बहुत प्रिय हुआ करता था। बड़े बिस्तर पर पीठ के बल लेट जाते थे- अपने दोनों घुटनों
को झूला बनाते हुए। बच्चे पैर पर बैठ जाते थे। बड़े गाते हुए बच्चे को झुलाते थे और
आखिरी पंक्ति में बच्चों को बहुत ऊँचा उठा देते थे। गीत था:
"घुघुआ घुघ, मरेल पुर, चल गे बिल्ली, ककड़ी खेत, मैया गे मैया, डर लागे छौं, कथी के डर बेटा, कथी के डर, ऊपर कछुआ डोलैछे, नीचे सितुआ लोटैछे, ............" (बाकी
याद नहीं आ रहा,
मगर
एक शब्द 'फुदकल जाम' (फुदकते जाऊँ) इसमें आता
था)
यह गीत बिहार की जिस बोली
में है,
उसे
"छै-छा" कहते हैं। इसके कई स्वरुप हमारे इलाके में पाये जाते हैं।
४.
ऊपर जिस "घुघुआ-घूघ" गीत का जिक्र हुआ है, उसका एक बँगला संस्करण भी
है। चूँकि मेरे घर में बँगला बोली जाती थी (है) और ननिहाल में "छै-छा", इसलिए दोनों गीतों के कुछ
शब्द याद रह गये हैं। बँगला गीत इस प्रकार से है:
"घुघु-घुघु, तिसि-ताल, बेटा-छेला, माछ मारते........ (दिमाग में बहुत जोर डालकर
भी आगे याद नहीं आ रहा!)
५.
इनके अलावे और भी आधा दर्जन तरह के
खेल थे, जैसे दो टीम बनाकर किसी एक
की आँखें बन्द कर अपनी टीम से किसी को "छ्द्म नाम" से बुलाना- जैसे, "आ रे मेरे आम"; एक खेल था जिसमें एक गोल घेरे के बाहर कोई दौड़ते हुए बोलता था- "राजा, राजा किवाड़ी खोल" घेरे के
बच्चे पूछते थे- "कौन है?" उत्तर आता था- "खपड़ियो चोर"। दरअसल, इस खेल को मारवाड़ी बच्चों
ने लोकप्रिय बनाया था- शायद यह खेल राजस्थान में खेला जाता है। "डेंगा-पानी", "सतमी-ताली", "बुढ़िया-कबड्डी", "रूमाल-चोर"-जैसे
खेल तो शायद देश भर में खेले जाते होंगे। हमारे इलाके का एक दम-खम वाला खेल था- "गद्दी"।
अपनी किशोरावस्था में हमने इसे खूब खेला है।
फिलहाल इतना ही, बाकी फिर कभी फुर्सत में
कुछ और जोड़ा जा सकता है इस आलेखा में...
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लगे हाथ, इन खेलों के बारे में बताते हुए मैंने बच्चों की दो तस्वीरें भी खींच ली-