शनिवार, 27 नवंबर 2010

“सुदामा और कृष्ण”- आज भी...

दीवाली में घर- यानि बरहरवा- गया हुआ था
कोलकाता से कैलाश (पटवारी) का फोन आता है कि (बरहरवा में ही) कुष्माकर (तिवारी) अपना घर बना रहा है, एक बार जाकर देख लेना कि सब सही तो है (वास्तुशास्त्र के हिसाब से)।
अगले रोज कुष्माकर भी बाजार में अपने बच्चों को पटाखे दिलवाते हुए मिल गया। उसने भी यही कहा।
कैलाश और कुष्माकर दोनों यूँ तो मेरे छोटे भाई की मित्र मण्डली के हैं, मगर मेरे भी दोस्त हैं।
दीवाली के बाद वाले रोज कुष्माकर मोटर साइकिल पर आया। मैं बगल के रूपश्री स्टूडियो में बैठा था।
दोनों घर देखने गये। शानदार दोमंजिला मकान बनकर तैयार था- प्लास्तर का काम चल रहा था। घर वास्तु के हिसाब से ही बना था।
चलते समय मैंने कहा- तुम इसमें काफी सुखी रहोगे और खूब तरक्की करोगे।  
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कुष्माकर भाजपा कार्यकर्ता है। आय का कोई जरिया नहीं है। समाज का, और अपने दोस्तों का प्रियपात्र है, इसलिए गुजारा चल रहा है। हालाँकि उसका ‘क्रीज’ वाला पहनावा देखकर कोई यह नहीं कह सकता कि उसकी आर्थिक स्थिति खराब है।
कुछ समय पहले वह बीस सूत्री कार्यक्रम का अध्यक्ष था; अभी भी सांसद प्रतिनिधि है, मगर कभी उसने ‘ऊपरी कमाई’ करने की कोशिश नहीं की। राजनीति से जुड़े होने के कारण जरूरतमन्दों की मदद ही करता है। उसका स्वभाव ही ऐसा नहीं है कि वह ‘दो-नम्बरी’ कमाई में संलग्न हो सके।
अब तक टालियों की छत वाली झोपड़ीनुमा घर में वह रह रहा था।
इसी होली में तो हमलोग जब ‘जुगाड़’ में घूम रहे थे, उसने अपने टाली वाले घर के सामने ‘जुगाड़’ रुकवाया था और हमलोगों को घर से लाकर पूआ, दहीबड़ा खिलाया था।
अचानक वह इतना विशाल और शानदार दोमंजिला मकान कैसे बनवा रहा है- मैंने जानना नहीं चाहा।
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रात मैंने कैलाश को फोन लगाया और बताया कि कुष्माकर का मकान एकदम सही बन रहा है।
तब वह राज खोलता है कि कुष्माकर को मकान बनवाकर वही दे रहा है। मकान शुरु करने से पहले पाकुड़ के वास्तुशास्त्री से नक्शा बनवाने की सलाह भी उसी ने दी थी।
वह एक और राज खोलता है कि पन्द्रह साल पहले कुष्माकर को पार्टी बदलने के लिए लाखों रूपये का ऑफर मिला था, मगर उसने पार्टी नहीं बदली थी।
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मैं नहीं जानता, आप इस घटनाक्रम को क्या कहेंगे।
मगर मेरे लिए तो सुदामा और कृष्ण की कहानी हमारे बरहरवा में फिर से- इस कलियुग में- दुहरायी जा रही है।
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(मैं नहीं जानता, मुझे यह लिखना चाहिए था या नहीं. कभी मौका मिला तो दोनों से पूछ लूँगा.) 

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

“टप्परगाड़ी”

आपके इलाके में इसे कुछ और नाम से पुकारा जाता होगा, मगर हमारे इलाके में इसे टप्परगाड़ी कहते हैं. वैसे, अब इसका प्रचलन नहीं रहा. जी, ठीक समझा आपने- बैलगाड़ी के ऊपर ‘घर-जैसा’ एक ढाँचा कसने के बाद उस बैलगाड़ी को ही ‘टप्परगाड़ी’ कहा जा रहा है. आपने इसकी सवारी चाहे की हो या न की हो, मगर फिल्मों में तो इसे जरूर देखा होगा. कई सदाबहार गानों में ये ‘टप्पर’ वाली बैलगाड़ियाँ नजर आती हैं.

पहले साल में एक बार तो हमें इसे टप्परगाड़ी की सवारी का आनन्द मिल ही जाया करता था. चौलिया (हमारा पैतृक गाँव) से टप्परगाड़ी आती थी और हम सारा परिवार उसमें बैठकर चौलिया जाते थे- बहाना होता था- भूँईपाड़ा (भीमपाड़ा) मेला देखना. जो बच्चे बड़े होते थे (जैसे, मेरी बड़ी दोनों दीदी, बाद में भैया), उन्हें बैलगाड़ी के पीछे टप्पर से बाहर बैठने की अनुमति मिल जाया करती थी और वे पैर झुलाते हुए सफर के साथ-साथ दृश्यों का भी आनन्द उठाते थे. मुझे यह अनुमति नहीं मिली.

दो किलोमीटर पक्की सड़क (फरक्का रोड) पर चलने के बाद टप्परगाड़ी रोड छोड़कर खेतों में उतरती थी.(हमारे इलाके में अमूमन साल में एक ही बार खेती होती है- धान की. धान कटने के बाद खेत खाली पड़े रहते हैं. रबी फसल बहुत कम लोग लगाते हैं, जिनके पास सिंचाई के साधन हैं. आप सोचेंगे कि पूर्व के किसान ही आलसी होते हैं और पश्चिम (पंजाब-हरियाणा-पश्चिमी उ.प्र.) के मेहनती. मैं कहूँगा कि नेहरूजी ने आजादी के बाद 99.999 प्रतिशत नहरें उन्हीं इलाकों में बनवायी, इसलिए यह भेदभाव है! खैर,)

खेतों में कुछ दूर चलने के बाद हमारी टप्परगाड़ी एक ऊँचे रेल पुल के नीचे से गुजरती थी. इस पुल को पता नहीं क्यों ‘केंचुआ पुल’ कहते हैं. कभी-कभी यहाँ घुटना भर पानी जमा रहता था.(इस तरह के बड़े-छोटे चालीस-पचास रेल पुल किऊल जंक्शन से हावड़ा जंक्शन के बीच बने हैं, जिनका निर्माण काल 1890 के आस-पास है. सौ से अधिक वर्ष पुराने ये पुल अब तक मजबूत ही हैं. जो दो चार कमजोर पड़ गये हैं, उनका पुनर्निर्माण हो रहा है. इन पुलों को देखकर अहसास होता है कि अंग्रेज इंजीनियरों ने रेल-लाईन बिछाते समय बरसाती पानी के बहाव का कितना गहन अध्ययन किया था! इसके मुकाबले हमारे इंजीनियरों ने कुछ वर्ष पहले ललमटिया के कोयला खान से फरक्का एन.टी.पी.सी. तक जो रेल लाईन बिछाई, उसमें इस बात का ध्यान नहीं रखा; फलतः इन इलाकों में अब बरसात में छोटी-मोटी बाढ़ आने लगी है.)

चौलिया पहुँच कर लोगों से मिलना-जुलना होता था और फिर हमलोग टप्परगाड़ी में ही पड़ोसी गाँव भीमपाड़ा के मेले में जाते थे. आगे चलकर जुए के कारण मेला बदनाम हो गया और हमारा ‘टप्परगाड़ी’ का सफर बन्द हो गया. ये ’70 के आस-पास की बातें हैं.
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थोड़ी देर के लिए विषयान्तर.

वर्षों बाद ‘98 में हम अपने तीन महीने के ‘बाबू’ को लेकर चौलिया आते हैं. मेरी (फरक्का वाली) छोटी दीदी और (चिंचुँड़ा वाली) चचेरी बहन भी साथ है. चौलिया वाली चाची तीन महीने के हृष्ट-पुष्ट बाबू को देख खुश होती है, मगर पूछती है- इसकी आँखों में काजल क्यों नही है? अंशु मासूमियत से कहती है- अस्पताल (जालन्धर सैन्य अस्पताल) की डॉक्टरों-नर्सों ने काजल लगाने से मना किया है. तुरंत पड़ोसी घर से काजल आता है और बाबू की आँखों में सुन्दर से काजल डाल दिये जाते हैं.

चाची बाबू की खूब मालिश करती है और फिर हवा में उछालती है. हर उछाल के साथ बाबू किलकारियाँ भरता है. चाची कहती है- तुम्हारे बेटे को डर नहीं है रे.

अगली सुबह जब हम लौटने के लिए तैयार होते हैं, तब पास में ही रहने वाले एक दादाजी कहते हैं- पहली बार बहू आयी है, स्टेशन तक पैदल जायेगी? ठहरो, अभी टप्पर कसवाता हूँ.

बैलगाड़ी पर टप्पर कसा जाता है. मेरी दोनों बहनों के लिए तो यह नया कुछ नहीं है, मगर मेरी पत्नी मेरठवासिनी अंशु के लिए बैलगाड़ी/टप्परगाड़ी में बैठने का यह पहला अवसर है. बैलों की सुमधुर घण्टियों के साथ टप्परगाड़ी में हिचकोले खाते हुए हमलोग ‘लिंक केबिन हॉल्ट’ तक आते हैं और फिर ट्रेन पकड़ते हैं.
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अब चौलिया में यदा-कदा बाढ़ आने लगी है. बाढ़ का कारण ऊपर बताया जा चुका है. फरक्का बाँध का निर्माण भी मानो- बरसात में भारत के गाँवों को डुबोते हुए बाँगलादेश के गाँवों को बचाने के लिए ही किया गया है. सात-आठ वर्ष पहले चौलिया में तीन दिनों तक कमर भर पानी घुसा रहा. ज्यादातर घर ढह गये. बहुत नुक्सान हुआ. मेरी चाची और उन दादाजी के घर भी ढह गये थे. वह ‘टप्पर’, जो दादाजी के घर के बाहरी दीवार पर टँगा रहता था- मिट्टी की दीवार के साथ गिरकर दबकर और पानी में डूबे रहकर नष्ट हो गया. दो-चार साल पहले उन दादाजी का देहान्त हो गया.

अब चौलिया में मुश्किल से दो-चार टप्पर बचे होंगे तो बचे होंगे. वे भी दीवारों में ही टँगे होंगे. अब एक तो बहू-बेटियों के लिए पर्दे की उतनी जरूरत नहीं है, दूसरे, सड़कें पक्की हो गयी हैं और उनपर फर्राटे भरते हुए टेम्पो अब गाँव-गाँव पहुँचने लगे  हैं.

तरक्की हो रही है.

भूल जाना होगा बैलों के गले की सुमधुर घण्टियाँ... कच्ची सड़कों पर से खुरों से उड़ती धूल... गाड़ीवान की हो-हो...        

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

रील वाला ब्लैक एण्ड व्हाईट फोटो

अब रील वाले ब्लैक एण्ड व्हाईट फोटो गुजरे दिनों की बात है. मगर बरहरवा में हमारे पड़ोस में जो स्टूडियो रूपश्री है, वहाँ चन्द्रशेखर जी अब भी यह फोटो बनाते हैं. उनका कहना है कि जब तक केमिकल, पेपर, रोल मिलते रहेंगे, तब तक वे इन्हें बनाते रहेंगे.
हालाँकि उनके पास डिजीटल कैमरा, कम्प्यूटर, फोटो प्रिण्टर सब है, मगर पुरानी तकनीक छोड़ नयी तकनीक को अपनाने का इरादा अब तक तो उनका नहीं ही है.
मैंने अपने जन्मदिन वाले दिन (8 नवम्बर 2010 को) उनके स्टूडियो में एक रील वाला ब्लैक एण्ड व्हाईट फोटो खिंचवाया.
देखिये, एक अनुभवी छायाकार जब अपने सधे हुए कैमरे को पकड़ता है, तो परिणाम कितना शानदार आता है- वर्ना छायाकार तो हमसब हैं, जो मोबाईल कैमरों से फोटो खींचते हैं.  


मंगलवार, 16 नवंबर 2010

छठ: हमारे बरहरवा में

इस साल (2010) छठ 12 और 13 नवम्बर को था. 12 की सन्ध्या अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य (बोलचाल में 'अरख') देना था; जबकि 13 की भोर उदीयमान सूर्य को.
प्रस्तुत है, बरहरवा में मनाये जाने वाले छठ के कुछ छायाचित्र:-
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12 नवम्बर की सुबह छठ घाट को जाने वाला रास्ता.
एल.ई.डी बल्बों की सजावट वाले तीन सुन्दर बन्दनवार. चौथा द्वार अभी बन रहा है-

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घाट की सजावट भी अन्तिम दौर में है


घाट का दृश्य- विपरीत कोण से. जलाशय के बीच में जो मंच दीख रहा है, वहाँ सूर्यदेव की प्रतिमा स्थापित होगी-


सूर्यदेव की प्रतिमा तो बन चुकी है (अखबार से ढक दिया गया है), उनके सात घोड़े भी तैयार हैं. पास ही राजहँस विचर रहे हैं-


घरों में आँगन को गोबर से लीप कर (पीसे हुए चावल को पानी में घोलकर उस सफेदी से) 'आल्पना' बनायी जा रही है. घर के बरामदों और प्रवेशद्वारों पर भी आल्पना बनायी जाती है-





फल धोये जा रहे हैं-
(जिस कमरे में छठ का विशेष प्रसाद 'ठेकुआ' बनाया जाता है. वह तीन दिनों के लिए बहुत पवित्र होता है. वहाँ की तस्वीर नहीं ली गयी.)



छठ का 'डाला' सर पर रखकर घाट तक ले जाने के लिए बच्चे भी उत्साहित रहते हैं-


सूर्यास्त से कुछ पहले छठ-घाट की ओर जाते व्रतधारी और श्रद्धालु. कुछ व्रतधारी तो दण्डवत प्रणाम करते हुए जाते हैं, इसलिए सड़कों को धो दिया जाता है-



घाट पर बच्चों के मनोरंजन के लिए इनकी भी व्यवस्था है-


सात घोड़ों के रथ पर सवार सूर्यदेव की प्रतिमा जलाशय के बीच स्थापित हो चुकी है-


एक-एक कर व्रतधारी तथा श्रद्धालु घाट पर पहुँच रहे हैं-



कुछ ही मिनटों में सभी घाट भर जाते हैं-




पण्डितजी को बेड़े पर बैठाकर जलाशय के बीच बने मंच की ओर लाया जा रहा है. वे सूर्यदेव की प्रतिमा की पूजा करेंगे. (तस्वीर स्पष्ट नहीं है. यहाँ न मैं 'आधिकारिक' छायाकार हूँ और न मेरे पास कैमरा है. मेरी चाची और दीदी छठ करती हैं, अतः मैं खुद इसमें शामिल हूँ. मोबाईल कैमरे से ऐसे ही कुछ तस्वीरें ले ली गयी हैं.) 



सूर्यदेव भी अस्ताचल को जा रहे हैं- 



व्रतधारी- आमतौर पर महिलायें- जल में खड़े होकर अस्ताचलगामी सूर्य को प्रणाम करती हैं. फलों से भरे 'सूफ' को बारी-बारी से हाथों में लेकर सूर्य को अर्पित करती हैं और सभी श्रद्धालु उस 'सूफ' के सामने कच्चे दूध से सूर्य को अर्घ्य देते हैं-
(अर्घ्य की बेला में कुछ मिनटों के लिए घाट पर गहमा-गहमी इतनी  बढ़ जाती है कि एक कायदे की तस्वीर खींचना भी मुश्किल हो जाता है. हाँ, 'आधिकारिक' छायाकारों की बात अलग है.)







अर्घ्य देने के बाद सभी घर लौट जाते हैं. 



घाट का सूनापन कुछ समय के लिए भर जाता है, जब दुर्गा-पूजा समितियों को पुरस्कृत करने का कार्यक्रम चलता है. सजावट, 'स्वयंसेवक'-व्यवस्था तथा विसर्जन में शालीनता के मामलों में अव्वल रहने वाली समितियों को प्रखण्ड विकास पदाधिकारी और थानाध्यक्ष की उपस्थियि में पुरस्कृत किया जा रहा है-  



ब्रह्ममुहुर्त यानि सुबह साढ़े तीन बजे से एक-एक कर श्रद्धालु और व्रतधारी फिर जुटते हैं. यह 13 नवम्बर 2010 है. अब उदीयमान सूर्य को अर्घ्य देना है. 



जल्दी ही फिर घाट फिर भर जाते हैं- 



सूर्योदय में अभी देर है, अतः तब तक जमकर आतिशबाजी होती है- 





सूर्योदय हुआ, फिर पण्डितजी सूर्य के प्रतिमा की पूजा कर रहे हैं- 



इसी के साथ अर्घ्य देने की गहमा-गहमी शुरु हो जाती है-
(फिर वही मुश्किल, अर्घ्य देते हुए लोगों का एक फोटो खींच पाना नहीं हो पाता है.) 




अर्घ्य देने के बाद महिलायें एक-दूसरे को सिंदुर लगाती हैं- 



अगर बेड़े पर जाकर सूर्यदेव की प्रतिमा का फोटो लिया गया होता, तो बहुत सुन्दर फोटो आ सकता था-


घर लौटने पर व्रतधारियों के पैर धोये जाते हैं- 



बदले में मिलता है आशीर्वाद- 



ये जो छायाचित्र आप देख रहे हैं, ये बरहरवा के 'मुंशी पोखर' पर होने वाले छठ के दृश्य हैं. इसके अलावे रेलवे के विशाल तालाब ('कल पोखर') और 'झाल दीघी पोखर' में भी छठ के भव्य आयोजन होते हैं.
'मुंशी पोखर' वाले छठ के आयोजन की जिम्मेवारी 'न्यू स्टार क्लब' के नौजवान उठाते हैं, जिन्हें बड़ों का सहयोग और मार्गदर्शन प्राप्त रहता है. टीम के कुछ सदस्य- 





अन्त में, मनोहर भैया (मकुआ भैया) की सायकिल दूकान के बरामदे पर उनकी बेटियों द्वारा बनायी गयी सुन्दर रंगोली-