सोमवार, 25 मार्च 2013

44. होली में भांग: दो पुरानी यादें



       बचपन की बात है। हम बच्चों की टोली अपने ढंग से होली खेलने में मस्त थी।
       श्रीकिशुन चाचा (गाँव में वे "मोछू" नाम से जाने जाते हैं। आज सत्तर से ऊपर उम्र है, मगर मूँछें आज भी कड़क हैं।) हमें बुलाकर सभी बच्चों की हथेली पर एक-एक गोली रख देते हैं। दोस्तों ने बताया, यह भांग है। मैंने सोचा, सभी तो नहीं, मगर दो-तीन दोस्त तो इसे खायेंगे ही, खासकर- उत्तम और रंजीत, और मैंने खा लिया।
       बच्चों की होली काफी सुबह शुरु होती है, जबकि बड़ों की होली देर से। अपनी होली खत्म कर हमलोग बड़ों की एक टोली के साथ पिछलग्गू बनकर घूम रहे थे। रेल लाईन हमारे बरहरवा को दो हिस्सों में बाँटती है। उस पार जाने के लिए जब टोली रेलवे क्रॉसिंग से गुजर रही थी, तब मुझे अहसास हुआ कि मेरे पैरों में पाईप डालकर उसमें कोई हल्की गैस भर दी गयी है- अगर मैं जरा भी उचका, तो हवा में उड़ने लगूँगा। मैं सम्भल कर जमीन पर पैर जमाते हुए चलने लगा। मैं नहीं चाहता था कि किसी को पता चले कि मैंने भांग खा ली है।
       अपने को नियंत्रित रखते हुए मैं सही-सलामत घर लौट आया। इसके बाद हम सभी दोस्त उत्तम के घर के पीछे वाले तालाब में नहाने गये।
       नहाने की बात पर याद आया- होली में अक्सर हमलोग अलग-अलग तालाबों में नहाने जाते थे। एकबार 'साहेब पोखर' में नहाते वक्त मजेदार वाकया हुआ था। बिनय जैसे ही नहाकर बाहर आया, किसी ने लाल रंग चुपके से उसके माथे पर डाल दिया। बाद में सभी गम्भीरता से कहने लगे- अरे, जब तुम तैर रहे थे, तब 'पनडुब्बी' (पानी में रहने वाली काले रंग की एक चिड़िया) ने कहीं चोंच तो नहीं मार दिया? खून निकल रहा है! वह दुबारा डुबकी लगाकर निकला- फिर किसी ने चुपके से रंग डाल दिया! बहुत देर के बाद उसे मामला समझ में आया था।
       खैर, नहाते वक्त जब मेरे दोस्तों ने देखा कि मैं बालों में साबुन घुमाये जा रहा हूँ- घुमाये जा रहा हूँ, तब वे समझ गये कि मुझपर भांग का असर हो गया है। तब मुझे पता चला कि मेरे अलावे किसी ने वह गोली नहीं खायी थी- कुछ ने नाटक किया था खाने का। खैर, अब उपाय पर चर्चा हुई। पता चला, नीम्बू का अचार खाना पड़ेगा। मैंने सोचा, अगर मैंने माँ से नीम्बू का अचार माँगा, तो सबको पता चल जायेगा। तब प्रीतम ने कहा, हम अपने घर ले आयेंगे।
       प्रसंगवश, प्रीतम मेरा गहरा दोस्त रहा है। 18-20 की उम्र में ही वह हमें छोड़कर चला गया। उसके बारे में जब भी सोचता हूँ, मुझे शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित एक चरित्र "लालू" की याद आ जाती है।
       घर आकर जब मैंने देखा कि प्रीतम आने में देर कर रहा है और मेरी हालत खराब होती जा रही है, तब मैंने चाची को जाकर भांग वाली बात बता दी। चाची बोली, कोई बात नहीं, हम पानी गर्म कर देते हैं, एक कप गुनगुना पानी पी लो। लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि इससे उल्टी होगी। वर्ना मैं पिछवाड़े में जाकर वह पानी पीता।
मैंने आँगन में ही पानी पी लिया। प्रीतम भी नीम्बू का अचार ले आया। अचार का एक या दो टुकड़ा ही काटा था कि जोर से उल्टी आने लगी। मैं भागकर पिछवाड़े में गया, मगर तब तक सबको पता चल गया कि मैंने भांग खायी है।
खैर, उल्टी करके आराम मिला।
पिताजी ने चेतावनी दी- भूलकर भी भांग नहीं खाओगे।
***
वर्षों बाद।
वायुसेना स्थल, महाराजपुर, ग्वालियर में 'जी-3' बिल्लेट। 'बिल्लेट' यानि बैचेलर वायुसैनिकों का डोरमिट्रीनुमा आवास- इसे 'लिविंग-इन' कहा जाता है। जी-3 में हम करीब 28 बन्दे थे। होली से पहले बातचीत के क्रम में भांग का जिक्र आ गया और मैंने अपना अनुभव बता दिया कि इसका नशा होने पर आदमी जो काम करता है, वह करता रह जाता है। आम तौर पर हँसी नहीं रुकती। बहुतों को "उड़ने" का अहसास होने लगता है।
पता चला, उनमें से किसी को भी इसका अनुभव नहीं था। आनन-फानन में फैसला हो गया- रम-व्हिस्की को मारो गोली, इसबार होली में ठण्डई बनेगी- वह भी भांग वाली!   
        बिल्लेट में कई लड़के अलग से दूध लिया करते थे। होली की पूर्व सन्ध्या पर सबका दूध जमा कर लिया गया। सूखी भांग का किसी ने जुगाड़ किया था, उसे रातभर भींगने के लिए रख दिया गया। सुबह 'गुड्डे' के बिल्लेट से भांग पीसने के लिए 'सिल-बट्टा' लाया गया। अभिजीत को हमलोग 'गुड्डा' कहते थे- वह आम तौर पर हमलोगों के साथ ही रहता था। हम तीन दोस्त- राजीव देवगण, अभिजीत दत्ता और जयदीप दास- अक्सर साथ रहते थे और हमें 'थ्री-डी' (देवगण-दत्ता-दास) कहा जाता था। रात हमारे बिल्लेट में मेस की दाल को प्यांज, टमाटर से तड़का लगाया जाता था, या फिर दाल में अण्डा डालकर उसे फ्राय किया जाता था; मगर गुड्डे के बिल्लेट में बाकायदे अलग से सब्जी, मांस-मछली वगैरह बनती थी, इसलिए उनके पास मसाला पीसने के लिए सिल-बट्टा था।
       खैर, दूध में पिसी हुई भांग मिलायी गयी। 'किच्चू' (कृष्णा कुमार) बाहर लॉन से गुलाब की पंखुड़ियाँ तोड़ लाया- उसे भी पीसकर मिला दिया गया। चीनी वगैरह भी मिलाया गया।
       अब सबने गिलास भर-भर के पीना शुरु किया। सबके मुँह से यही एक बात- कहाँ कुछ हो रहा है? मैंने कहा- दो-तीन घण्टे बाद जब गर्मी बढ़ेगी, तब इसका असर शुरु होगा, इसलिए ज्यादा मत पीओ। कौन सुनने वाला था? पी-पीकर भगोने को खाली कर दिया गया- राउल ने तो हद कर दी- तलछट में बची भांग भी वह खा गया!
       कुछ देर बाद हम बाहर निकले। 'लिविंग-आउट' यानि फैमिली क्वार्टर्स होते हुए पटेल मार्केट जाकर वापस आना तय हुआ। जाते वक्त तो सभी सामान्य थे। परिचितों से मिलते-जुलते, रंग खेलते, पकवान खाते हुए हमसब पटेल मार्केट तक गये।
वापसी के समय गर्मी बढ़ गयी। कुछ लड़कों की चाल लड़खड़ाने लगी। राउल को सबसे ज्यादा प्यास लगने लगी। वह रास्ते में मिलने-जुलने वालों से मस्ती भी ज्यादा करने लगा। लोग भी उसपर बाल्टी भर-भर कर रंग डाल रहे थे। मैंने किच्चू तथा कुछ अन्य लड़कों से, जो पूरे होशो-हवास में थे, कहा- जितनी जल्दी हो सके, सबको लेकर बिल्लेट पहुँचने की कोशिश करो, नहीं तो तमाशा हो जायेगा।
सौभाग्य से, तमाशा नहीं हुआ। बिन गिरे-पड़े, बस हँसते-खिलखिलाते सभी लिविंग-इन इलाके में पहुँच गये।
तय हुआ, मेस में खाना खाते हुए चलते हैं। पहले मेस ही पड़ता था। डायनिंग टेबल पर खूब ठहाके लगाते हुए सभी खाना खा रहे थे। अचानक किसी को उल्टी आ गयी- पिचकारी की तरह उसकी उल्टी की धार सारे टेबल पर फैल गयी। डायनिंग हॉल में बैठे अन्य लड़कों को कोई ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ। हम 'जी-3' वाले मौज-मस्ती के लिए पहले से ही बदनाम थे। जिस रात अपने लॉन में हम पार्टी की तैयारियाँ करते थे, उस रात अगल-बगल के बिल्लेट वाले समझ जाते थे कि आज देर रात तक सोना मुश्किल हो जायेगा!
खाना अधूरा छोड़कर हम बिल्लेट में आये। अपनी-अपनी चारपाई पर बैठकर सभी एक-दूसरे की ओर ईशारा करके कह रहे थे- अरे देखो उसे, भांग चढ़ गयी.... और फिर ठहाके-ही-ठहाके।
अब ठीक से याद नहीं कि शाम कब तक और कैसे सबकी हालत सुधरी थी!
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मेरे कुछ जी-3 दोस्तों की एक झलक मेरे ब्लॉग 'आमि यायावर' में 'शिवपुरी' के तहत मिलेगी. 

गुरुवार, 14 मार्च 2013

43. "कलरव" के बहाने...



       स्कूली दिनों में हम जो कवितायें पढ़ते थे, उनमें से एक कविता की पंक्तियाँ थीं-
       "नहीं हुआ है अभी सवेरा
       पूरब की लाली पहचान
       चिड़ियों के जगने से पहले
       खाट छोड़ उठ गया किसान"
       अब जबकि जाड़ा चला गया है और गर्मी पूरी तरह से आयी नहीं है- स्थिति यह है कि पूरब में लाली छाने के साथ जब पंछीगण चहचहाना शुरु करते हैं, उसी समय आँखें खुल जाती हैं। (प्रसंगवश यह बता दूँ कि रात हमलोग देर तक नहीं जागते हैं- साढ़े नौ बजते-बजते हमारा "दीप-निर्वाण" हो जाता है। यह भी एक कारण है, मुँह अन्धेरे चिड़ियों की चहचहाहट के साथ आँखें खुल जाने का।)
       सबसे पहले तो पपीहे की "पीऊ-कहाँ" से शुरुआत होती है। मैंने सुना है, और एक जमाने में अनुभव भी किया है कि पपीहा कभी-कभी रात भर बोलता है। हो सकता है, वे चाँदनी रातें हों- ठीक से याद नहीं। पर खुले में सोते वक्त रात भर उसकी आवाज सुनने का अनुभव मुझे है।
       पपीहे के बाद शुरु होती है अलग-अलग स्वरों में कोयल की "कुहू-कुहू"। इस कुहू-कुहू में वाकई अलग-अलग तरह के स्वर और भाव होते हैं- कभी लगता है, कोई मनुहार कर रहा है, तो कभी लगता है कोई आवेश में आ गया है।
       तीसरे स्थान पर बटेर का "घूघू-घू" शुरु हो जाता है।
       इसके बाद तो अन्यान्य पंछियों की आवाजें ऐसे घुल-मिल जाती हैं कि समझना मुश्किल हो जाता है कि आखिर कितने तरह के पंछियों का वास इस इलाके में है! यह भी सही है कि ज्यादातर पंछियों की आवाजों को मैं पहचानता ही नहीं। हाँ, घरेलू मैनों, गौरैयों और कौओं की आवाज को पहचाना जा सकता है। मगर "टी-ट्वीट" करने वाली और "टटर-टटर" करने वाली चिड़िया का नाम मैं नहीं जानता। और भी कई आवाजों को मैं नहीं पहचानता।
       कुछ देर तक यह कलरव सुनने के बाद मस्जिदों से "अजान" सुनायी पड़ने लगती है।
       जहाँ तक मुर्गे की बाँग की बात है- मैं देख रहा हूँ कि उनकी मुँह-अन्धेरे वाली "पहली" बाँग यहाँ सुनायी नहीं देती। काफी उजाला फैल जाने के बाद जाकर उनकी "कूँकड़ू-कूँ" सुनायी पड़ती है। हो सकता है, शहरी मुर्गों की आदत कुछ अलग हो, या फिर मुझे ही धोखा हो रहा है। मगर मैं देहात में भी रहा हूँ और मुझे ध्यान है कि मुर्गे की "पहली" बाँग मुँह-अन्धेरे ही होनी चाहिए।   
       ***
       पिछले साल इस कलरव से जागने के बाद मैं टहलने चले जाया करता था। यह अर्द्धशहरी इलाका है- (जहाँ मैं फिलहाल नौकरी के सिलसिले में रह रहा हूँ। मेरा अपना घर तो "राजमहल की पहाड़ियों" की तलहटी में बसा है, जहाँ टहलने के लिए "प्राकृतिक" स्थानों की कमी नहीं है।) एन.एच.-57 शहर के बीच से गुजरता है- बहुत-से लोग इसके फोर-लेन फ्लाइ-ओवर पर टहलने आते हैं। मैं भी जाता था। मगर जल्दी ही महसूस किया कि ट्रकों की आवाजाही के कारण हवा में ताजगी नहीं है वहाँ। इससे ताजी हवा तो मेरी अपनी छत पर मिल जाती है। सो, टहलना बन्द कर मैंने अपनी छत पर "गहरी साँस" लेने की दिनचर्या शुरु कर दी थी। अभी भी मैं यही करता हूँ- हालाँकि किसी भी अभ्यास में मैं "नियमित" नहीं रहता हूँ। मन किया, तो किया, नहीं तो छोड़ दिया।
       प्रसंगवश, अब मैं अपने ढंग से "प्राणायाम" करता हूँ। 6 की गिनती तक साँस अन्दर भरना, 6 की गिनती तक साँस को अन्दर रोकना (कुम्भक), 6 की गिनती तक साँस को बाहर निकालना और 6 की गिनती तक साँस को बाहर ही रोके रखना (रेचक)। इन चारों क्रियाओं के चक्र को मैं कुल 12 बार दुहराता हूँ। इसके बाद हर चक्र के साथ एक-एक कर गिनती बढ़ाना शुरु करता हूँ। अभी तक मैं 17 की गिनती तक पहुँच पाया हूँ। शायद इससे आगे बढ़ना मुश्किल है। फिर भी, देखा जाय- मेरा लक्ष्य 24 की गिनती तक पहुँचना है!
       फेफड़ों में ताजी हवा भरने का काम तो इससे हो जाता है, मगर इससे शरीर की मांसपेशियों की कसरत तो नहीं होती। अतः, अगर कोई मेरी इस दिनचर्या को अपनाना चाहे, तो उन्हें बता दूँ कि इसके लिए आपको रात में खाना खाने से कुछ पहले "रनिंग ऑन द स्पॉट" करना चाहिए। रबर का फुटमैट बिछा लीजिये, उसपर पुरानी दरी भी डाल सकते हैं और फिर एक ही स्थान पर दौड़ना शुरु कर दीजिये। 1000, 2000 से लेकर 5,000 स्टेप्स तक की रनिंग की जा सकती है।
       किसी प्रदूषित इलाके में "मॉर्निंग/इवनिंग वाक" करने से तो यही बेहतर रहेगा।
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       हालाँकि जिनका जीवन महानगरों में बीता है, उन्हें शायद अनुभव ही न हो कि हवा में "ताजगी" किस तरह की होती है। (सम्भव है, "मुँह-अन्धेरे" वाली "कलरव" का भी उन्हें अनुभव न हो।) अन्य स्थानों पर कई बार रात जागने के क्रम में मैंने अनुभव किया है कि भोर के साढ़े तीन बजते-बजते हवा में एक अद्भुत किस्म की ताजगी आ जाती है, जो यातायात शुरु होने के साथ-साथ खत्म होने लगती है। इसका महानगरों में पूर्णतः अभाव होता है। महानगरों में रहते हुए मैंने अनुभव किया है कि "ब्रह्म-मुहुर्त" के वक्त भी वहाँ हवा में "ताजगी" नहीं होती। बल्कि मुझे एक खास किस्म की "महानगरीय-बदबू" (जिसमें फैक्ट्रियों, मोटर गाड़ियों के धुयें तथा गन्दे नालों की बदबू का मिला-जुला असर होता है) का अहसास सुबह-सुबह होता है।
...और मैंने देखा है कि इसी बदबूदार हवा में लोग-बाग "मॉर्निंग वाक" कर के प्रसन्न हो रहे हैं...  
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