मंगलवार, 16 नवंबर 2010

छठ: हमारे बरहरवा में

इस साल (2010) छठ 12 और 13 नवम्बर को था. 12 की सन्ध्या अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य (बोलचाल में 'अरख') देना था; जबकि 13 की भोर उदीयमान सूर्य को.
प्रस्तुत है, बरहरवा में मनाये जाने वाले छठ के कुछ छायाचित्र:-
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12 नवम्बर की सुबह छठ घाट को जाने वाला रास्ता.
एल.ई.डी बल्बों की सजावट वाले तीन सुन्दर बन्दनवार. चौथा द्वार अभी बन रहा है-

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घाट की सजावट भी अन्तिम दौर में है


घाट का दृश्य- विपरीत कोण से. जलाशय के बीच में जो मंच दीख रहा है, वहाँ सूर्यदेव की प्रतिमा स्थापित होगी-


सूर्यदेव की प्रतिमा तो बन चुकी है (अखबार से ढक दिया गया है), उनके सात घोड़े भी तैयार हैं. पास ही राजहँस विचर रहे हैं-


घरों में आँगन को गोबर से लीप कर (पीसे हुए चावल को पानी में घोलकर उस सफेदी से) 'आल्पना' बनायी जा रही है. घर के बरामदों और प्रवेशद्वारों पर भी आल्पना बनायी जाती है-





फल धोये जा रहे हैं-
(जिस कमरे में छठ का विशेष प्रसाद 'ठेकुआ' बनाया जाता है. वह तीन दिनों के लिए बहुत पवित्र होता है. वहाँ की तस्वीर नहीं ली गयी.)



छठ का 'डाला' सर पर रखकर घाट तक ले जाने के लिए बच्चे भी उत्साहित रहते हैं-


सूर्यास्त से कुछ पहले छठ-घाट की ओर जाते व्रतधारी और श्रद्धालु. कुछ व्रतधारी तो दण्डवत प्रणाम करते हुए जाते हैं, इसलिए सड़कों को धो दिया जाता है-



घाट पर बच्चों के मनोरंजन के लिए इनकी भी व्यवस्था है-


सात घोड़ों के रथ पर सवार सूर्यदेव की प्रतिमा जलाशय के बीच स्थापित हो चुकी है-


एक-एक कर व्रतधारी तथा श्रद्धालु घाट पर पहुँच रहे हैं-



कुछ ही मिनटों में सभी घाट भर जाते हैं-




पण्डितजी को बेड़े पर बैठाकर जलाशय के बीच बने मंच की ओर लाया जा रहा है. वे सूर्यदेव की प्रतिमा की पूजा करेंगे. (तस्वीर स्पष्ट नहीं है. यहाँ न मैं 'आधिकारिक' छायाकार हूँ और न मेरे पास कैमरा है. मेरी चाची और दीदी छठ करती हैं, अतः मैं खुद इसमें शामिल हूँ. मोबाईल कैमरे से ऐसे ही कुछ तस्वीरें ले ली गयी हैं.) 



सूर्यदेव भी अस्ताचल को जा रहे हैं- 



व्रतधारी- आमतौर पर महिलायें- जल में खड़े होकर अस्ताचलगामी सूर्य को प्रणाम करती हैं. फलों से भरे 'सूफ' को बारी-बारी से हाथों में लेकर सूर्य को अर्पित करती हैं और सभी श्रद्धालु उस 'सूफ' के सामने कच्चे दूध से सूर्य को अर्घ्य देते हैं-
(अर्घ्य की बेला में कुछ मिनटों के लिए घाट पर गहमा-गहमी इतनी  बढ़ जाती है कि एक कायदे की तस्वीर खींचना भी मुश्किल हो जाता है. हाँ, 'आधिकारिक' छायाकारों की बात अलग है.)







अर्घ्य देने के बाद सभी घर लौट जाते हैं. 



घाट का सूनापन कुछ समय के लिए भर जाता है, जब दुर्गा-पूजा समितियों को पुरस्कृत करने का कार्यक्रम चलता है. सजावट, 'स्वयंसेवक'-व्यवस्था तथा विसर्जन में शालीनता के मामलों में अव्वल रहने वाली समितियों को प्रखण्ड विकास पदाधिकारी और थानाध्यक्ष की उपस्थियि में पुरस्कृत किया जा रहा है-  



ब्रह्ममुहुर्त यानि सुबह साढ़े तीन बजे से एक-एक कर श्रद्धालु और व्रतधारी फिर जुटते हैं. यह 13 नवम्बर 2010 है. अब उदीयमान सूर्य को अर्घ्य देना है. 



जल्दी ही फिर घाट फिर भर जाते हैं- 



सूर्योदय में अभी देर है, अतः तब तक जमकर आतिशबाजी होती है- 





सूर्योदय हुआ, फिर पण्डितजी सूर्य के प्रतिमा की पूजा कर रहे हैं- 



इसी के साथ अर्घ्य देने की गहमा-गहमी शुरु हो जाती है-
(फिर वही मुश्किल, अर्घ्य देते हुए लोगों का एक फोटो खींच पाना नहीं हो पाता है.) 




अर्घ्य देने के बाद महिलायें एक-दूसरे को सिंदुर लगाती हैं- 



अगर बेड़े पर जाकर सूर्यदेव की प्रतिमा का फोटो लिया गया होता, तो बहुत सुन्दर फोटो आ सकता था-


घर लौटने पर व्रतधारियों के पैर धोये जाते हैं- 



बदले में मिलता है आशीर्वाद- 



ये जो छायाचित्र आप देख रहे हैं, ये बरहरवा के 'मुंशी पोखर' पर होने वाले छठ के दृश्य हैं. इसके अलावे रेलवे के विशाल तालाब ('कल पोखर') और 'झाल दीघी पोखर' में भी छठ के भव्य आयोजन होते हैं.
'मुंशी पोखर' वाले छठ के आयोजन की जिम्मेवारी 'न्यू स्टार क्लब' के नौजवान उठाते हैं, जिन्हें बड़ों का सहयोग और मार्गदर्शन प्राप्त रहता है. टीम के कुछ सदस्य- 





अन्त में, मनोहर भैया (मकुआ भैया) की सायकिल दूकान के बरामदे पर उनकी बेटियों द्वारा बनायी गयी सुन्दर रंगोली- 

















































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