चन्द्रगौड़ा एक छोटी-सी सन्थाली बस्ती का नाम है, मगर आजकल हमारे
बरहरवा तथा आस-पास के क्षेत्रों में यह प्रसिद्ध हो गया है। कारण है- यहाँ इसाई मिशनरियों द्वारा संचालित एक अस्पताल,
जो 2007 में यहाँ स्थापित हुआ था और अभी यह और भी बड़ा बनेगा।
बाकी बीमारियों के ईलाज के बारे में पता नहीं, मगर प्रसव के
लिए जरुरी सारी सुविधायें यहाँ उपलब्ध हैं। डॉक्टर एवं नर्सों की संख्या भी
पर्याप्त है। पूर्वोत्तर एवं दक्षिण भारत की नर्सों को यहाँ देखकर थोड़ा आश्चर्य भी
हुआ- दूर-दराज के एक छोटे-से अस्पताल में रहते और काम करते हुए पता नहीं वे कैसा
महसूस करती होंगी। देखने में तो सब खुश नजर आ रही थीं। जरुर इनके मन में बेबसों की
"सेवा की भावना" भी होगी- सिर्फ "नौकरी" के लिए शहर/बाजार का
कोई बासिन्दा शायद ऐसे पिछड़े स्थानों में रहना न चाहे।
बरहरवा से बरहेट जाते वक्त पहले "राजमहल की पहाड़ियों"
की दो श्रेणियों को पार करना पड़ता है- दोनों आपस में जुड़ी हुई हैं। एक साँप-जैसी
सड़क इन पहाड़ियों पर चढ़ती-उतरती है। उतरने के बाद यह सड़क चार-पाँच और भी श्रेणियों
को पार करती हैं- मगर अगल-बगल से- पहाड़ियों पर बिना चढ़े। बीच में रांगा नामक एक
कस्बा आता है, उसके बाद एक छोटी-सी बस्ती (नाम अभी ध्यान नहीं) के बाद एक अलग सड़क
अस्पताल के लिए घूम जाती है- पहाड़ी की तलहटी से होती हुई।
पिछले दिनों कई बार वहाँ जाना हुआ। रास्ते में बहुत तस्वीरें
खींची जा सकती थी, मगर मुझे लगा, इसके लिए बरसात का मौसम सही रहेगा। फिर भी,
चन्द्रगौड़ा बस्ती के आस-पास में दो-चार तस्वीरें उतार ली थीं- वे ही यहाँ प्रस्तुत
हैं। तस्वीर में "झोपड़ियों" की स्थिति को देखकर आप सहज ही अनुमान लगा
सकेंगे हमारे देश के अन्दर दूर-दराज के इलाकों में लोग कैसा जीवन बिताते हैं...
देश आजाद होने के प्रायः सात दशक बाद भी...
प्रसंगवश दो बातों का जिक्र जरुरी है।
पहली, बरहरवा भले छोटा-मोटा शहर है, मगर यहाँ चिकित्सा की
कोई खास सुविधा उपलब्ध नहीं है- न सरकारी, न निजी। लोग आम तौर पर बंगाल के शहरों (मालदा,
रामपुरहाट, बर्द्धमान इत्यादि) या बिहार के भागलपुर का रुख करते हैं- ईलाज के लिए। कहने को दो लेडी
डॉक्टर हैं यहाँ, मगर उनकी 'ख्याति' के सामने 'सु' शब्द लगाने से लोग हिचकेंगे... ।
समझता हूँ, देश के ज्यादातर कस्बों-छोटे शहरों की यही कहानी होगी।
दूसरी, अक्सर सोचता हूँ, हमारे जो बड़े-बड़े तीर्थ हैं-
तिरुपति, जगन्नाथपुरी, वैष्णों देवी, इत्यादि, जिनके पास अरबों-खरबों रुपये की
फिक्स्ड डिपॉजिट पड़ी-पड़ी सड़ रही हैं, वे आखिर कब इस देश में इसाई-मिशनरियों को
टक्कर देते हुए शिक्षण-संस्थानों एवं अस्पतालों की शृँखला कायम करेंगे? कभी करेंगे
भी या नहीं? (ध्यान रहे- मैं दो-चार संस्थानों की बात नहीं कर रहा हूँ, एक शृँखला
कायम करने की बात कर रहा हूँ।)
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पुनश्च:
मुझे अपने स्कूटर के प्रति यहाँ आभार व्यक्त करना चाहिए- वह
'निर्जीव' है तो क्या?
यह बजाज का 4स्ट्रोक स्कूटर है- "लीजेण्ड"।
नम्बर- PB56-8499।
पंजाब
के रायकोट में रजिस्टर्ड। 1999 का
स्कूटर है। उन दिनों मैं लुधियाना-रायकोट के बीच 'हलवारा' में था। (इसका नम्बर
मैंने बताया न- 8499, इसे तारीख में बदलने पर बनेगा- 8-4-99 और इसे मैंने खरीदा था
5-4-1999 के दिन!) खैर। मैं इसे चलाता नहीं हूँ- पहले भी कम ही चलाता था। मगर
चन्द्रगौड़ा जाते वक्त इसने आराम से पहाड़ियों को पार किया। जब मैं पीछे श्रीमतीजी
और सामने अपनी भतीजी को लेकर गया था, तब भी इसने पहाड़ियों को आराम से पार किया।
भले यह तेज न चलता हो, मगर वक्त पर इसने मेरा बहुत साथ निभाया। इसलिए यहाँ मैं
उसके प्रति आभार व्यक्त करता हूँ...







अच्छी जानकारी मिली।
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