आज सुबह मौसम सुहाना था- बदली छायी थी, ठण्डी हवायें चल रही थीं। मैंने साहेबगंज स्टेशन पर मालदा-जमालपुर इण्टरसिटी
एक्सप्रेस छोड़ दी- सोचा, दो घण्टे बाद गया पैसेन्जर से आगे जाऊँगा। आज नरेन्द्र
"नीर" जी से मिल ही लूँ। प्रायः पाँच वर्षों से उनसे सम्पर्क नहीं है-
इस दौरान मैं नौकरी के सिलसिले में अररिया में रह रहा था। जून से बरहरवा में हूँ-
प्रायः रोज ही साहेबगंज से गुजरता हूँ, मगर उतरकर कभी "नीर" साहब का पता
लगाने की कोशिश नहीं करता हूँ कि वे कैसे हैं।
आज उनका घर खोजते हुए पहुँच ही गया। उनके
परिचय में फिर कभी- फिलहाल उनकी एक ताजा रचना:
"...न
चाहते हुए भी आजादी के नाम तसलीम किया... साम्प्रदायिक बँटवारा... फिर दिनों-दिन
बँटते ही चले गये... भाषा/समुदाय/क्षेत्रवार... पता नहीं, आगे इस अमल की वजह किस
शर्मसार दीवार के नीचे आ जाना पड़े... और आज नेता/नौकरशाह/धनजन्तुओं की बारमूडा साजिश
के दरम्याँ... तलाश रहा है अपने हिस्से का हिन्दुस्तान... शुक्र है न हुआ
पुरुषार्थहीन/सम्भावनारहित... आम आदमी---
जद्दो-जहद
से सीखा दुश्वारियों के हल
मुनासिब हको-हकूक में लाजिम नहीं खलल
ठोकरों पे रक्खा जरो-याकूत की पहल
वो है आम आदमी/है वो आम आदमी।
गम नहीं न हुए तारीख-दर्ज ही कभी
फख्र है न रहे गुरेजे-फर्ज ही कभी
न खोया किसी मकाम तमीजो तर्ज ही कभी
वो
है आम आदमी/है वो आम आदमी।
खाता भला खौफ क्यों तख्तो-ताज से
तोड़ी खाना-ए-नक्कार तूती आवाज से
मंजिलें सय्यार को बख्शी परवाज से
वो
है आम आदमी/है वो आम आदमी।
सरे आम खुद को जब लामबन्द किये
रहे अवाम संग रवाँ खुदी बुलन्द किये
जमींदोज एक एक फसीलो फन्द किये
वो
है आम आदमी/है वो आम आदमी।
ये बाजी नहीं आसाँ जाहिर है मुसलसल
न जीत राहतदेह न हार ही में कल
गवांने को पास क्या न फर्श न महल
वो
है आम आदमी/है वो आम आदमी।
आखिर जुल्मो-जबर कितने इजाद करोगे
वक्त साजिश में नाहक बरबाद करोगे
गिरोगे औंधे मुँह फिर याद करोगे
वो है आम आदमी/है वो आम आदमी।"
सुन्दर रचना। आभार।।
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ज्ञान - तथ्य ( भाग - 1 )