जगप्रभा

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मंगलवार, 5 नवंबर 2019

222. आँवले की छाँव में-


हमें नहीं पता था कि वर्ष में एक दिन ऐसा भी होता है, जिस दिन आँवले के पेड़ के नीचे भोजन करने की परम्परा है। आज पहली बार पता चला और पहली बार हमने आँवले के पेड़ के नीचे भोजन किया।
       दिवाली के बाद अभी-अभी तो छठ महापर्व की गहमा-गहमी समाप्त हुई और बीते कल ही "गौशाला मेला" था। गौशाला मेला यानि "गोपाष्टमी" त्यौहार। हमारे यहाँ बिन्दुवासिनी पहाड़ के पिछले हिस्से में शाम के वक्त इस दिन छोटा-सा मेला लगता है। किसी समय इस मेले का स्वरुप बहुत बढ़िया था। लोग अपने पालतू पशु-पक्षियों को लेकर आते थे, एक निर्णायक-मण्डल सबका निरीक्षण करता था और प्रखण्ड विकास पदाधिकारी की ओर से पुरस्कार-वितरण होता था। बाकी चाट-पकौड़ियों की दुकानें सजती थीं। कहने की आवश्यकता नहीं, इस सुन्दर परम्परा की शुरुआत "पहाड़ी बाबा" ने की थी, जो 1960 से '72 तक यहाँ "बिन्दुधाम" में रहे थे और जिन्होंने इस धाम को भव्य रुप प्रदान किया था। (मेरा एक अलग ब्लॉग ही है बिन्दुधाम तथा पहाड़ी बाबा पर- यहाँ क्लिक करके आप उसे देख सकते हैं।) अब स्वरुप बदल गया है, लेकिन एक शाम का मेला जरुर लगता है। लोग बिन्दुधाम की गौशाला में जाकर गायों को अपने हाथों से कुछ खिलाते हैं।
       खैर, तो गौशाला मेला कल समाप्त हुआ और आज पता चला कि आँवले के पेड़ के नीचे खाना खाने के लिए मुझे डेढ़ बजे बिन्दुवासिनी पहाड़ पहुँचना है। पता चला, आज की नवमी को "आँवला नवमी" (या "अक्षय नवमी") कहते हैं। यह मेरे लिए नयी जानकारी थी। ... तो इस प्रकार, आज आँवले के पेड़ के नीचे खाना खाकर हम आये। (विडियोफेसबुक पर)
हम-जैसे लोग किसी भी विषय पर सोचना शुरु कर देते हैं। इस पर भी हमने सोचा, तो पाया कि हमारे पूर्वजों ने प्रकृति से जुड़े रहने के लिए इस तरह की परम्पराओं की शुरुआत की होगी, मगर अफसोस कि हम आज ऐसी परम्पराओं को "रूढ़ियों" की तरह निभा तो रहे हैं, मगर इनके पीछे छुपे सन्देश को पूरी तरह से भूल गये हैं। नहीं तो ऐसी परम्पराओं वाले देश में प्रकृति, पर्यावरण और जैव-विविधता दुनिया में सर्वोत्तम होनी चाहिए थी!
सोच आगे बढ़ी, तो पाया कि विवाह-जैसे संस्कारों में ऐसी अनेक रीतियाँ होती हैं, जिनमें समाज के अलग-अलग वर्गों से सम्पर्क करने की जरुरत पड़ती है। इन रीतियाँ को हमारे पूर्वजों ने सामाजिक समरसता को बनाये रखने के लिए गढ़े होंगे, मगर यहाँ भी अफसोस कि इन रीति-रिवाजों को रूढ़ियों की तरह निभाया जाता है और व्यवहार में सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास किया जाता है।
यह कुछ ऐसा ही है, जैसे कि बुद्ध ने जटिलताओं एवं रूढ़ियों से बचने के लिए एक सरल धर्म की स्थापना की और उनके अनुयायियों ने आज इस धर्म को एक जटिल एवं रूढ़ियों से परिपूर्ण धर्म में बदल दिया! हमने रामकृष्ण मिशन में रामकृष्ण परमहँस की प्रतिमा भी देखी है, जिनकी बाकायदे पूजा-अर्चना होती है। रामकृष्ण परमहँस आज धरती पर आ जायें, तो बेशक, सबसे पहले वे अपनी मूर्तियों को तुड़वायेंगे!
लगे हाथ यह भी बता दें कि हमने भी अपने घर के सामने आँवले का एक पेड़ रोपा है, मगर वह अभी तक तनकर खड़ा नहीं हो पाया है- लम्बा अच्छा-खासा हो गया है। शायद धूप कम मिलने के कारण ऐसा है। (विडियो फेसबुक पर) भविष्य में शायद कभी इसके नीचे आज के दिन भोजन पके और सब मिलकर खायें।
आँवले से याद आया। श्रीमतीजी हर साल खुद ही च्यवनप्राश बनाती हैं। यह दो-तीन महीने चलता है, जबकि कहा जाता है कि आँवला सालों भर किसी न किसी रुप में खाना चाहिए। इसका तोड़ हमने यह निकाला है कि कुछ आँवले को काटकर उसमें नमक मिलाकर धूप में सुखा लिया जाता है। फिर यह सालभर चलता है। खाना खाने के बाद इसके एक टुकड़े को चूसना अच्छा लगता है। वैसे, आँवले की मीठी कैण्डी भी बनायी जा सकती है। श्रीमतीजी ने इसे भी बनाया है। यु-ट्युब में इनसे समन्धित ढेरों विडियो मिल जायेंगे।
अन्त में, एक बुजुर्ग की बात, जो वे अक्सर कहा करते थे-
"बुजुर्गों की बात और आँवले का असर देर से होता है!"
इति। 
*** 
जब बिन्दुवासिनी पहाड़ चले ही गये थे, तो ऐसा कैसे हो सकता है कि कुछ छायाकारी न करें- 


यह गुरूमन्दिर है

मुख्य मन्दिर का पश्चिमी द्वार

एक तने पर उगे मशरूम नजर आये

दीक्षा कुटीर

पहाड़ी बाबा की कुटिया

एक चबूतरा

जंगली फूल हमेशा आकर्षित करते हैं हमें

दूर से- वह आँवले का पेड़, जहाँ पूजा हो रही थी
 

बुधवार, 2 अक्तूबर 2019

221. जलप्लावन'2019


पिछ्ले हफ्ते के मंगलवार से शुरु हुई वर्षा इस हफ्ते सोमवार तक जारी रही। इन सात दिनों की बरसात में हमारे बरहरवा के दक्षिण में सैकड़ों वर्गकिलोमीटर का क्षेत्र एक विशाल झील में परिणत हो गया। कल वर्षा रुकी थी, तो ये कल की तस्वीरें हैं।
यह जो झील बनी, इसका एक किनारा तो गंगा नदी है, दूसरा किनारा गुमानी नदी है और तीसरा किनारा राजमहल की पहाड़ियाँ हैं। यानी लगभग में यह एक त्रिभुजाकार झील है।
गुमानी एक पहाड़ी नदी है, जो पहाड़ियों से उतरने वाले वर्षा जल को फरक्का के पास गंगा तक ले जाती है। फरक्का में बाँध है, जिस कारण यहाँ गंगा का बहाव धीमा हो जाता है। बाँध के दरवाजों से पानी हालाँकि निकल रहा है, लेकिन जो रफ्तार है, उससे लगता है कि पानी उतरने में तीन दिन लग जायेंगे- बशर्ते कि फिर वर्षा न हो!
बताया जा रहा है कि धान की पैदावार लगभग एक चौथाई घट जायेगी। बाकी जो नुकसान हो रहा है, वो तो है ही।
***
कल हमने एक लेख साझा किया था (फेसबुक पर, लिंक यहाँ है), जिसमें बताया गया है कि टिहरी बाँध के कारण मैदानी इलाके में गंगा का बहाव धीमा हो गया है, जिसके फलस्वरुप गंगा अपनी गाद को बहाकर नहीं जा पा रही है। गाद नहीं बहने से गंगा की गहराई कम होती है और बाढ़ के समय पानी अगल-बगल ज्यादा फैलता है।
बाढ़ एक प्राकृतिक घटना है। अगर "प्राकृतिक" रुप से हर साल या दो-चार साल में एकबार बाढ़ आने दिया जाय, तो गंगा की पल्ली मिट्टी खेतों पर आ जाती है और इससे कृषि को बहुत फायदा होता है। प्राकृतिक स्वरुप में गंगा का बहाव भी तेज होगा, बाढ़ पानी जल्दी उतरेगा और गंगा की गहराई भी बनी रहेगी। पर टिहरी बाँध ने गंगा के "प्राकृतिक" बहाव को समाप्त कर दिया है!
फिर भी, गंगा किसी तरह अपनी गाद को भागलपुर तक बहा लाती है। यहाँ आकर गंगा की हिम्मत और ताकत जवाब दे देती है, क्योंकि आगे फरक्का बाँध बहाव को रोक रहा होता है। नतीजा? गंगा में विशाल टापुओं का निर्माण। इन्हें हिन्दी में "दियारा" और बँगला में "चर" कहते हैं। दियारा पहले भी होते थे, पर फरक्का बाँध बनने के बाद से इनका क्षेत्रफल बहुत बढ़ने लगा है। कहीं कोई शोध या अध्ययन तो होता नहीं, इसलिए लगता नहीं है कि कोई आँकड़ा उपलब्ध होगा कि 1970 से पहले दियारा का कुल क्षेत्रफल कितना था और अब कितना है।
फरक्का बाँध ने जलजीवों को भारी नुकसान पहुँचाया है। मीठे पानी की कुछ मछलियाँ प्रजनन के लिए खारे पानी में जाती थीं और इसी प्रकार, खारे पानी की कुछ मछलियाँ प्रजनन के लिए मीठे पानी में आती थीं। आपने शायद "हिल्सा" मछली का नाम सुना हो। कभी यह समुद्र से निकलकर बहाव के विरुद्ध तैरते हुए हरिद्वार तक जाया करती थी, आज यह फरक्का बाँध के उस तरफ ही रह जाती है! भले इनके लिए नहर आदि बनाने की बात हो रही है, पर लगता नहीं है कि यह "कृत्रिम" उपाय कोई काम आयेगा।
गंगा की जो "डॉल्फिन" है- जिसे स्थानीय भाषा में "सोंस" कहते हैं और जो एक नेत्रहीन मासूम बड़ी मछली होती है- हमें लगता है कि इसका भी विचरण क्षेत्र फरक्का बराज के चलते सिकुड़ गया है और इनकी संख्या भी कम हो रही होगी!
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फरक्का बाँध से सिर्फ हम आस-पास वाले लोग ही बुरी तरह से प्रभावित नहीं हैं, बल्कि भागलपुर और पटना तक के लोग इससे प्रभावित हैं। इस बाँध से न तो कोई सिंचाई होती है (मेरी जानकारी में तो इससे कोई नहर "सिंचाई" के लिए नहीं निकलती है) और न ही इससे "पनबिजली" बनती है। (न्यू फरक्का में जो बिजलीघर है, वह "ताप" बिजलीघर है- थर्मल पावर स्टेशन- झारखण्ड के कोयले को जलाकर वहाँ बिजली बनती है। बदले में झारखण्ड अन्धेरे में डूबा रहता है- यह एक अलग विषय है।)
आप जानना चाहेंगे कि आखिर फरक्का बाँध से लाभ क्या है? पटना से लेकर फरक्का तक- 300 किमी की लम्बाई में गंगा किनारे रहने वाले लोगों से पूछकर देखिये, उनका जवाब बड़ा रोचक होगा। वे कहेंगे- फायदा तो इससे कुछ नहीं है, नुकसान ही नुकसान है, मगर इसी बराज के के चलते भारत ने बाँग्लादेश को "टाईट" कर रखा है!
"बाँग्लादेश को टाईट करने के लिए फरक्का में बराज बन रहा है"- यह इंजेक्शन 1970 के दशक वाली पीढ़ी को दिया गया था, मगर आज दस साल का एक बच्चा भी आपको यही जवाब देगा। मेरे ख्याल से, विश्व का यह एकमात्र ऐसा "मनोवैज्ञानिक" इंजेक्शन है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी अपना असर दिखा रहा है।
(वैसे, जहाँ तक मेरी जानकारी है, कोलकाता के डायमण्ड हार्बर बन्दरगाह में पानी की उपलब्धता बनाये रखने के लिए यह बाँध बना था। चूँकि यहाँ से गंगा की एक शाखा बाँगलादेश जाती है, इसलिए बाँग्लादेश के साथ एक समझौता भी है कि कब कितना पानी उसके लिए छोड़ना है।)
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जो हो, व्यक्तिगत रुप से मैं "बाँध विरोधी" हूँ और मेरा मानना है कि दुनिया की हर नदी को स्वाभाविक और प्राकृतिक रुप से बहने देना चाहिए। वैसे भी, "सीमेण्ट" की एक आयु होती है, जो सौ-डेढ़ सौ साल से ज्यादा नहीं हो सकती। 1930-40 से बाँध बनाने के फैशन चला है, अब देखा जाय कि 2030-40 के बाद से इन बाँधों की क्या गति होती है!

(छायाचित्रों में एक तस्वीर मेरे घर के सामने की है, एक-डेढ़ दिन के लिए यहाँ भी पानी जमा हो गया था।)
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पुनश्च: ऊपर एक लेख का जिक्र है. यह लेख ''झुनझुनवाला इकोनॉमिक्स" पेज पर है. शीर्षक है: "हम स्वयं बुला रहे बाढ़ की तबाही...". बाद में उसी पेज पर एक और लेख प्रकाशित हुआ है, जिसका शीर्षक है: "फरक्का का तांडव..". इस लेख का लिंक यहाँ है. 















शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

220. जय जवान, जय किसान


मेरी एक दबी हुई इच्छा थी कि 'जय जवान' के बाद 'जय किसान' की भी भूमिका निभाऊँ, मगर हो नहीं पाया था। पिताजी, दादाजी डॉक्टर होने के साथ-साथ खेती-बाड़ी पर पूरा ध्यान रखते थे। हमारी पीढ़ी ने नजरअन्दाज कर दिया। दूसरी बात, रासायनिक खाद और कीटनाशकों से मुझे सख्त नफरत है, जबकि जो लोग खेती-बाड़ी देख रहे हैं, वे इन्हें अनिवार्य मानते हैं। लाख समझाने का भी असर नहीं पड़ता। मिट्टी सख्त हो रही है, उत्पादन घट रहा है- यह उन्हें भी दिख रहा है, पर वे भी मजबूर हैं। जैविक खेती के बारे में जानकारियाँ हासिल कर मैंने उनलोगों तक पहुँचाई, पर वे उत्साहित नहीं हुए। मुझे लग रहा था कि मुझे ही कमर कसना होगा।
अभी हाल में गाजियाबाद स्थित NCOF (National Centre for Organic Farming) द्वारा तैयार "बायो-डिकम्पोजर" की जानकारी मिली। इस जानकारी के आधार पर यही लग रहा है कि जैविक खेती "आसानी से" की जा सकती है। शुरुआत सोच रहा हूँ मशरूम उगाने से किया जाय। यह काम यहाँ घर पर रहते हुए ही किया जा सकता है। सफल होने पर अपने खेत में (सात किमी दूर है) जैविक तरीके से सब्जियाँ उगाई जायेंगी। वह भी सफल रहने पर तीसरे चरण में चावल-गेहूँ पर इसका प्रयोग किया जायेगा।
अर्द्ध-सरकारी संस्थान में नौकरी दस साल और बची है, मगर मन उचट चुका है। छोड़ने का इरादा पक्का कर लिया है। यानि जीवन की तीसरी पारी खेलने का मन बना लिया है। हालाँकि बँगला से हिन्दी अनुवाद का जो मेरा शौकिया काम है, वह भी जारी रहेगा।
कभी-कभी सोचने से हैरान होना पड़ता है कि मेरे-जैसे आजाद और कलाकार तबीयत के आदमी ने 20 + 10 साल नौकरी करते हुए बिता कैसे लिया! (यह और बात है कि नौकरी हमने अपने अन्दाज में की है।)
...अब आजाद जिन्दगी!
जिन्दगी, आ रहा हूँ मैं...