जगप्रभा

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रविवार, 25 अक्तूबर 2015

143. दुर्गा पूजा और मुहर्रम


       महालया के दिन माँ दुर्गा सपरिवार अपने मायके आती है और विजयादशमी के दिन लौट जाती है। इसी अवसर पर दुर्गा-पूजा मनाया जाता है। देश के पूर्वी प्रान्तों में माँ दुर्गा की प्रतिमा महिषासुर का वध करती हुई स्थापित होती है। उनके अगल-बगल गणेश, लक्ष्मी, सरस्वती और कार्तिक की प्रतिमायें होती हैं। छठी पूजा के दिन माँ दर्शन देती है; सप्तमी, अष्टमी, नवमी के रोज लोग खूब घूमते हैं और दशमी के दिन इन प्रतिमाओं का जल में विसर्जन करते हुए माँ को सपरिवार विदा कर दिया जाता है। बंगाल में तरह-तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि की धूम रहती है।
देश के पश्चिमी प्रान्तों के लोग, जिन्होंने ऐसी पूजा नहीं देखी है, वे आश्चर्य करेंगे कि इतनी सुन्दर प्रतिमाओं का जल में विसर्जन कर दिया जाता है! (ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि मेरी श्रीमतीजी, जो को देश के पश्चिमी हिस्से की है, वह शुरु-शुरु में बहुत अफसोस किया करती थी कि इन प्रतिमाओं को विसर्जित क्यों करते हैं? सजाकर रखते क्यों नहीं?)
दरअसल, पश्चिमी प्रान्तों में दुर्गा पूजा को नवरात्र के रुप में मनाया जाता है, जहाँ घरों में महिलायें आठ या नौ दिनों के लिए कलश की स्थापना करती हैं। ग्वालियर में रहते हुए मैंने माँ दुर्गा की प्रतिमायें देखी जरुर थीं, मगर वे सिंहवाहिनी दुर्गा की एक ही प्रतिमा होती थीं, जो पूरे नौ या दस दिनों तक स्थापित रहती थीं। वैसे, अगर सुन्दरता की बात की जाय, तो पूर्वी प्रान्तों की प्रतिमायें ही ज्यादा सुन्दर होती हैं। सबसे बड़ी बात, इधर चूँकि माँ दुर्गा के साथ गणेश, कार्तिक, लक्ष्मी, सरस्वती की भी प्रतिमायें होती हैं, इसलिए पूरा दृश्य और भी सुन्दर हो जाता है।
यह भी एक तथ्य है कि देश के किसी भी शहर में अगर बंगवासियों की संख्या पर्याप्त है, तो लोगों को वहाँ माँ दुर्गा की "सपरिवार" प्रतिमायें देखने मिल जायेंगी।
(बात यहाँ आस्तिकता-नास्तिकता की नहीं है; मूर्ति पूजा के औचित्य की बात भी नहीं है; और सुर-असुर के रुप को सवर्ण-दलित के रुप में देखने की बात तो बिलकुल नहीं है। सीधी-सी बात है, यह ऋतु का सन्धि काल है, मौसम सुहाना होता है, लोगों को ऐसे मौसम में त्यौहार मनाना और इसी बहाने जीवन में आमोद-प्रमोद को शामिल करना अच्छा लगता है। ऐसा होना चाहिए, होते आया है, होते रहेगा। ज्यादा दिमाग खपाना उचित नहीं- मेरी समझ से।)
खैर, हमारे बरहरवा में कुल सात दुर्गा-पूजा मण्डप हैं। हर साल की भांति इस साल भी पूजा धूम-धाम से मनी। मैं तस्वीरें नहीं खींच पाया, यह और बात है।
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इस बार जो विशेष बात रही, वह यह कि दुर्गा पूजा के साथ ही मुहर्रम भी चल रहा था। बरहरवा में मुहर्रम पर गीत गाते और खून बहाते हुए मातमी जुलूस तथा ताशे की धुन पर लाठियाँ खेलते हुए ताजिया जुलूस दोनों निकलते हैं। दोनों जुलूसों का समय अलग-अलग होता है। इस बार मुहर्रम में कुछ बातें मैंने नोट की और इसीलिए इस पोस्ट को मैं लिख रहा हूँ।
विजयदशमी के दिन बरहरवा में सिर्फ एक ही प्रतिमा का विसर्जन हुआ, बाकी प्रतिमाओं का विसर्जन अगले दिन यानि बीते शुक्रवार को हो रहा था। (आम तौर पर वृहस्पतिवार को बेटी को विदा नहीं किया जाता।) इधर हम नवरात्र/दुर्गा-पूजा के कारण एक दिन भी "मज़लिस" में नहीं जा पाये थे, जहाँ इमाम हुसैन तथा उनके परिजनों की शहादत की कहानियों दस दिनों तक चलती है। (इस पर मेरा एक विस्तृत आलेख क्रमांक 42 पर है- 'सक़ीना' नाम से)।
शुक्रवार को हम जाने के लिए तैयार थे, मगर रात के साढ़े नौ बजे के बाद भी मज़लिस शुरु होने की आवाज नहीं आयी (लाउडस्पीकर पर)- जबकि नौ बजते-बजते आवाज आ जाया करती थी। दस बजे करीब मैं सरबर ईरानी साहब के घर गया- पता लगाने कि आज मज़लिस होगी या नहीं। सरबर साहब ने बताया कि चूँकि आज आखिरी रात है और आज हमलोग रातभर जागते हैं, इसलिए देर से शुरुआत करेंगे। आपलोग साढ़े दस बजे रात तक आ जाईये। मुझे लगा, वे सही कह रहे होंगे। बाहर निकलते वक्त मौलाना साहब मिल गये, जो हर साल लखनऊ से आते हैं। असली बात उन्होंने मुझे बतायी- आपलोगों की पूजा जो घूम रही है न, इसलिए हमलोग देर कर रहे हैं।
तब मेरा ध्यान गया कि विसर्जन के लिए माँ दुर्गा की प्रतिमाओं के साथ हमारे जुलूस भी तो घूम रहे हैं- पूरे बाजे-गाजे के साथ। अभी कुछ ही देर पहले ऐसा एक जुलूस हमारे मुहल्ले से होकर गुजरा था। ऐसे में, अगर इनका लाउड स्पीकर भी उस वक्त ऑन रहता, तो क्या अटपटा नहीं लगता? एक तरफ खुशी के बाजे-गाजे और दूसरी तरफ मातमी स्वर... ।
जो भी हो, मुझे उनका यह निर्णय बहुत अच्छा लगा।
कल मुहर्रम के दोनों जुलूस निकले- एक दोपहर से पहले, दूसरा दोपहर के बाद।
आज शाम ताजिया के साथ एक और जुलूस निकला। ताशा बज रहा था, नौजवान लाठियाँ खेल रहे थे... अचानक मेरा ध्यान गया- एक तिरंगे पर। तिरंगा! यह तो पहली बार मैं देख रहा था- विशाल धार्मिक झण्डों के साथ-साथ एक "राष्ट्रध्वज" भी।
एक और बात पर ध्यान गया- ईरानियों के जुलूस के साथ तो खैर महिलायें और लड़कियाँ रहती ही थीं; इस बार देखा, ताजिया वाले जुलूस के साथ भी महिलायें और लड़कियाँ घूम रही थीं।
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मुझे लग रहा है, कोई कुछ भी समझे, मुझे अपने ब्लॉग पर इन शुभ लक्षणों वाली बातों का जिक्र कर देना चाहिए, जिन्हें मैंने अपने बरहरवा में दुर्गा-पूजा और मुहर्रम के दौरान नोट किया- इस साल।

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