जगप्रभा

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बुधवार, 28 मई 2014

113. चक्रवात


       अभी सुबह के सवा पाँच बज रहे हैं, पानी बरस रहा है- मूसलाधार तो नहीं कह सकते, मगर अच्छी-खासी बारिश है। साथ में बरसाती हवायें भी चल रही हैं। तापमान गिरा हुआ है। ऐसा परसों दोपहर बाद से चल रहा है। बीच-बीच में मौसम ठीक होता है, मगर फिर बारिश तथा हवायें शुरु हो जाती हैं। काले बादलों को देखकर तो ऐसा लगता है कि मौनसून आ गया है! जबकि यह बंगाल की खाड़ी में उठे चक्रवात (साइक्लोन) का असर है।
       परसों यानि 26 मई (सोमवार) से करीब पहले एक पखवाड़े से हमलोग यहाँ उबल रहे थे।
       ***
       बस हास्य के लिए: हमलोग 16 मई को मजाक कर रहे थे- अब तो तापमान गिरना चाहिए, क्योंकि अच्छे..... । मगर देखिये कि 26 मई से वाकई तापमान गिर गया.... 

रविवार, 25 मई 2014

112. गौरैया- 2


       कल शाम गौरैया घोंसले में नहीं आयी। यह तो चिन्ता की बात थी ही, ऊपर से, देखा, एक छिपकली घोंसले में घुस रही है- गौरैयों के न होने का फायदा उठाते हुए। एक छ्ड़ी से हेलमेट पर आवाज किया, तो थोड़ी देर में छिपकली निकल कर भागी। मगर घोंसले से चूँ-चूँ की आवाजें आनी बिल्कुल बन्द हो गयीं।
       करीब हफ्ते भर से घोंसले से चूँ-चूँ की आवाजें आ रहीं हैं। रात हमारे खाना खाते वक्त माँ गौरैया रोटी के टुकड़े लेकर जाती है। जरूर इन्हें चबाकर इनमें अपनी लार मिलाकर इन्हें अपनी चोंच से वह बच्चों को खिलाती होगी। इस वक्त चूँ-चूँ की आवाजें और तेज हो जाती हैं।
       रात जब हम सोने जा रहे थे, तब भी देखा गौरैया नहीं आयी थीं। घोंसले से आवाजें भी नहीं आ रही थीं। हालाँकि अंशु ने बताया कि उसने हल्की आवाजें सुनी थीं। मुझे लगा, मुझे तसल्ली देने के लिए वह ऐसा बोल रही है।
       सुबह आज देर से सोकर उठ। उठते ही खबर मिली- गौरैया आ गयी है और घोंसले से चूँ-चूँ की आवाजें भी आने लगी हैं। यानि कल शाम या तो अन्धेरे के कारण या फिर, रास्ता भटक जाने के कारण गौरैया नहीं आयी थीं।
       अब फिर घर चहचहाहट से भर गयी है।

       अब ये बच्चे उड़ना सीखें, तो हम भी निश्चिन्त हो जायें... 

रविवार, 18 मई 2014

111. उफ्फ, यह गर्मी!


       हो सकता है, मेरी याददाश्त ठीक न हो, मगर मुझे ध्यान है कि पहले हमारे इलाके में गर्मियों में अधिकतम तापमान 40 से ऊपर नहीं जाता था- नीचे ही रहता था। हमलोग समाचारों में ही पढ़ते थे कि राजस्थान में पारा 44 या 45 पर पहुँच गया है। पर अब इस इलाके में भी 44-45 डिग्री अधिकतम तापमान होना आम बात हो गयी है। शायद कार-कंक्रीट-कारखानों की अनियंत्रित वृद्धि- यानि "विकास"- का असर देशभर में हो गया है!
       बता दूँ कि मैं देश के सबसे गये-गुजरे राजनेताओं द्वारा संचालित सबसे पिछड़े राज्य झारखण्ड के सबसे पिछड़े क्षेत्र सन्थाल-परगना का निवासी हूँ। इस परगना के तीन जिलों- दुमका, देवघर, गोड्डा- को तो फिर भी राँची झारखण्ड का हिस्सा मानती है, मगर साहेबगंज और पाकुड़ जिलों को अपना सौतेला हिस्सा मानती है। कारण- यहाँ हिन्दी, बँगला, भोजपुरी का प्रचलन ज्यादा है। एकीकृत बिहार के जमाने में पटना इन्हें झारखण्ड का हिस्सा मानकर नजरअन्दाज करता था। कोलकाता से तो खैर, कोई उम्मीद नहीं रखी जा सकती। इस प्रकार, ये दोनों जिले न राँची के अपने हैं, न पटना के और न ही कोलकाता के- और ये बसे हैं इन तीनों राजधानियों के ठीक बीचों-बीच!
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       यहाँ चौबीस में 4-6 घण्टों की बिजली को अहोभाग्य माना जाता है। यहाँ के कोयले से भले अन्यान्य राज्यों में 12-14 या 18-20 घण्टे बिजली रहती हो, मगर यहाँ के नेताओं का कहना है कि झारखण्ड राज्य की स्थापना जिन तीन उद्देश्यों के लिए हुई थी, वह काम अभी तक खत्म नहीं हुआ है, इसलिए हमलोग दूसरे कामों की तरफ ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। आप शायद उन तीन महान उद्देश्यों के बारे में पहले से ही जानते हों- 1. लूट, 2. लूट और 3. लूट! 14 वर्षों में 14 मुख्यमंत्री बदल गये, पता नहीं कितनी बार राष्ट्रपति शासन लगा, मगर संसाधन इतने हैं इस राज्य में कि कमबख्त लूट का काम अभी तक पूरा नहीं हो पाया है। कई वर्ष हो गये, अभी तक मधु कोड़ा का कीर्तिमान नहीं टूटा है!
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       खैर, बात गर्मी की हो रही थी, मगर दिमाग गर्म होने के कारण मुद्दे से भटक गया था।
       हमारे पास एक कूलर था, जो बिजली की अनुपब्धता के कारण पड़ा रहता था। इस बार उसके पंखे और मोटर को खोलकर बाहर निकाला। पंखे के जगह बैटरी से चलने वाला डीसी पंखा लगा दिया। मोटर के स्थान पर टाँड पर एक पुराना फिल्टर रखकर उसकी टोंटी से पाईप जोड़कर कूलर के पर्दों को भिंगोने का देशी इन्तजाम किया। बहुत सफल तो नहीं रहा प्रयोग, पर दोपहर में जान बच जाती है।
       यह तो खैर, मामूली प्रयोग था, मगर मैं दो महँगे प्रयोगों के बारे में सोच रहा हूँ गर्मी से बचाव के लिए-  
       एक: अगर छत पर ईंटों की पंक्तियाँ बिछाकर उनपर एसबेस्टस की चादरें बिछा दी जायं और उस चादर पर आधा फूट मोटी मिट्टी की परत बिछा दी जाय, तो कैसा रहेगा?
      दो: अगर कोई मकान की बाहरी दीवार बनवाते वक्त दोहरी दीवार बनवाये- बाहरी दीवार 5 ईंच की तथा भीतरी दीवार ढाई ईंच की और इन दोनों दीवारों के बीच ढाई ईंच का ही अन्तर रखते हुए उस अन्तर को मिट्टी से भरवा दे, तो कैसा रहेगा?
       जो सज्जन इंजीनियरिंग, आर्किटेक्चर इत्यादि से जुड़े हों, या जो मकान बनवाने का पर्याप्त अनुभव रखते हों, वे अगर सहमति दें, तो उन्हें आजमाया जा सकता है।
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रविवार, 11 मई 2014

110. गौरैया



       जो घरेलू मैना होती है, वह बहुत झगड़ालू होती है। घर के सामने वाले वेण्टिलेटर में घोंसला बनाकर रहने वाले कबूतर को जोड़े को तंग कर-कर के मैनों के जोड़े ने निकाल बाहर कर दिया। बेचारे कबूतरों ने दाहिने वाले वेण्टिलेटर में फिर घोंसला बनाया। यह पुरानी बात है।
       पिछले हफ्ते बायीं तरफ के एक छोटे वेण्टिलेटर से गौरैयों के जोड़े को उन मैनों ने निकाल बाहर किया। जैसा कि अंशु ने बताया, गौरैयों के बच्चे को भी नीचे गिरा दिया था। बेचारी गौरैयों ने घर के अन्दर वेण्टिलेटरों में जगह खोजना शुरु किया। मगर दरारें इतनी पतली थीं कि वे घुस नहीं पा रहीं थीं। तब बास्केट बॉल का जो एक बोर्ड टंगा था, उसके पीछे गौरैयों ने तिनके इकट्ठा करना शुरु किया।
       यह देखकर मैंने एक पुराने हेलमेट को दीवार पर टांग दिया- वेण्टिलेटर से ही। मानों, गौरैयों को इसी का इन्तजार था- तुरन्त बोर्ड को छोड़कर उन्होंने हेलमेट के अन्दर घोंसला बनाना शुरु कर दिया।

       उम्मीद है, यह नया घर उन्हें बहुत पसन्द आ रहा होगा...   

गुरुवार, 1 मई 2014

109. मजदूर दिवस पर




कल मैंने साइकिल पर कोयला ढोने वाले एक मजदूर को देखा- उसकी बनियान पसीने से तर-बतर होकर बदन से चिपकी हुई थी साइकिल से उतरकर वह दूसरी तरफ देख रहा था- उसकी पीठ मेरी तरफ थी। मैं भी साइकिल पर ही था- सोचा, एक तस्वीर ले लूँ, फिर, क्या मन में आया, आगे बढ़ गया। आठ-दस मिनट बाद याद आया कि कल मजदूर दिवस है- यह तस्वीर ले लेता, तो "पसीना बहाने वालों" को कल के दिन एक सलामी तो दे ही देता, फेसबुक/ब्लॉग पर! अफसोस!
खैर, दो बातें बता दूँ। पहली बात, पहले कभी साइकिल पर कोयला ढोने वाले की दो तस्वीरें मैंने खींची थी (हालाँकि उसमें "पसीना" नहीं था), उन्हें यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ, ताकि जो बन्धु हमारे इलाके के नहीं हैं, उन्हें अन्दाजा हो जाये कि यह किस तरह का कठिन काम है। दूसरी बात, हमारी जो झारखण्ड सरकार है, उसने जमीन के नीचे का सारा-का-सारा कोयला कम्पनियों के नाम कर दिया है। यानि "कोयला डिपो" का लाइसेन्स देना उसने बन्द कर दिया है। पहले हर शहर-कस्बे में कोयला डिपो हुआ करते थे, जहाँ से कोयला खरीद कर गृहस्थ तथा दूकानदार कोयले के चूल्हे जलाया करते थे। अब सरकार का कहना है कि भले आप इस धरती के निवासी हैं- यहाँ पीढ़ियों से आप रहते आये हैं, मगर इस धरती के नीचे का जो कोयला है, उससे आप चूल्हा नहीं जला सकते! यह भण्डार तो पैनेम-जैसी निजी कम्पनियों के लिए है, जो रोज 5-7 मालगाड़ियों में भरकर कोयला पंजाब ले जाती है और उस कोयले से पंजाब को 24सों घण्टे बिजली मिलती है! या फिर, यह कोयला उन सरकारी कम्पनियों के लिए है, जो बंगाल-बिहार से लेकर दूर-दराज के राज्यों तक में स्थापित ताप बिजलीघरों तक कोयला ले जाती है! हमने अपने झारखण्ड में पिछले 14 वर्षों में एक भी ताप बिजलीघर नहीं बनाया है, यहाँ बिजली की प्रतिव्यक्ति उपलब्धता बहुत कम है, यह हम जानते हैं, मगर क्या है कि झारखण्ड तीन चीजों के लिए बना है- 1. लूट, 2. लूट और 3. लूट, तो हम राजनेता वही कर रहे हैं... आपका चूल्हा न जले, तो हमें क्या फर्क पड़ता है!
खैर, तो जो कोयला खदान बन्द हो जाते हैं, उन खदानों से कोयला खोदकर ये मजदूर साइकिल के माध्यम से दूर-दूर तक पहुँचाते हैं। इसके लिए साइकिल में कुछ फेर-बदल करवाने पड़ते हैं। पहले ये 3 क्विण्टल कोयला लेकर चलते थे, अब शायद 4 या इससे ज्यादा ही कोयला ये ढोते हैं। ये इस तरह से कोयला लेकर सौ-पचास या शायद इससे भी ज्यादा दूरी तय करते हैं। जहाँ सड़क पर चढ़ाव हो, वहाँ क्या स्थिति होती होगी इनकी- आप सहज ही कल्पना कर सकते हैं! 


चूँकि यह कोयला ढुलाई कानूनन अवैध है, इसलिए नेता से लेकर पुलिसवाले तक इनसे पैसे वसूलते हैं।
खैर, बात शुरु हुई पसीने से और व्यवस्था तक पहुँच गयी।
तो आज के दिन मैं पसीना बहाकर कमाने-खाने वालों को सलामी देता हूँ और एक उक्ति को दुहराता हूँ, जो मुझे बहुत सही लगी थी- "मजदूर को मजदूरी उसका पसीना सूखने से पहले ही दे दो!"
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प्रसंगवश, मैं भले दफ्तर में काम करता हूँ, मगर प्रतिसुबह 70 किलोमीटर की ट्रेन यात्रा के बाद 10 किलोमीटर साइकिल भी चलाता हूँ। शाम वापसी की यात्रा भी ऐसी ही होती है। जब से गर्मी शुरु हुई है, साइकिल चलाते वक्त मुझे भी पसीना आने लगा है... यानि मजदूर दिवस पर कुछ लिखने का मुझे हक है- क्यों?