जगप्रभा

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सोमवार, 26 नवंबर 2012

"सक़ीना"



     

बरहरवा में हमारे मुहल्ले में एक ईरानी परिवार रहता है, जिसके मुखिया सैय्यद सरबर हुसैन हैं। हर साल मुहर्रम पर इनका पूरा परिवार, जो लगभग पचास सदस्यों का है, यहाँ जुटता है।
पहले- 1971 से- सरबर साहब की सरपस्ती में जब यह कुनबा मुहर्रम मनाने आता था, तब ये लोग खेतों में तम्बू गाड़कर यहाँ रहते थे। तब हम बच्चे हुआ करते थे। इनकी ईरानी भाषा में बातचीत को सुनकर हम आश्चर्य किया करते थे। ज्यादातर स्त्री-पुरूष गोरे-चिट्टे हुआ करते थे। महिलायें पारम्परिक ईरानी पोशाक पहनती थीं। उन दिनों ये अटैचियों में चश्मे लेकर घूम-घूम कर बेचा करते थे। 1972 से भी पहले सरबर साहब के पिता और दादा की सरपरस्ती में यह कुनबा बरहरवा आया करता था। इस प्रकार, बरहरवा से इनका लगाव काफी पुराना और गहरा है। यहाँ का प्रायः हर व्यक्ति सरबर ईरानी से परिचित है।
आजकल इनकी नयी पीढ़ी के युवक रत्नों का व्यवसाय करते हैं। गौहाटी तथा पूर्वोत्तर के कुछ अन्य शहरों में इनका फला-फूला व्यवसाय है। खुद सरबर साहब के पास भी रत्नों का जखीरा रहता है।  
बचपन में हम मुहर्रम के दिनों में अक्सर इनके तम्बूओं में जाया करते थे, जहाँ रात एक विशाल तम्बू के अन्दर इनके धर्मगुरू मैदाने-करबला में इमाम हुसैन तथा यज़ीद के बीच हुई हक़-ओ-बातिल की लड़ाई की कहानी सुनाया करते थे। एक हजार चार सौ साल पहले हुई इस लड़ाई में इमाम हुसैन, उनके परिजन तथा अनुयायी सहित कुल बहत्तर स्त्री-पुरूष-बच्चे शहीद हुए थे, जिसमें छह महीने का अली असग़र भी शामिल था धर्मगुरू नौ रातों तक किस्तों में पूरी कहानी को दुहराते थे। कहानी के बाद गीत गाये जाते थे, जिसके साथ-साथ आबाल-वृद्ध, स्त्री-पुरूष सभी छाती पीटते हुए मातम मनाया करते थे। सातवें और दसवें दिन बाकायदे जुलूस निकला करता था। दसवें दिन, यानि मुहर्रम वाले दिन के जुलूस में शामिल प्रायः सभी पुरूष अपना खून बहाया करते थे। उस रोज सीना पीटते वक्त उनकी उँगलियाँ में ब्लेड फँसा होता था, जिस कारण इनके सीने से खून बहता था। इसके अलावे जंजीरों में बँधे चाकूओं से ये अपनी पीठ पर वार करके पीठ से और चाकू को सर से रगड़कर सर से खून बहाया करते थे। महिलाओं के हाथों में गुलाबजल की शीशीयाँ तथा रूई के फाहे हुआ करते थे, जिनसे पुरूषों के शरीर से बहते खून को पोंछा जात था।
बाद में मैं (1985 में) वायु सेना में भर्ती हो गया, तब से बरहरवा का मुहर्रम मैं नहीं देख पाया। बीच में पता चला कि सरबर चाचा हमारे मुहल्ले में ही पक्का मकान बनवाकर बरहरवा के बाशिन्दे बन गये हैं। 2005 में वायु सेना से अवकाश लेकर आने के बाद मैंने तीन वर्षों तक मुहर्रम देखा; उसके बाद बैंक की नौकरी के सिलसिले में मैं यहाँ अररिया में आ गया।  
***
इस साल (2012 में) छठ के साथ ही मुहर्रम की शुरुआत हुई। मेरी छोटी दीदी छठ करने बरहरवा आती है। मैं भी पहुँचा हुआ था। सोम-मंगलवार (19-20 नवम्बर) को छठ सम्पन्न हुआ। बुध (21 नवम्बर) को मैं छोटी दीदी तथा अंशु के साथ उनकी मज़लिस में गया।
गुरूवार (22 नवम्बर) को उनका सातवें रोज वाला मातमी जुलूस निकला। उस रात किसी कारण से मैं मज़लिस में नहीं जा पाया।
शुक्रवार (23 नवम्बर) की सुबह गोपाल चाचा की चाय दूकान (मेरे घर के सामने) सरबर चाचा से थोड़ी बातचीत हुई। यहाँ वे अक्सर बैठते हैं- खासकर, सुबह। पता चला, उनके मौलाना साहब लखनऊ से आते हैं। सो, ग्यारह बजे मैं मौलाना साहब से मिलने पहुँचा। उनका नाम सैय्यद हुसैन अब्बास सिरसवी है। मैंने उनसे मोहर्रम मनाये जाने के बारे में संक्षिप्त जानकारी ली। उन्होंने बताया कि वे पिछले सात-आठ वर्षों से लगातार मुहर्रम में यहाँ आते हैं- लखनऊ से।
उसी रात मैं अंशु के साथ मज़लिस में शामिल होने गया, तो पाया कि आठ बजकर दस मिनट हो रहे हैं, मगर अभी तक आवाज नहीं आ रही है। हमारे साथ हमारा बेटा, भतीजा और भतीजी थी। वहाँ पहुँचकर पता चला- मौलाना साहब की बच्ची की तबियत बिगड़ गयी है- उसे ‘स्लाईन’ चढ़ाया जा रहा था। मैं अन्दर जाकर मौलाना साहब से मिला। उन्होंने कहा- अन्दर बैठिये, मज़लिस बस शुरु होने वाली है।
मैंने कहा- पहले बच्ची की तबियत पूरी तरह ठीक हो जाय...
उन्होंने तुरन्त कहा- बच्ची की तबियत अब बिलकुल ठीक है।
खैर। कुछ देर से ही, मज़लिस शुरु हुई। मौलाना साहब ने इब्राहिम द्वारा अपने बेटे इसमाइल को कुर्बान करने के लिए राजी होने के वाकये से शुरुआत की। फिर ध्यान दिलाया कि अल्लाह ने इसमाइल को तो जीवनदान दे दिया- क्योंकि उनके वंश से हज़रत पैगम्बर को जन्म लेना था; मगर उसके बदले उसने हज़रत के नवासे (नाती) इमाम हुसैन की कुर्बानी ली। मौलाना साहब ने दोनों घटनाओं की तारीख मिलाकर इसे साबित किया।
आगे मौलाना साहब ने यह बताया कि इमाम हुसैन ने यज़ीद के पास यह सन्देश भेजवाया था कि उन्हें (इमाम को) उनके परिजनों/साथियों सहित हिन्द (भारत) जाने दिया जाय। इमाम हुसैन को भरोसा कि हिन्द के लोग (भारतीय) उन्हें पसन्द करेंगे। इसका जिक्र करके मौलाना साहब ने जोर देकर कहा कि हमें फख्र है कि हम हिन्दुस्तानी हैं, हिन्दुस्तान के वासी हैं, जहाँ आने की ख़्वाहिश इमाम हुसैन साहब रखते थे।
इसके बाद मैदाने-करबला की कहानी शुरु हुई। आज इमाम हुसैन के भाई हज़रत अब्बास की शहादत का ज़िक्र हुआ। अब्बास प्यास से तड़पते बच्चों के लिए पानी लाने चश्मे पर गये थे। उन्होंने अपनी भतीजी सक़ीना का मश्क़ साथ लिया था। सक़ीना तीन-साढ़े तीन साल की नन्हीं बेटी थी इमाम हुसैन की, जिसे इमाम बहुत प्यार करते थे। वे सक़ीना को अपने सीने पर सुलाया करते थे। मगर लगता है कि अब्बास अपनी भतीजी को कहीं ज्यादा प्यार करते थे। जब वे पानी नहीं ला पाये, तब दम तोड़ने से पहले उन्होंने इमाम हुसैन से अनुरोध किया कि उनकी लाश को शिविर में न ले जाया जाय... क्योंकि वे सक़ीना के लिए पानी नहीं ला पाये और इस तरह वे सक़ीना को मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहे... ।
अब्बास पानी लाते भी तो कैसे? छुपे हुए दुश्मनों ने एक-एक कर उनके दोनों बाजु काट दिये थे। जब उन्होंने मशक को अपने दाँतों से दबाया, तो एक तीर ने आकर मशक को भेद दिया और पानी बह गया। फिर एक तीर उनकी एक आँख में आकर लगा और वे घोड़े से गिर पड़े। गिरते वक्त उन्होंने इमाम हुसैन को आवाज दी थी।
कहानी सुनाये जाते वक्त हॉल में मौजूद महिलायें रोने लगीं, जबकि पुरुषों की आँखें नम हो गयीं।
इसके बाद मौलाना साहब ने सबके भले के लिए दुआ माँगी। फिर शुरु हुआ गीत, जिसकी दो पंक्तियाँ इस प्रकार है-
इस अस्र की गर्मी में, मिल जाये अगर पानी,
मज़लूम सक़ीना पे, हो जाये मेहरबानी।
इन पंक्तियों को (जुलूस में गाये जाते वक्त) सुनकर ऐसे भी मेरी आँखें नम हो जाया करती हैं।
***
अगली सुबह।
शनिवार, 24 नवम्बर’ 2012। मुहर्रम की नौवीं तारीख।
मेरा भाई आकर खबर देता है- मौलाना साहब की बच्ची चल बसी! मैं सन्न रह गया। फिर माँ ने बताया कि उन्होंने भी गोपाल चाचा की चाय दूकान पर अभी सरबर को रोते हुए देखा था। मुझे मज़लिस में नज़्म भैया की बात याद आयी। मज़लिस में मौलाना साहब के आने से ठीक पहले नज़्म भैया ने धीरे-से मुझे बताया था- बच्ची की हालत नाज़ुक है- कुछ देर के लिए तो नब्ज़ गायब हो गयी थी। मुझे यकीन नहीं हुआ था, क्योंकि मौलाना साहब ने खुद कहा था कि अब बच्ची की तबियत बिलकुल ठीक है। और फिर, बरहरवा के एक नामी चिकित्सक की देख-रेख में इलाज चल रहा था- डॉक्टर की ओर से कोई चिन्ता जाहिर नहीं की गयी थी। अब मैं समझा कि मौलाना साहब अपना कर्तव्य पूरा करना चाहते थे- वे मज़लिस को रद्द नहीं करना चाहते थे। मज़लिस समाप्त होने के बाद वे लोग बच्ची को लेकर मालदह रवाना हुए थे, जहाँ डॉक्टरों ने बच्ची को मृत घोषित कर दिया।
(प्रसंगवश, बरहरवा में न तो ढंग की चिकित्सा उपलब्ध है, और न ही चिकित्सक। यहाँ चिकित्सा का व्यापार होता है और चिकित्सक मरीज को ग्राहकसमझते हैं। इसलिए आम तौर पर लोग इलाज कराने बंगाल के पड़ोसी शहरों- मालदह या रामपुरहाट का रुख करते हैं- वहाँ इलाज के नाम पर लूट-खसोट नहीं होती, सभी चिकित्सीय सुविधायें उपलब्ध हैं और डॉक्टर मरीज के प्रति संवेदनशील होते हैं। इस मामले में भी चिकित्सक की लापरवाही नजर आती है- कम-से-कम मुझे।)
मैंने उस बच्ची की सूरत नहीं देखी थी। भाई ने बताया- बहुत प्यारी थी। तीन साल सात महीने उम्र थी उसकी। मैं उस बच्ची का नाम भी नहीं जानता, मगर मेरे लिए वह सक़ीना है- दूसरी सक़ीना, जिसे उसके पिता लखनऊ के शिया धर्मगुरू सैय्यद हुसैन अब्बास सिरसवी से कहीं ज्यादा अल्लाह प्यार करते थे। उसने ही इस सक़ीना को लखनऊ से बरहरवा बुलाया था- बरहरवा को उसका करबला बनना था- उसे यहीं की मिट्टी में दफ़्न होना था। वर्ना अब तक मौलाना साहब लखनऊ से अकेले ही यहाँ आते थे। यह पहला मौका था, जब वे परिवार लेकर आये थे।
हमारे पास कोई चारा नहीं है- सिवाय ऊपरवाले की मर्जी के सामने सर झुकाने के। अब ऊपरवाला ही इस दूसरी सक़ीना के परिजनों को ग़मे-हुसैन के इस मौके पर ग़मे-सक़ीना को सहने की ताकत दे......
.......आमीन!
***** 
पुनश्च: 
कुछ दिनों पहले सरबर साहब हमारे घर आये थे. संयोग से, कुष्माकर और कैलाश भी थे. मेरा बेटा कम्प्यूटर पर गेम खेल रहा था. बातों-बातों में मैंने कम्प्यूटर पर उन्हें ब्लॉग में इस पोस्ट को, तथा 'कृष्ण-सुदामा' वाले पोस्ट को दिखाया. 
सरबर साहब ने दो गलतियाँ ठीक करवाई और बताया कि वे लोग उस रोज शाम को ही बच्ची को मालदा लेकर गये थे- वहाँ बच्ची को मृत घोषित किया जा चुका था. मौलाना साहब से मजलिस स्थगित करने का अनुरोध किया जा चुका था. मगर उन्होंने कहा कि मजलिस जारी रहेगी. इस प्रकार, बच्ची मृत अवस्था में ही कमरे में थी- हमें बताया गया कि वह ठीक है और मजलिस जारी रही. जबकि मैं सोच रहा था कि मजलिश खत्म होने के बाद वे लोग बच्ची को लेकर मालदा गये थे. 
इतना त्याग... आज के जमाने में... सोचकर आश्चर्य होता है!
सितम्बर'13   

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

दीवाली तो मनायी राज और मुस्कान ने


      अभिमन्यु क्या दीवाली मनायेगा- दीवाली तो मनायी राज और मुस्कान ने
      अभिमन्यु तो आप जानते ही हैं- मेरे बेटे का नाम है। राज और मुस्कान मुमताज़ भाई साहब के बच्चे हैं। हम जिस मकान में किराये पर रहते हैं यहाँ (अररिया में), उसके दूसरे हिस्से में वे रहते हैं। मुस्कान होगी कोई आठ साल की और राज छह साल का। दोनों हमलोगों से घुले-मिले हैं। अब तो उनका साल भर का नन्हा भाई रियाज़ भी हमलोगों से हिल-मिल गया है। रियाज़ को उसके पापा मजाक में ‘विक्की प्रसाद’ बुलाते हैं।
      हम धमाका करने वाले बम-पटाखे दीवाली पर नहीं लेते- अभिमन्यु को पसन्द भी नहीं है। इस बार भी हम फुलझड़ी और चरखी लाये थे, बस। मुस्कान और राज के बारे में सोचकर (तथा पिछले साल के अनुभव के आधार पर) कुछ ज्यादा ले लिये थे। बाद में जब बाजार गया था, तो पटकने वाले थोड़े पटाखे और एक ‘कन्दील’ भी खरीद लाया था- क्योंकि इसे हाथ से बनाकर बेचा जा रहा था।
      शाम होते ही यथारीति दोनों भाई-बहन मचल गये- दीवाली मनाने के लिए। अभिमन्यु को कोई फर्क नहीं पड़ता- बच्चों वाली चंचलता उसमें कम ही है। और फिर, इस दीवाली के दिन उसने 16वें साल में कदम रखा था।
      जब अंशु पूजा कर रही थी, मुस्कान बाकायदे सर पर दुपट्टा रखकर पास बैठी रही और बड़े ध्यान से हमारी एक-एक गतिविधि को नोट कर रही थी। बाद में, दीये जलाने में उसने पूरे मन से मदद की। इसके बाद दोनों शुरु हो गये। थोड़ी देर में अभिमन्यु भी शामिल हो गया। पड़ोस के दो बच्चे और जुटे। खूब फुलझड़ियाँ जलायी गयीं, चकरियाँ चलायी गयीं। जैसा कि मैंने बताया- बम और रॉकेट से हम दूर ही रहते हैं। हाँ, बच्चों का एक ‘साँप’ होता है, वह भी लाये थे हम। राज और मुस्कान के लिए भी उनके पापा अनार तथा कुछ अन्य पटाखे लाये थे।  

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

"अभिमन्यु"- मेरा बेटा




यह एक सुखद संयोग है कि (ईस्वी संवत् के हिसाब से) मेरे बेटे का पन्द्रहवाँ जन्मदिन आज दीपावली के दिन ही पड़ा है। भारतीय पंचांग के हिसाब से उसका जन्मदिन गुरू नानक जयन्ती वाले दिन पड़ता है। उसका जन्म हुआ भी पंजाब में है- जालन्धर छावनी के सेना अस्पताल में। उसके जन्म के साथ गुरू नानक देव का आशीर्वाद भी जुड़ा है, जिसका जिक्र मैंने एक ब्लॉग पोस्ट (‘रक्तदान तथा अभिमन्यु का जन्म’) में कर रखा है। उसके जन्म से पहले ही हमने तय कर रखा था कि अगर बेटी हुई, तो वह उत्तरा होगी और अगर बेटा हुआ, तो वह होगा- अभिमन्यु!
      खैर, चित्र में वह अपने इस विशेष जन्मदिन के विशेष तोहफे- एक एयर गन के साथ है।
      दरअसल, कुछ समय पहले एक छोटे-से मेले में एयर गन से गुब्बारों पर निशाना लगाते हुए मैंने उसे देखा था- निशाना बढ़िया था। मैंने पूछा- निशाना कैसा अच्छा हुआ तुम्हारा? उसका उत्तर था- कम्प्यूटर-गेम्स से। मैंने तभी तय कर लिया था कि इसे एक एयर गन दिलाऊँगा।
      मुझे पूरा विश्वास है- उसके स्वभाव को देखते हुए- कि वह इस बन्दूक से कभी किसी चिड़िये पर निशाना नहीं लगायेगा और न ही इसके इस्तेमाल में कभी लापरवाही बरतेगा। वह बहुत अच्छा निशाना लगाना सीखे- यही मेरी दुआ है। उसने चार्ट पेपर पर छोटे-बड़े वृत्त बनाकर निशानेबाजी शुरु कर दी है। अब उसे यह बन्दुक भी हल्की लगने लगी है।
      हालाँकि यह एक एयर-गन है, मगर है असली बन्दुक ही- कोई खिलौना तो नहीं है। अतः बन्दुक के साथ काफी ‘जिम्मेदारियाँ’ जुड़ी होती हैं- यह मैंने उसे पहले ही बता दिया है। मेरे पास जिम कॉर्बेट की रचनाओं का पूरा संकलन है- मैंने देखा, उसने उन्हें पढ़ना शुरु कर दिया है। इससे वह उन ‘जिम्मेदारियों’ एवं ‘सावधानियों’ को बेहतर तरीके से समझ सकता है।
      ***
      उसके पिछले जन्मदिन पर मैंने उसे ‘फ्लिपकार्ट’ से सत्यजीत राय के फेलू-दा सीरीज के सभी (शायद 36) उपन्यासों का संकलन- दो खण्डों में- मँगा दिया था। उसने अभी तक बँगला पढ़ना नहीं सीखा है और ये उपन्यास हिन्दी में अनुदित नहीं हुए हैं (शायद मैं ही कभी इनके अनुवाद का बीड़ा उठाऊँ), इसलिए यह संकलन मैंने उसे अँग्रेजी में मँगवा दिया। इतने मोटे-मोटे दोनों खण्डों को वह बहुत कम समय में चट कर गया। फेलू-दा एक प्राइवेट डिटेक्टिव हैं, जो करीब-करीब हर विषय की जानकारी रखते हैं। सत्यजीत राय ने किशोरों को लक्ष्य करके की इस चरित्र की रचना की है।
      ***
      ‘फ्लिपकार्ट’ से ध्यान आया- मैंने उसे छूट दे दी है कि वह यहाँ से अपनी पसन्द की पुस्तकें मँगा सकता है। कुछ समय पहले दफ्तर में एक पार्सल मिला। घर लाकर मैंने बेटे को थमा दिया। बाद में यूँ ही पूछा- कौन-सी किताब मँगवाये हो? उत्तर सुनकर मैं चौंक गया। उसने कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजेल्स की पुस्तक कम्यूनिस्ट मैनिफेस्टो मँगवाई थी। बाद में उसने दास कैपिटल भी मँगवायी। मैंने जानना चाहा- इस झुकाव के पीछे वजह। उसका उत्तर था- हमारी पाठ्य-पुस्तक में साम्यवाद पर ज्यादा जानकारी नहीं है, जो भी जानकारी है, उससे तो यह ‘वाद’ अच्छा लग रहा है। मैंने बताया कि एक समय पाठ्य-पुस्तक तैयार करने वालों में ज्यादातर साम्यवादी विचार वाले ही हुआ करते थे, अब शायद उदारीकरण के दौर में उन्हें निकाल बाहर कर दिया गया हो। मैंने यह भी बताया कि ‘थ्योरी’ में साम्यवाद, या इसका उदार रुप ‘समाजवाद’ अच्छा है ही, मगर वर्तमान साम्यवादियों/समाजवादियों ने इसका कचरा कर दिया है- चाहे वे चीन के हों या भारत के। हाँ, क्यूबा, वेनेजुएला वगैरह में यह ठीक-ठाक है। हमारे त्रिपुरा राज्य के साम्यवादी मुख्यमंत्री- माणिक सरकार- भी एक आदर्श हैं। मैंने जानना चाहा कि वह खास तौर पर साम्यवाद/समाजवाद से प्रभावित है क्या? उसके उत्तर ने मुझे संतुष्ट किया कि वह कभी संकीर्ण विचारधारा नहीं अपनायेगा। उसका उत्तर था- अगर कैपिटलिज्म पर कोई पुस्तक मिलेगी, तो उसे भी वह पढ़ेगा।

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

“करवा चौथ”



      बिहार-झारखण्ड में करवा-चौथ का चलन लगभग नहीं है; इसके बदले इधर एक दूसरा त्यौहार मनाया जाता है। मगर मेरी सहधर्मिणी अंशु चूँकि मेरठ की है, इसलिए वह विवाह के बाद से ही, यानि ’96 से ही यह त्यौहार मनाती है।
      ’96 में हमलोग तेजपुर में थे- आसाम की हरी-भरी वादियों में। उसके पहले करवा चौथ वाले दिन सुबह-सुबह ही मुझे 40-45 किलोमीटर दूर ‘मिसामारी’ जाना पड़ा था। दरअसल वायु सेना का दो-दो हफ्ते का (ड्राय) राशन नजदीक के किसी थल सेना युनिट से ही आता है- उसी सिलसिले में मुझे जाना पड़ा था। तीन-चार गाड़ियों में राशन लाकर उसे अपने राशन स्टैण्ड में उतरवाकर जब तक मैं डेरे पर पहुँचा- रात हो चुकी थी- अंशु के व्रत तोड़ने का समय हो रहा था।
      यहाँ खास बात यह है कि मैंने भी दिन-भर पानी नहीं पीया था। अंशु के साथ ही मेरा भी व्रत (एक तरह से) खुला था।
      इसके बाद 15 वर्षों तक मैं लापरवाह बना रहा- इस त्यौहार के दौरान।
      आज इस 16वें वर्ष में मैंने फिर फैसला किया कि अगर वह मेरे लिए व्रत रखती है, तो मुझे भी उपवास रखना चाहिए। हालाँकि मैंने कहा था कि मन करेगा तो मैं चाय पी लूँगा; पर मैंने नहीं पी।
      अभी अंशु दीया तैयार कर रही है... 7 बज चुके हैं... एकाध घण्टे में ही चाँद उगेगा... तब हम दोनों साथ ही जल ग्रहण करेंगे...