जगप्रभा

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बुधवार, 20 सितंबर 2017

186. "पितर"




      


       मेरे ख्याल से, हर व्यक्ति को अपने कैशोर्य एवं नवयौवन में "नास्तिक" एवं "बागी" होना ही चाहिए! जो ऐसे होते हैं, वही आगे चलकर "धर्म" के "मर्म" को, "परम्पराओं" के "निहितार्थ" को समझ सकते हैं। बचपन से ही धर्मपरायण होना कोई शुभ लक्षण नहीं है- खासकर, "कर्मकाण्डी" तो बिलकुल नहीं होना चाहिए!
       हम भी एक "नास्तिक" के रुप में पिताजी के धर्मिक क्रियाकलापों का विरोध किया करते थे। तब हम "पितृपक्ष" के बारे में न कुछ जानते थे, न ही जानना चाहते थे। पिछले साल पिताजी गुजर गये। इस साल हमने पहली बार जानने की कोशिश की कि "पितृपक्ष" क्या है। बेशक, "कर्मकाण्डी" हम आज भी नहीं हैं, मगर इस पक्ष के प्रति मेरे मन में श्रद्धा जरुर जाग गयी है। आज ही की बात है, पण्डितजी भोजन कर रहे थे, उन्होंने बताया कि जिसका एक ही पुत्र होता है, उसे सोमवार को दाढ़ी नहीं बनानी चाहिए। हमने तुरन्त प्रतिवाद किया और कहा कि आज से ढाई हजार साल पहले ही गौतम बुद्ध यह कह गये हैं कि किसी गुरूजन की बात को आँख बन्द करके सिर्फ इसलिए मत मान लो कि इसे गुरूजन ने कहा है। उस बात को तर्क की कसौटी पर कसो और जब अन्तरात्मा सहमत हो, तभी मानो। ...तो इस दाढ़ी न बनाने वाली बात के पीछे हमें कोई तर्क नजर नहीं आ रहा। मेरे हिसाब से, "श्रद्धा" को भी "तर्कपूर्ण" होना चाहिए! नहीं तो हमें "अन्धश्रद्धालु" बनते देर नहीं लगेगी!
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       खैर, अब एक दूसरी बात। मेरे दादाजी ने 1931 में हमारे कस्बे के मेन रोड पर मुख्य बाजार से कुछ बाहर एक प्लॉट खरीदा था दस हजार वर्गफीट का। यह पिताजी के जन्म से पहले की बात है। बाद के दिनों में चाचाजी ने आधा हिस्सा बेच दिया और आज पाँच हजार वर्गफीट का प्लॉट हमारे पास है। हम चाहते थे कि पिताजी की आँखों के सामने वहाँ एक शानदार भवन बन जाय, मगर वे सिर्फ मेरे द्वारा बनाये गये "प्लान" को ही देख पाये, जिसे हमने कम्प्यूटर पर (एक पुराने प्रोग्राम '3-डी होम आर्टिटेक्ट' पर) बनाया था। प्लान देखकर पिताजी ने मुस्कुरा कर अपना "भरोसा" जता दिया था कि जो भी बनेगा, अच्छा ही बनेगा। हमने यह भी बताया कि इस भवन को "JMC" नाम देने की इच्छा है- दादाजी के नाम पर- 'जोगेन्द्र मेमोरियल कॉम्प्लेक्स'।
       इस साल उस प्लॉट पर- सामने के हिस्से में- लगभग 1200 वर्गफीट क्षेत्रफल वाले भवन निर्माण का काम शुरु हुआ। दादाजी के बनवाये दो कमरों के पुराने मकान को तोड़ा गया। अफसोस कि तुड़वाने से पहले उस मकान की तस्वीर लेने की सुध हमें नहीं रही। निर्माण शुरु होने के बाद बीच-बीच में तस्वीरें ले रहे हैं। हमलोग आर्थिक रुप से बहुत सक्षम तो नहीं है, फिर भी अपने "पितरों के आशीर्वाद के भरोसे" काम चलाये जा रहे हैं और यह उम्मीद करते हैं कि यहाँ एक शानदार भवन बनेगा।
       यह भवन ही देखा जाय, तो हमारा पितरों के प्रति "तर्पण" होगा...
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पुनश्च:
जब हम पिताजी के धार्मिक या आध्यात्मिक क्रिया-कलापों पर सवाल उठाते थे, तब वे (आम तौर पर) स्पष्टीकरण नहीं देते थे। उन्हें लगता होगा- समय आने पर हम खुद अपने सवालों के उत्तर खोज लेंगे। उन्हें ऐसा इसलिए लगता होगा कि वे खुद अपनी युवावस्था में नास्तिक हुआ करते थे। एक उम्र के बाद वे आध्यात्मिक हुए। जहाँ तक दादाजी की बात है, मेरा अनुमान है कि जीवन के उत्तरार्द्ध या अन्तिम दिनों में भी वे धार्मिक या आध्यात्मिक प्रवृत्ति के नहीं हुए होंगे।
       आज हम पुत्र अभिमन्यु की नास्तिकता को देखकर मन ही मन प्रसन्न होते हैं। एक उम्र के बाद वह बिलकुल "अपने ढंग से" धर्म एवं पराम्पराओं को समझेगा।
       ऐसे ही हर व्यक्ति को अपना "सत्य" खुद खोजना चाहिए... लकीर का फकीर बनने में जीवन की कोई सार्थकता नहीं है!
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सोमवार, 18 सितंबर 2017

185. 'हाथी दिवस' पर (बिगड़ैल) हाथी का मारा जाना






राजमहल की पहाड़ियों में जंगली जानवर तो कुछ बचे नहीं, ले-देकर थोड़े-से हाथी बचे हैं। हमारे साहेबगंज जिले में अक्सर कुछ हाथी तालझारी के आस-पास के गाँवों के पास आ जाते हैं। कुछ बिगड़ैल हाथी फसलों को नुकसान पहुँचाते हैं, कच्चे घरों को तोड़ डालते हैं और कई बार तो मानव-हत्या भी कर डालते हैं।
यह एक अलग मुद्दा है कि जंगली जानवर इन्सानी बस्तियों में घुस आते हैं, या इन्सान जंगली जानवरों के आशियाने में घुसते हैं।
यहाँ हम एक खबर की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं। खबर पिछले महीने की है- हमने ही लिखने में देर कर दी है। ('दैनिक जागरण' (सन्थाल-परगना संस्करण) में छपी 13 अगस्त की खबर को उद्धृत किया जा रहा है।)
दल से बिछुड़कर गाँवों में घुसकर उत्पात मचाने वाले उस हाथी को मार डाला गया, जिसने 11 लोगों को मार डाला था। खबर के अनुसार, मारने में खर्च हुआ- 50,00,000 और उस हाथी के दाँत बिकेंगे 1,00,00,000 में! बस इसी जानकारी से हमें खटका लगा। कहीं ऐसा तो नहीं कि हाथी के दाँतों की वजह से ही उसे "बेहोश" करने के बजाय उसे "मार डाला' गया? क्या किसी सभ्य देश में ऐसा किया जाता? उसे बेहोश करके घने जंगलों में छोड़ आना असम्भव था? और फिर एक हाथी को मारने के पीछे पचास लाख का खर्च दिखाने के पीछे भला क्या तुक है?
कुछ भी कहा जाय, हमें तो गोल-माल दिख रहा है...
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एक और त्रासद बात जो इस समाचार में नजर आ रही है, वह यह है कि हाथी को जिस दिन मारा गया, वह दिन "विश्व हाथी दिवस" था- 12 अगस्त!
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दूसरी बात पर मेरा ध्यान गया कि हाथी मार्च के महीने में इस इलाके में आया था। अब हमें लग रहा है कि तालझारी के आस-पास के गाँवों में हाथियों के घुसने की खबरें जब भी अखबारों में आती हैं, तब कहीं वह मार्च का महीना ही तो नहीं होता! अगर ऐसा है, तो मार्च के महीने और हाथियों के गाँवों में घुसने के बीच जरूर कोई सम्बन्ध होना चाहिए। क्या है वह सम्बन्ध? महुआ? यही वह महीना है, जब गाँव वाले जंगलों से महुआ चुन कर लाते हैं और घरों में जमा करते हैं, घूप में सुखाते हैं और हो सकता है कि इस समय महुआ से शराब बनाने की प्रक्रिया भी तेज हो जाती होगी। ...तो क्या महुए या महुए के शराब की खुशबू हाथियों को घने जंगलों से गाँवों की ओर खींच लाती है? हाथियों को मद्यपान कराके मदमत्त करने की बात इतिहास में पढ़ी जाती है- युद्ध के दौरान। हो सकता है, हाथियों को मद्य प्रिय हो!
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तीसरी बात- तलझारी के आस-पास के गाँव ही क्यों? इसके उत्तर में हम यह अनुमान लगाते हैं कि तालझारी के आस-पास के इलाकों में पत्थरों के उत्खनन का काम बहुत कम होता है- नहीं के बराबर। इस इलाके में जंगल घने हैं, शान्त हैं, मनुष्यों की आवाजाही व मशीनों का शोर-शराबा बहुत कम है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हाथियों से बचने के लिए इस इलाके में भी पत्थर-उद्योग को बढ़ावा दे दिया जाय!
कोई और रास्ता चुनना होगा। रास्ता क्या हो, इसपर गाँववालों को खुद ही विचार करना होगा।