जगप्रभा

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मेरे द्वारा अनूदित/स्वरचित पुस्तकों की मेरी वेबसाइट

गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

एक और अँगूठी?



इस ब्लॉग में 26 नवम्बर'2012 का एक पोस्ट है- "सक़ीना"। उसमें सरबर ईरानी साहब का जिक्र है तथा लखनऊ से मोहर्रम में आने वाले मौलाना साहब की नन्ही बच्ची के असमय निधन का जिक्र है।
सरबर साहब गोपाल चाचा की चाय दूकान पर अक्सर बैठते हैं। करीब डेढ़-दो महीने पहले एक शाम वहाँ कैलाश (जो कोलकाता से कभी-कभी आता है) और कुष्माकर भी बैठे थे। वहीं से तीनों को मैं अपने घर लाया। पता नहीं क्या बात चली, मैंने "सक़ीना" वाली पोस्ट सरबर साहब को पढ़कर सुनाई। उन्होंने दो-तीन जानकारियाँ ठीक भी करवाई। इसके बाद "सुदामा व कृष्ण: आज भी" वाली पोस्ट कुष्माकर और कैलाश को पढ़ाया- उन्हीं पर यह पोस्ट है। फिर कुष्माकर की फेसबुक आई.डी. बनायी गयी और थोड़ी देर बाद चाय-वाय पीकर सब विदा हो गये। मैंने गोपाल चाचा की दूकान पर कुछ फोटो भी खींचे थे- उन्हीं में से एक सरबर ईरानी साहब के साथ वाले फोटो को कुष्माकर ने अपना फेसबुक 'कवर' बनाया।
(आज वाला फोटो भी दरअसल उसी दिन का है।)  
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आज- इतने दिनों बाद अचानक मुझे सरबर साहब ने उसी चाय दूकान से आवाज देकर बुलाया। मैं बाहर से घर लौट रहा था उनके पास गया। उन्होंने एक रत्न मुझे दिया। कहा- आपने तो कभी रत्न हमसे माँगा नहीं, यह हम अपनी तरफ से आपको दे रहे हैं। उस दिन कम्प्यूटर पर आपका काम देखे- तब से सोच-विचार कर देखे कि यह रत्न आपके काम का है। आप जिस तरह से कुछ सोचते हो, प्लानिंग करते हो, उसमें यह मदद करेगा।
उन्होंने इसे धारण करने का तरीका भी बताया।
मेरी अनामिका उँगली में पहले से अँगूठी है। इसे उन्होंने मध्यमा उँगली में पहनने को कहा। इस पत्थर की भी एक कहानी है- छोटी-सी।
अररिया में एक रोज एक सिगरेट फूँकते हुए तथा दूसरी सिगरेट को जेब में डाले मैं अपने दफ्तर की तरफ लौट रहा था। सामने से औघड़-जैसे एक साधू बाबा आ रहे थे। मेरे जेब में एक भी रुपया नहीं था। उनके सामने आने पर कुछ नहीं सूझा, तो मैंने पूछ लिया- बाबा सिगरेट पीजियेगा?
'लाओ बच्चा।'- कहकर उन्होंने मुझसे सिगरेट लेकर अपने झोले में डाल लिया। जब मैं आगे बढ़ने लगा, तब मुझे रोककर उन्होंने मुझे यह पत्थर दिया और साथ में आशीर्वाद भी दिया। पत्थर महीनों तक घर में पड़ा रहा, एक रोज श्रीमतीजी ने सही में उसे अँगूठी में जड़वा दिया- मैंने भी पहन लिया...
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अब एक और अँगूठी लगता है- मेरी कनिष्ठा उँगली में जुड़ने वाली है... देखा जाय...  


'पोचारा'



                चित्र में पाट (जूट) से बनी कूचियाँ है, जिनसे घरों में पुताई होती है दीवाली से पहले हमलोग पुताई को 'पोचारा' बोलते थे। हम इन कूचियों से बचपन से परिचित हैं। पहले चौलिया (हमारा पैतृक गाँव- बरहरवा से 7 किमी दूर, जहाँ थोड़े खेत, दो-चार आम के पेड़ तथा साझे का तालाब है हमारा। अब ये सब बस नाम के बचे हैं।) से भागीदार (बटाईदार) आते थे जूट लेकर। खुद ही कूचियाँ बनाते थे, नाँद में चूना भिंगोकर रंग बनाते थे (नाँद इसलिए कि कभी हमारे घर गाय भी रही थी- थोड़े समय के लिए ही सही) और दो-तीन दिनों तक घर की पुताई चलती थी।
       गाँव-मुहल्ले के प्रायः हर घर में यह कार्यक्रम चलता था- घर का सारा सामान निकालो, पुताई करो, फिर सामान रखो- एक तरह का आयोजन था यह। उत्साह के साथ यह आयोजन चलता था। चूने वाली पुताई के बाद दरवाजों-खिड़कियों पर पेण्ट होता था। एक अलग तरह की खुशबू चारों ओर फैली रहती थी।
       अब इस महँगाई डायन ने तो लोगों का दीवाला ही निकाल रखा है। मुहल्ले में कहीं रंगाई-पुताई का कार्यक्रम नहीं चल रहा है। कहीं उत्साह नहीं है दीवाली को लेकर।
       आज सुबह-सुबह देखा, दो भागीदार (ये अगली पीढ़ी के हैं) पहुँचे हुए हैं- थोड़ा-सा जूट लेकर। कूची बनाकर पुताई में लग गये हैं- मगर न कहीं पुताई की खुशबू है, न किसी में उत्साह। पता नहीं, सब कहाँ खो गया है...
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चौलिया गाँव का जिक्र पहले भी इस ब्लॉग में आया है- 2. चरक मेला और 5. टप्परगाड़ी में। 

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

"बनफूल" अब "संवदिया" में




       "संवदिया" एक साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका है, जो बिहार के अररिया नगर से प्रकाशित होती है। उद्घोषवाक्य है- "सर्जनात्मक साहित्यिक त्रैमासिकी"। (शब्द "उद्घघोषवाक्य" मैंने खुद खोजा अभी-अभी- अँग्रेजी के "टैगलाईन" के बदले) सम्पादक हैं- भोला पण्डित "प्रणयी"।
       आप शायद जान रहे हों- अभी मई तक मैं अररिया में ही था। "संवदिया" के लगातार दो-दो "कविता विशेषांक" देखने के बाद मुझसे रहा नहीं गया। मैं "बनफूल" की कहानियों का अनुवाद लेकर पहुँच गया सम्पादक महोदय के पास। बोला- एक "कहानी विशेषांक" भी निकालिये- वह भी "बनफूल" की कहानियों का, क्योंकि उनका जन्म आपही के "सीमांचल" क्षेत्र के "मनिहारी" में हुआ था। सॉफ्ट कॉपी भी मैंने ईमेल कर दिया। बेशक, जयचाँद ने जो चित्र बनाये थे कहानियों के लिए, उन्हें भी ईमेल कर दिया।
       ***
       चूँकि "बनफूल" का जन्मदिन जुलाई में पड़ता है, इसलिए "संवदिया" के जुलाई-सितम्बर अंक को "बनफूल" विशेषांक के रुप में प्रकाशित किया गया है।
       दो हफ्ते पहले मुझे "प्रणयी" जी का फोन आया था कि यह विशेषांक प्रकाशित हुआ है। मेरा पहला सवाल था- साथ में चित्र हैं या नहीं, जयचाँद के नाम के जिक्र के साथ? उत्तर नकारात्मक था। मेरी खुशी आधी हो गयी।
       खैर, आज "संवदिया" की कुछ प्रतियाँ डाक द्वारा मिलीं।
       हाँ, इस बीच फारबिसगंज कॉलेज के अँग्रेजी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. नित्यानन्द लाल दास ने फोन करके मेरे अनुवाद कार्य की तारीफ की। मुझी स्वाभाविक रुप से काफी खुशी हुई। पता चला, वे मैथिली में कई पुस्तकें लिख चुके हैं, उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला हुआ है।
       ***
       "संवदिया" एक कहानी का नाम है- फणीश्वर नाथ रेणु की। रेणु जी का जन्म अररिया के निकट ही हुआ था। उस भाग्यशाली गाँव का नाम है- औराही-हिंगना। अररिया से कोई 20 किलोमीटर दूर- फारबिसगंज की तरफ- सिमराहा नामक एक गाँव है। यह रेलवे स्टेशन भी है। सिमराहा से 5-7 किलोमीटर दूर है औराही-हिंगना। यह बिलकुल देहात है।
       पिछले साल जून में मेरे (बरहरवा के) मुहल्ले के दोस्त के भाई की शादी थी सिमराहा में। मैं अररिया से पहुँचा था वहाँ। अगली सुबह मैं औराही-हिंगना पहुँच गया था। उस कुटिया का दर्शन करके मैंने खुद को धन्य माना, जहाँ रेणु जी का जन्म हुआ था।
       ***
       रेणु जी की कालजयी कृति "मैला आँचल" मैंने काफी पहले पढ़ा था। उनकी कुछ और रचनायें पढ़ने का भी सौभाग्य मिला। उनकी "रिपोर्ताज" शैली का मैं प्रशंसक बन गया। "नाज़-ए-हिन्द सुभाष" लिखते समय कई स्थानों पर मैंने रिपोर्ताज-जैसी शैली का प्रयोग किया। कईयों ने इसकी तारीफ की है।
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पुनश्च: 
मैं जो चाहता था कि "बनफूल" के नाम से हिन्दी साहित्य-रसिक परिचित हों और भागलपुर, साहेबगंज, सीमांचल के लोगों को भी याद आये कि इतना प्रतिभाशाली लेखक उन्हीं के यहाँ का है, उसका एक अंश शायद पूरा हुआ. 

सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

"खोंयचा"



       "खोंयचा" शब्द से शायद आप सभी परिचित न हों। मैं जहाँ तक समझा हूँ, यह एक तरह की सौगात है, जो घर की बड़ी-बुजुर्ग महिलायें विवाहिता बेटियों को विदाई के समय हाथों में देती हैं। शायद देश के अलग-अलग हिस्सों में इसे कुछ और कहते हों।
       बचपन में हम सरस्वती पूजा रंजीत के घर के सामने खाली जगह में करते थे। तब देखते थे- विसर्जन वाले दिन रंजीत की माँ एक लाल कपड़े में चावल तथा सुहाग की चीजें- चूड़ियाँ, सिन्दुर इत्यादि- भरकर उसे प्रतिमा के कमर से बाँध देती थीं। पूछने पर बताया- बेटी हमारे घर से विदा हो रही है न, तो हमें ही खोंयचा भरना है।
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       मेरी मेरठवासिनी श्रीमतीजी इस शब्द से पहले अपरिचित थी- यहीं आकर इससे परिचित हुई।
       आज पता चला- उसे भी दुर्गा माई का खोंयचा भरना है- आज दुर्गा माँ विदा हो रही है...
       विन्दुवासिनी पहाड़ के नीचे पिछले दो-तीन वर्षों से दुर्गा पूजा हो रही है। वहीं जाकर वह चावल तथा सुहाग की चीजों की पोटली माँ को चढ़ा आयी।
       साथ ही, विन्दुवासिनी मन्दिर से भी हम हो आये।
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       कैसी "जीवन्त" परम्परायें हैं.... क्यों?
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रविवार, 13 अक्तूबर 2013

शरतकाल का एक और फूल

 



       शरतकाल में जलाशयों के किनारे "कास" के सफेद फूल तो खिलते ही हैं (कहीं सचित्र जिक्र किया है मैंने), जलाशयों में कमल प्रजाति के भी एक फूल खिलते हैं, जिसे यहाँ "भेट" कहते हैं। इसके बीज से एक किस्म की "लाई" (लाड़ू- लड्डू) बनती है यहाँ, जिसे "कुन्ती" की लाई कहते हैं।
       ट्रेन से आते-जाते हुए कई स्थानों पर ये फूल दीखे, मगर छायाकारी का अवसर नहीं था। आज सुबह साइकिल लेकर निकला। मगर अफसोस कि जिस जगह मैं पहुँचा, वहाँ सारे फूल तोड़ लिये गये थे। दुर्गा माँ को इन्हें चढ़ाया जाता है। सिर्फ एक जोड़ा फूल नजर आया। उसी का फोटो लिया।
       फोटो खींचने के लिए मुझे कीचड़ तथा घुटनेभर पानी में घुसना पड़ा।
       ***
       लौटकर जब मुन्शी पोखर के किनारे चाय दूकान पर बैठा था, तब पता चला कि रतनपुर के तरफ कोई बड़गामा बस्ती है (जिसका नाम ही मैंने नहीं सुना था) वहाँ तालाब में कमल फूल मिलेंगे। इसके अलावे चण्डीपुर के तरफ कोई 'दुधिया' पोखर है, वहाँ भी मिलेंगे। इस तालाब का भी नाम मैंने नहीं सुना था। तालाब के जिक्र पर पता चला कि लब्दा के पास कोई "राजा दीघी" पोखर है, जिसकी गहराई का अब तक अनुमान नहीं लगाया जा सका है- यह एक रहस्यमयी तालाब है। हाँ, इसका जिक्र पहले भी एकबार मैंने सुना था, मगर अब तक देखने नहीं गया हूँ।
       ...सोच रहा हूँ अपने ही बरहरवा के आस-पास के बारे में मैं कितना कम जानता हूँ!
       ***** 

रविवार, 6 अक्तूबर 2013

गाँधीजी के बहाने...


  


       बहुत दिनों पहले मैंने कहीं पढ़ा था कि एक अमेरिकी न्यायाधीश ने एक बिगड़ैल किशोर को सजा दी थी कि वह महात्मा गाँधी की "आत्मकथा" को पढ़े। बेशक, इस सजा का उद्देश्य था- उस किशोर को चरित्रवान, सत्यवान और अहिंसक बनाना मेरा बेटा बिगड़ैल तो नहीं है, मगर "किशोर" है। मैं चाहूँगा कि वह भी गाँधीजी की आत्मकथा को पढ़े। सिर्फ गाँधीजी ही क्यों, अन्यान्य महापुरुषों की आत्मकथा को भी पढ़े। मैंने खुद अपनी किशोरावस्था में इस पुस्तक को पढ़ा था- वह भी चाव से, मन मारकर नहीं। इस बार शायद फर्क पड़े और अभिमन्यु मन मारकर इसे पढ़े- देखता हूँ... ।
       बचपन में गत्ते की जिल्द वाली एक रंगीन चित्रकथा- शायद "गाँधीकथा" नाम था- भी हमारे घर में हुआ करती थी, जिसे पता नहीं कितनी बार मैंने पढ़ा होगा!
       ***
       एक संयोग देखिये, 2008 में साक्षात्कार में मुझसे पूछा भी गया था कि क्या गाँधीजी ने कोई आत्मकथा लिखी है? चूँकि मैंने इसे पढ़ा था, इसलिए मेरा उत्तर था- जी हाँ। पूछे जाने पर मैंने नाम भी बता दिया- "सत्य के साथ मेरे प्रयोग"- "My Experiments with Truth" ('मेरे'/'My' पर मुझे सन्देह था, अब लग रहा है कि यह शब्द नहीं जुड़ेगा)। पूछे जाने पर मैंने यह भी बताया कि मैंने इसे पढ़ा है।
       ***  
       लगे हाथ एक और पुस्तक का जिक्र । "गिरमिटिया गाँधी" पढ़ने योग्य पुस्तक है। यह गाँधीजी की दक्षिण अफ्रिका प्रवास पर रोचक शैली में लिखी गयी रचना है। यह संक्षिप्त रुपान्तरण है; मूल वृहत् पुस्तक है- "पहला गिरमिटिया"; लेखक हैं- गिरिराज किशोर।  जिस प्रकार शोध करके उन्होंने इस पुस्तक को लिखा है, वैसी प्रवृति भारत में आम तौर पर नहीं पायी जाती।
मैंने "गिरमिटिया गाँधी" पढ़ी है- मगर अभी उसे 'गूगल' पर नहीं खोज पाया, सो "पहला गिरमिटिया" पुस्तक का लिंक दे रहा हूँ-
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       "हिन्द स्वराज" का जिक्र अक्सर सुनता हूँ, मगर कभी पढ़ने का मन नहीं किया। बीते दो अक्तूबर को गाँधीवादी विचारक राजीव वोरा का एक लेख 'प्रभात खबर' में पढ़ा- "आज के युग में हिन्द स्वराज क्यों", उसमें 'हिन्द स्वराज' की प्रशंसा की गयी थी। इस बार सोचा इसे पढ़ कर देख ही लिया जाय कि आखिर इसमें है क्या! कल रात भागलपुर से गुजरते वक्त स्टेशन पर इसे खरीदा। पढ़ना शुरु भी कर दिया है।
       एक दूसरी बात। राजीव वोरा जी के उक्त आलेख में पूँजीवाद व समाज/साम्यवाद की व्याख्या एक ही पंक्ति में इतने सुन्दर ढंग से की गयी है कि मुझे आश्चर्य हुआ। देखिये-  
"आधुनिक सभ्यता की एक संतान पूंजीवाद ने व्यक्ति की स्वाधीनता के नाम पर न्याय की हत्या की, तो दूसरे (यानि साम्य/समाजवाद) ने न्याय की स्थापना के नाम पर मनुष्य की स्वाधीनता को ही दमित कर दिया."   
        इससे पहले की पंक्ति है:
"एक ओर सरासर अनीति और कमजोर के शोषण पर आधारित भोगप्रधान जीवन दृष्टि देनेवाला पूंजीवादी विचार है, जो व्यक्ति-स्वातंत्र्य के सपने और वादे के जोर पर टिका हुआ है, तो उसी पूंजीवाद की ही माता की कोख से ही और उसी के विरोध में पैदा हुआ समाजवादी-साम्यवादी विचार है, जो जीवन में समता और न्याय के लिए खड़ा हुआ, किंतु न्याय-स्थापना द्वेष आधारित रही- साम्यवाद ने मनुष्य की स्वाधीनता का ही हरण कर लिया."
       इससे पहले वे लिखते हैं:
"जो केवल बुद्धिवाद से प्रेरित हैं, उनके लिए पूंजीवाद से लेकर साम्यवाद तक की बहुत सारी विचारधाराएं और जीवन दृष्टियां हैं, दूसरी ओर जो कोरी रूढ. आस्था और भावना से उन्माद में आकर चलते हैं उन्हें पकड.नेवाले विचारवाद और विभित्र प्रकार के आंदोलन भी हैं, लेकिन संपूर्ण जीवन अर्थात् जीवन के आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में न्याय और नैतिकता की स्थापना करने का न तो इनमें आंतरिक सार्मथ्य है, न सार्मथ्य का कोईप्रमाण.
...और इस प्रकार, वे 'हिन्द स्वराज' की उपयोगिता को आज के सन्दर्भ में स्थापित करते हैं।
       ***
       प्रसंगवश, इसी अखबार में "किसी को भी सन्त क्यों कहें" शीर्षक से गाँधीजी के विचार भी ('बोधि वृक्ष' स्तम्भ के अन्तर्गत) प्रकाशित हैं, जिसकी अन्तिम दो पंक्तियाँ हैं: "मैं अपने देश या अपने धर्म तक के उद्धार के लिए सत्य और अहिंसा की बलि नहीं दूँगा। वैसे, इनकी बलि देकर देश या धर्म का उद्धार किया भी नहीं जा सकता।"
       इसके मुकाबले नेताजी का विचार था- "देश को आजाद कराने के लिए अगर शैतान से भी हाथ मिलाना पड़े, तो वे मिलायेंगे!" हालाँकि उसवक्त नेताजी की स्थिति ही ऐसी हो गयी थी कि "नात्सीवाद" और "फासीवाद" को नापसन्द करने के बावजूद उन्हें हिटलर-मुसोलिनी से हाथ मिलाना पड़ा। स्तालिन ने उन्हें सैन्य सहयोग देने में असमर्थता जाहिर कर दी थी और हिटलर से मदद लेने का सलाह दिया था। नेताजी कहीं और जा नहीं सकते थे क्योंकि अँग्रेज जासूस उनकी हत्या की ताक में लगे हुए थे।
स्पष्ट है कि गाँधीजी अपने सिद्धान्तों को देश और धर्म से ऊपर मानते थे और इस "हिंसा" के कारण ही उन्होंने असहयोग आन्दोलन (1922) को वापस लिया- जबकि अँग्रेज घुटने टेकने वाले थे; तथा नेताजी के युद्ध (1944) के दौरान जनता को आन्दोलित होने के लिए प्रेरित नहीं किया।
हालाँकि इनका नतीजा बहुत ही बुरा हुआ- अँग्रेजी राज ही कायम रह गया- सिर्फ चेहरे बदल गये!
दूसरी तरफ नेताजी के लिए देश ही उनका सबकुछ था।
नेताजी की भावनाओं से कुछ हद तक मैं वाकिफ हो गया हूँ, अब सोच रहा हूँ, गाँधीजी के भी मनोभावों को समझा जाय।
क्योंकि देश की खुशहाली मेरा "साध्य" है और इसे हासिल करने के लिए "साधन" क्या चुना जाय, इसपर मुझे मन्थन करना है! 
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अन्त में, एक हल्की-फुल्की बात: साढ़े चार सौ पेज वाली "आत्मकथा" (नवजीवन) का मूल्य सिर्फ 40/- रुपये और मात्र 80 पेज वाली "हिन्द स्वराज" (शिक्षा भारती) का मूल्य 60/- रुपये! यह तो ना-इन्साफी है!  
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स्त्रिलिंग/पुल्लिंग



       बीते जुलाई के पहले हफ्ते में जब मेरा देवघर जाना हुआ था, तब मेरी नजर घण्टाघर पर टँगे उस साइनबोर्ड पर पड़ी थी, जिस पर लिखा था- "भारतीय स्टेट बैंक देवघर परिवार आपका स्वागत करती है।"
       मैं उन्हीं दिनों सोमी ("सोमी"- सोशल मीडिया) पर लिखना चाहता था कि देश की नामी-गिरामी संस्थायें जब स्त्रीलिंग-पुल्लिंग की ऐसी गलतियाँ करती हैं- वह भी सरे-आम- तो बड़ा खटकता है। मगर मैंने इसका उल्लेख नहीं किया।
       संयोग से, पिछले दिनों फिर देवघर जाना हुआ। स्वाभाविक रुप से मेरी नजर उसी बोर्ड पर गयी- मुझे सुखद आश्चर्य हुआ- "करती" शब्द की दीर्घ ई की मात्रा के ऊपरी हिस्से पर कागज चिपका कर (या फिर, पेण्ट करके) उसे "करता" बना दिया गया था। मैंने मन-ही-मन भारतीय स्टेट बैंक के देवघर परिवार को धन्यवाद दिया- उनकी संवेदनशीलता के लिए। हो सकता है- पिछले दिनों "हिन्दी दिवस" मनाने के क्रम में उनका ध्यान इस तरफ गया हो!
       अभी बात खत्म नहीं हुई है- एक और काम बाकी है। यह तो थी "घण्टाघर" की बात। बाकी जो मुख्य चौराहे हैं देवघर के, उनपर भी साइनबोर्ड टँगे हैं, जिनपर लिखा है- "भारतीय स्टेट बैंक देवघर शाखा आपका स्वागत करता है।"
       यानि अबकी बार नीले पेण्ट की एक छोटी-सी डिबिया और ब्रश एक पेण्टर के हाथ में थमाकर उसे लेकर देवघर के सारे मुख्य चौराहों पर घूमना होगा और "करता" को "करती" बनाना होगा....
       देखा जाय, स्टेट बैंक, देवघर शाखा का ध्यान कब तक इस तरफ जाता है...