जगप्रभा

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बुधवार, 25 जुलाई 2012

“बोल बम”


शिवगादी गुफा, यानि 'गजेश्वरधाम' का तोरणद्वार 

      बरहरवा से राजमहल कोई 30 किलोमीटर दूर है। सावन के किसी एक सोमवार को हम वहाँ से गंगाजल लाकर बरहरवा के विन्दुवासिनी पहाड़ पर शिवलिंग पर जल चढ़ाते थे। यह रात की काँवड़-यात्रा होती थी। इसके लिए रविवार को शाम की ट्रेन से बरहरवा से बच्चों, किशोरों, युवाओं की टोलियाँ रवाना हो जाती थीं। राजमहल जाने के लिए तीनपहाड़ स्टेशन पर ट्रेन बदलनी पड़ती है। तीनपहाड़-राजमहल के बीच एक शटल ट्रेन चलती है।
      राजमहल पहुँचकर सभी रात होने तक इधर-उधर घूमते-फिरते थे और फिल्म देखते थे। चूँकि हमारा ननिहाल वहाँ है, इसलिए हम (यानि मैं और मेरे बड़े भाई) एकबार नानी से मिल आते थे।
      रात में गंगाजी में डुबकी लगाकर, काँवड़ में जल लेकर बोल-बम के नारों के साथ एक-के-बाद जत्थे रवाना होने लगते थे। अक्सर रात में बारिश या बूँदा-बाँदी होती रहती थी। मगर सभी लोग पूरे जोश के साथ भोले बाबा- पार करेगा, कांटा-कंकड़- पार करेगा-जैसे नारों के साथ आगे बढ़ते रहते थे। रास्ते में छह-सात छोटी-बड़ी बस्तियाँ पड़ती थीं, जहाँ हम सुस्ताते भी थे। मगर वे बस्तियाँ सुनसान रहती थीं, क्योंकि यह मध्यरात्रि का समय होता था। ज्यादातर समय सड़क के दोनों तरफ बस खेत होते थे, खेतों में पानी भरा होता था, उनमें धान के पौधे रोपे हुए होते थे और तरह-तरह की टर्र-टर्र की आवाजें- मेढ़कों की- उन खेतों से आती रहती थीं।
मुझे याद है, एक बार बिना रुके हम बरहरवा पहुँच गये थे- तब हम रामेश्वरजी के साथ थे।
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शिवगादी गुफा के बाहर

      इससे कठिन एक काँवड़-यात्रा थी- फरक्का से शिवगादी की। यह कोई 60 किलोमीटर की यात्रा थी। इसके लिए बरहरवा के काँवड़िये ट्रकों से लिफ्ट माँगकर पहले 25 किलोमीटर दूर फरक्का पहुँचते थे (अब टेम्पो वगैरह चलते हैं); शाम के समय ‘फरक्का बराज’ के किनारे एक घाट में डुबकी लगाकर जल लेकर लोग रवाना होते थे; बरहरवा में बोहरा शिव मन्दिर में काँवड़िये कुछ देर विश्राम करते थे और फिर रात में बरहेट की ओर रवाना हो जाते थे। (अब तो बरहरवा में काँवड़ियों के लिए बाकायदे टेण्ट वाले विश्रामगृह बनने लगे हैं।)
      बरहरवा और बरहेट के बीच राजमहल की पहाड़ियों की एक शाखा है- इसे रात में ही काँवड़िये पार करते थे। बरहेट बाजार से कोई सात किलोमीटर दूर पहाड़ी पर एक आश्चर्यजनक प्राकृतिक गुफा में शिवजी विराजमान हैं। बीच में गुमानी नदी पार करनी पड़ती थी। पानी ज्यादा होने पर नाव से नदी को पार किया जाता था, अन्यथा कमर भर तक पानी होने पर लोग चलकर ही नदी को पार करते थे।
      गुमानी के उस पार का रास्ता पहाड़ी था। कष्ट उठाकर लोग गुफा तक पहुँचते थे। गुफा के बाहर पानी के प्राकृतिक झरने बहते रहते थे- उसके स्पर्श से काँवड़ियों की सारी थकान दूर हो जाया करती थी।
      मैंने बचपन में एक ही बार यह यात्रा की है।
      अब तो बात ही कुछ और है- अब शिवगादी या शिवगद्दी बाकायदे गजेश्वरधाम बन गया है; गुमानी नदी पर पुल बन चुका है; सड़क पक्की हो गयी है; झारखण्ड सरकार की ओर से खूब सौन्दर्यीकरण किया गया है तथा जन-सुविधाओं की व्यवस्था की गयी है; चारपहिये वाहनों के लिए बाकायदे ‘पार्किंग’ है; सावनभर जबरदस्त मेला लगा रहता है; काँवड़िये भी अब पैदल के बजाय मोटरसाइकिलों में फरक्का से जल लाना पसन्द करने लगे हैं- खासकर, बंगाल के काँवड़ियों के लिए यह एक मनोरम यात्रा बन गयी है।
      ‘गजेश्वरधाम’ बनने के बाद एकबार कैलाश के साथ हम सपरिवार शिवगादी गये- चारपहिया वाहन से। मेले की भीड़ देखकर मैं दंग रह रह गया था- दूर-दूर से लोग आये हुए थे- इतना बदलाव!
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'मोती झरना' 

      हमारे इलाके की तीसरी काँवड़ यात्रा है- महाराजपुर से मोती झरना की। यह तीनों में सबसे छोटी पर अच्छी-खासी कठिन एवं रोमांचक यात्रा हुआ करती थी। अब नहीं- अब तो पक्की सड़क बन गयी है और लोग बिना पहाड़ पर चढ़ाई किये घूम-घाम कर मोती झरना तक पहुँच जाते हैं। उन दिनों रात भर पहाड़ियों पर काँवड़िये चलते थे- फिसलते, गिरते-पड़ते और एक-दूसरे को सहारा देते। मैं एक ही बार इस यात्रा पर गया हूँ, पर बरहरवा के बहुत-से नौजवान हर साल यह यात्रा करते थे।
      इसके लिए बरहरवा वाले सावन के आखिरी सोमवार को चुनते थे। जहाँ तक मुझे याद है, महाराजपुर जाने के लिए काँवड़ियों के जत्थे आधी रात वाली सवारी गाड़ी (लास्ट लोकल) को पकड़ते थे। महाराजपुर के बाद सकरीगली स्टेशन पड़ता है और उसके बाद ही साहेबगंज है। साहेबगंज से महाराजपुर तक गंगाजी की एक धार आती है। आधी रात में इसी धार में डुबकी लगाकर लोग रवाना होते थे। रेल पटरी के एक तरफ गंगाजी है, तो दूसरी तरफ ही पहाड़ी है। दस-पन्द्रह मिनट के अन्दर पहाड़ी पर चढ़ाई शुरु हो जाती थी। बड़ी रोमांचक यात्रा के बाद भोर होते-होते लोग मोती झरना पर पहुँचते थे- यह एक प्राकृतिक जलप्रपात है। जलप्रपात के पीछे प्राकृतिक गुफा है और गुफा में शिवजी विराजमान हैं।
      किसी जमाने में महाराजपुर के स्वयंसेवक बरहरवा से आने वाले काँवड़ियों के लिए नाश्ते वगैरह का भी इन्तजाम करते थे। घाट पर रोशनी की व्यवस्था भी की जाती थी। अब शायद पहाड़ियों पर से यह काँवड़-यात्रा बन्द हो गयी है।
      मुझे याद है कि जल चढ़ाकर जब हम वापस महाराजपुर स्टेशन आये थे, तब स्टेशन  बरहरवा के काँवड़ियों से भरा हुआ था। हमारी टोली ट्रेन की छत पर बैठकर बरहरवा पहुँची थी- आशा है- जीवन में फिर कभी यह काम नहीं करूँगा, चाहे एक-एक करके कई ट्रेनों को छोड़ना ही क्यों न पड़ जाय!  
      अब मोती झरना एक पर्यटन स्थल है- खासकर, साहेबगंज वालों के लिए। सड़क बन ही गयी है। झरने के जल को रोक-रोक कर तीन स्वीमिंग टैंक भी बना दिये गये हैं।
      2005-06 में हमलोग सपरिवार गये थे वहाँ। तब निर्माण नये-नये थे- अब पता नहीं क्या स्थिति है।
      प्रसंगवश, 1970-75 के बीच कभी फरक्का बराज बनकर चालू हुआ था- उससे पहले लोग सकरीगली से गंगाजी पार किया करते थे। कभी-कभी महाराजपुर से भी स्टीमर चलते थे। बाद में साहेबगंज में घाट बना। उन दिनों रेलवे के स्टीमर चलते थे। साहेबगंज से आज भी मनिहारी के लिए स्टीमर चलते हैं।
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मोती झरना के गुफा के बाहर कुछ ऐसा निर्माण किया गया है 

      चौथी काँवड़ यात्रा के बारे में लोग बहुत कम जानते हैं- मैं भी नहीं जानता था- यह है राजमहल से शिवगादी की यात्रा। राजमहल से जल लेकर पहले लोग तीनपहाड़ आते हैं और फिर तीनपहाड़ से सड़क छोड़कर राजमहल की पहाड़ियों पर से यात्रा प्रारम्भ कर देते हैं।
      कुछ साल पहले मेरे दोस्त आनन्द के छोटे भाई ने बरहरवा, शिवगादी, कन्हैया स्थान (राजमहल के निकट) और मोती झरना पर एक सी.डी. बनवायी थी- उसमें राजमहल से शिवगादी तक की इस पहाड़ी काँवड़-यात्रा की विडियोग्राफी दर्ज थी- तभी मैंने इस यात्रा के बारे में जाना था।
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      सुल्तानगंज से देवघर की काँवड़ यात्रा तो खैर, विश्वप्रसिद्ध है। मैंने भी एकबार यह यात्रा करने की कोशिश की थी, मगर मैं सफल नहीं रहा था- यह 1993 या 94 की बात है शायद। आमतौर पर लोग समूह में यह यात्रा करते हैं और रुकते हुए तीन दिनों में यात्रा पूरी करते हैं। यह सौ से कुछ ज्यादा किलोमीटर लम्बी यात्रा है। जो काँवड़िये बिना रुके यह यात्रा करते हैं, उन्हें डाक बम कहते हैं और उनका सुल्तानगंज घाट पर पंजीकरण होता है। ये लोग शाम को जल उठाते हैं और लगभग दौड़ते हुए सुबह देवघर तक पहुँचते हैं- बेशक, इसके लिए लोग बाकायदे अभ्यास भी करते होंगे।
      सुल्तानगंज जाने से पहले नंगे पैर चलने का अभ्यास करने के लिए मैं एक शाम पेट्रोल टंकी वाली सड़क पर टहलने निकला- सोचा, दिग्घी से लौट आऊँगा। दिग्घी बस्ती तीन किलोमीटर दूर है। मगर पता नहीं क्या हुआ, मैं आगे बढ़ता चला गया। 15 किलोमीटर दूर उधवा पहुँचने पर जवाहर भैया से भेंट हुई- उनका बरहरवा में पहले गैरेज हुआ करता था। उन्होंने कहा- अब बरहरवा लौटने से तो अच्छा है कि आगे राजमहल चले जाओ- अपने नानीघर। और इस प्रकार, प्रायः 30 किलोमीटर टहलते हुए मैं अपने नानीघर पहुँच गया। रात वहीं रुका और सुबह बस से वापस लौटा। घर में पिताजी को अन्दाजा हो गया था कि मैं शायद राजमहल पहुँच गया हूँ।
      सुतानगंज में मेरी मौसी का घर है। मैं वहीं रुका। रविवार की सुबह दस बजे करीब गंगाजी में डुबकी लगाकर मैं जल लेकर चल पड़ा। बरहरवा से मैं अकेला आया था- जबकि अन्य लोग समूह में आते हैं। इसबार मेरे कन्धे पर काँवड़ नहीं था, बल्कि प्लास्टिक की दो बोतलों में गंगाजल लेकर मैंने कमर पर बाँध लिया था।
      नाममात्र के लिए रुकते हुए मैं रात होने तक चलता रहा। रात सात-आठ बजे करीब मैं एक ऐसी जगह पर पहुँचा, जहाँ बहुत सारी दुकानें सजी थीं- चाय-नाश्ते की। तब झारखण्ड राज्य नहीं बना था। अब कह सकता हूँ कि मैं बिहार-झारखण्ड की सीमा पर था। मैंने शायद आधी से ज्यादा यात्रा पूरी कर ली थी। वहाँ तैनात होमगार्ड के जवान ने मुझे अकेले आगे जाने से रोक दिया- बोला, आगे जंगली रास्ता है- आधी रात के वक्त डाक बम वाले गुजरेंगे, उन्हीं के साथ चले जाना।
      मैं एक दूकान की चौकी पर लेट गया। दिनभर आकाश में बादलों का नामो-निशान नहीं था- वर्षा या बूँदा-बाँदी तो दूर की बात थी। मैं थका हुआ तो था ही- नीन्द आ गयी। आधी रात के वक्त बोल-बम के नारों से आँखें खुलीं- डाक बम वालों की टोलियाँ करीब-करीब दौड़ते हुए गुजर रहीं थीं। जो दूकानदार दूसरे काँवड़ियों से कमाई करते हैं, वे डाक बम वालों की सेवा करते हुए धन्य हो रहे थे। कोई उनके पैरों पर गुनगुना पानी डाल रहा था, कोई साथ-साथ दौड़ते हुए उन्हें शर्बत या चाय पिला रहा था, कोई-कोई तो उन्हें सिगरेट पिलाने के लिए साथ-साथ दौड़ रहा था!
      मैंने उठना चाहा, तो पता चला, मेरी जाँघों की मांसपेशियाँ अकड़ गयी हैं। मैं फिर लेट गया और फिर मेरी आँख लग गयी। दावा तो नहीं कर सकता, पर लगता है कि अगर होमगार्ड ने मुझे नहीं रोका होता और मैं लगातार चलता रहता, तो शायद मैं देवघर पहुँचकर ही दम लेता।
सुबह बस की छत पर बैठकर मैं देवघर पहुँचा। सावन का आखिरी सोमवार था- मन्दिर परिसर में इतनी भीड़ थी कि मन्दिर के गर्भगृह में प्रवेश करना मुझे असम्भव लगा। मन्दिर के द्वार पर ही एक बोतल जल चढ़ाकर मैं बाहर आ गया। बाबा वैद्यनाथ के दर्शन मैं पहले कभी एकबार कर चुका हूँ- वह सावन का महीना नहीं था- सन्ध्या के शृँगार का समय था।
देवघर में मेरी (रिश्ते की) एक बुआ का घर है- करहनीबाग में। पता लगाते हुए मैं वहाँ पहुँचा। बाद में, बुआ के घर से मैं बासुकीनाथ गया- वहाँ भी एक प्रसिद्ध शिवमन्दिर है- देवघर से कोई चालीस किलोमीटर दूर। बेशक, मैं छोटी बस से ही गया था। वहाँ भीड़-भाड़ नहीं थी। दूसरे बोतल का जल वहाँ शान्ति से मैंने शिव पर अर्पित किया।
बुआ के घर में तीन-चार दिन रुका। दरअसल, मैं एक फुलपैण्ट और शर्ट बैग में लेकर चला था- हाँ, चप्पल नहीं लिया था। मैं नंगे पैर ही बरहरवा के लिए रवाना हुआ- बस से। पहले देवघर से दुमका आया, और फिर दुमका से अमरापाड़ा-लिटिपाड़ा-हिरणपुर-बरहेट होते हुए बरहरवा पहुँचा।   

बुधवार, 18 जुलाई 2012

आज मिला बारिश में नहाने का मौका...




      इस साल सारा आषाढ़ सूखा बीत गया; जबकि पिछ्ले साल आषाढ़ में बरहरवा के इलाके में जम कर बारिश हुई थी- बंगाल की खाड़ी में उठे चक्रवात का असर था। संयोग से, मैं भी उसी वक्त बरहरवा पहुँचा था।
      इस साल सावन के साथ बरसात की शुरुआत तो हुई, मगर मुझे बारिश में नहाने का मौका नहीं मिल रहा था। सुबह जो बारिश होती थी, वह इतनी धीमी होती थी कि नहाते नहीं बनता; दोपहर में कई दिन जमकर बारिश हुई, मगर तब मैं दफ्तर में होता। पिछले रविवार को तो मैंने सुबह से शाम तक बारिश का इन्तजार किया था- बदली छाई रही, मगर बारिश नहीं हुई। शाम हुई भी तो एक-दो मिनट के लिए।
      खैर, रात भर की बूँदा-बांदी के बाद आज सुबह आठ बजे से अच्छी बारिश शुरु हुई। मैं भी आधा घण्टा नहाया।
      अब देखा जाय, अगला मौका कब मिलता है...