जगप्रभा

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शनिवार, 27 फ़रवरी 2021

244. "बहर-हाल..."

 

       "बहर-हाल..." अमीन सयानी साहब का तकिया-कलाम हुआ करता था।

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       कुछ वर्षों पहले जब हमने "सारेगामा कारवाँ" रेडियो का विज्ञापन देखा था और यह जाना था कि इसमें '70 के दशक के 5000 सदाबहार गानों के साथ "बिनाका गीतमाला" वाले अमीन सयानी की आवाज भी है, तो मेरा मन ललचा गया था, पर कुछ तो कीमत के कारण और कुछ गम्भीरता के अभाव में हम इसे भूल गये थे। वैसे, मन में था कि कभी-न-कभी इसे ले ही लेंगे।

       हम फिफ्टी-प्लस की उम्र वाले '70 के दशक के गाने ही सुनना पसन्द करेंगे- चाहे कुछ भी हो जाय! क्या जमाना था वो भी- जब बुधवार की शाम 7 बजे रेडियो के चारों तरफ लोग इकट्ठे होकर बैठ जाया करते थे! "हाँ तो बेहनों और भाईयों..." के उद्घोष के साथ अमीन सयानी साहब शुरू किया करते थे "बिनाका गीतमाला"। बाद में इसका नाम "सिबाका गीतमाला" हो गया था। हमने कहीं पढ़ा था कि बहुत पहले इसका नाम "बिनाका हिट परेड" हुआ करता था। तब इसका प्रसारण श्रीलंका से हुआ करता था- रेडियो सीलोन से। कारण शायद यह था कि उन दिनों "आकाशवाणी" फिल्मी गानों को सम्मान की नजर से नहीं देखता था- इन्हें दोयम दर्जे का संगीत मानता था वह। वह सिर्फ शास्त्रीय एवं सुगम गीत-संगीत बजाया करता था। बाद में, जब देखा गया कि भारतीय लोग "आकाशवाणी" के स्थान पर "रेडियो सीलोन" ही सुनते हैं, तब जाकर "आकाशवाणी" पर फिल्मी गाने बजाने का निर्णय लिया गया।

       खैर, हमारी रजत-जयन्ती वाले दिन (25 जनवरी) अभिमन्यु के साथ उसके 7 दोस्त आये हुए थे। सभी (4 लड़के और 3 लड़कियाँ) बहुत अच्छे बच्चे थे- हालाँकि बच्चे कह नहीं सकते- सभी नवयुवा थे। ऐसा लगा, कार्यक्रम की आपाधापी में हम उनका ठीक से स्वागत और मेहमानवाजी नहीं कर पाये- हालाँकि आस-पास के दो-तीन घूमने लायक जगह वे घूम आये थे, पर हफ्ते भर पहले शुरू हुई शीत-लहर ने सारा मजा किरकिरा कर दिया था, वर्ना हफ्ते भर पहले ऐसा लग रहा था कि जाड़ा यहाँ खत्म हो गया है।

       तो उन नवयुवाओं ने हमें जो उपहार दिया, वह हमारा आकांक्षित "सारेगामा कारवाँ" ही था! हमारी- मेरी और श्रीमतीजी की- खुशी का ठिकाना न रहा!

       उसी "कारवाँ" का एक छोटा-सा विडियो-


 युट्युब पर-


      बहर-हाल... एक इच्छा है कि किसी साल सावन के महीने में अभिमन्यु के दोस्तों (जो आये थे और जो कुछ कारणों से नहीं आ पाये थे- सबको) को फिर बरहरवा बुलवाऊँ- जब हमारे यहाँ राजमहल की पहाड़ियाँ पूरे शबाब में होती हैं और शिवगादी एवं मोती-झरना-जैसे पर्यटन एवं धार्मिक स्थल भीड़ से गुलजार होते हैं...     

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सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

243. 'डाना' का 'पुनर्समापन'

 

        हम 'कला- 360' नामक फोण्ट का इस्तेमाल सत्यजीत राय और 'बनफूल' की रचनाओं के अनुवाद को टाईप करने में करते हैं। यह फोण्ट काफी साफ-सुथरा है और स्थान भी ज्यादा लेता है- खुला-खुला का आभास मिलता है। अभिमन्यु ने बताया कि किताबों में कम जगह लेने वाले छोटे फोण्ट अच्छे लगते हैं और पन्ने भी भरे-भरे अच्छे लगते हैं।

       ...तो 'डाना' के मामले में हमने 'गुल- 12 नॉर्मल' नामक फोण्ट का इस्तेमाल किया, जो अपेक्षाकृत कम जगह लेता है। पन्नों का मार्जिन भी थोड़ा-सा कम कर दिया। इसके बावजूद जब 'डाना' पुस्तक हाथ में आयी, तो इसकी मोटाई देखकर हम दंग रह गये। अब हम खुद सोच रहे हैं कि इतनी भारी-भरकम रचना का हमने अनुवाद कैसे कर लिया और करीब 350 पन्नों का मैटर टाईप कैसे कर लिया!

 


        खैर, इस पोस्ट का विषय है- 'पुनर्समापन।' दरअसल, हमने 'डाना' के हिन्दी अनुवाद के अन्त में एक अध्याय अपनी तरफ से जोड़ते हुए इसका पुनर्समापन करने की धृष्टता की है। ऐसा हमने क्यों किया, यह बताना उचित है-

1. मूल उपन्यास का समापन 'खुला समापन' है और इस लिहाज से हर पाठक को यह कल्पना करने का अधिकर प्राप्त है कि इसके बाद क्या हुआ होगा! तो एक पाठक के हिसाब से हमने भी कल्पना की है कि इसके बाद ऐसा हुआ होगा, या ऐसा होना चाहिए।

2. यह उपन्यास 2015 में "कॉपीराइट" के दायरे से बाहर आ गया है। इस लिहाज से भी मेरी हिम्मत बढ़ी कि हम अन्त में एक अध्याय जोड़ते हुए पुनर्समापन की कोशिश कर सकते हैं।

3. उपन्यास को 25 जनवरी को अपनी वैवाहिक रजत-जयन्ती के अवसर पर हम श्रीमतीजी को अर्पित करना चाहते थे। मूल उपन्यास का जो समापन था, वह इस अवसर के उपयुक्त नहीं था। इसलिए हमने अपनी ओर से एक अध्याय जोड़ते हुए कहानी का इस तरह से समापन किया कि वह वैवाहिक रजत-जयन्ती पर अर्पण के उपयुक्त बन जाय।     


  हालाँकि अपने अध्याय से पहले हमने एक टिप्पणी में बता दिया है कि मूल उपन्यास में कहानी यहीं समाप्त हो रही है, अगला अध्याय हमने जोड़ा है और पाठकगण अगले अध्याय को न पढ़ने के लिए स्वतंत्र हैं।


        हमने बँगला साहित्य के समालोचक डॉ. के.जी. रॉय सर से इस मामले में उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाहिए थी। सुनकर पहले तो वे हँसे थे, बोले थे- 'ए तो सांघातिक व्यापार!' माने, यह तो खतरनाक मामला है! फिर उन्होंने बंकिमचन्द्र की "कपालकुण्डला" वाली घटना सुनायी। इस उपन्यास का समापन खुला-समापन था। एक अन्य बँगला लेखक ने इसके बाद के घटनाक्रम की कल्पना करते हुए एक और कहानी या उपन्यास कुछ लिख डाला। बंकिमचन्द्र ने मना किया, वे नहीं माने, मामला कोर्ट में गया और अन्ततः अन्य लेखक की रचना जब्त हो गयी! आज उसकी कोई प्रति उपलब्ध नहीं है। वे लेखक बंकिमचन्द्र के समधी महोदय ही थे!


        खैर, कुछ दिनों बाद डॉ. के.जी. राय सर ने अपनी प्रतिक्रिया मुझे भेजी। उसका मजमून हम यहाँ हिन्दी में प्रस्तुत कर रहे हैं-

"जयदीप,

तुम्हारा लेखन अद्भुत है। लिखने की ऐसी क्षमता होने पर स्वयं ही कहानी या उपन्यास लिखा जा सकता है और वह निश्चित रूप से पाठकों को पसन्द आयेगा।

प्रश्न है कि यह उपसंहार उचित है कि नहीं।

उपन्यास की छह विशेषताओं में से एक है लेखक की 'फिलोसॉफी ऑव लाईफ', अर्थात् जीवन के बारे में लेखक की विशेष उपलब्धि, जिसे वे इस उपन्यास के माध्यम से बताना चाहते हैं। तुम्हारे द्वारा किया गया उपसंहार लेखक की 'फिलोसॉफी ऑव लाईफ' से नहीं मेल खायेगा। इस लिहाज से, आपत्ति बनती है। लेकिन तुमने जो ऑप्शन दे रखा है कि पाठक चाहे, तो नहीं भी पढ़ सकते हैं, इससे लेखक की निजता का हनन नहीं होता है।"

       के.जी. रॉय सर ने हमें सस्ते में छोड़ दिया, "बनफूल" चूँकि भागलपुर के थे, इसलिए हो सकता है कि वे हमें दो-चार झापड़ ही रसीद देते!

       खैर, "बनफूल" के जो भतीजे मनिहारी में रहते हैं (बनफूल के जन्मस्थान को उन्होंने स्मारक की भांति सहेज रखा है), बहुत पहले उनसे हम मिले थे। वे हिन्दी पढ़ना नहीं जानते। उन्होंने हमें बनफूल की एक पुत्रवधू (कोलकाता) से सम्पर्क करने को कहा था, जो साहित्य से जुड़ी हैं। हमनी ईमेल किया था। उनके पुत्र यानि बनफूल के पौत्र महीरूह मुखर्जी ने उत्तर दिया था। वे भी हिन्दी कुछ खास नहीं जानते, पर कुछ कहानियों के अनुवाद को सरसरी तौर पर पढ़कर खुशी ही जतायी थी उन्होंने। अब इस प्रयोग पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी, पता नहीं।

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