जगप्रभा

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शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

ऐलोपैथ व होम्योपैथ बनाम सरसों का तेल



16 फरवरी, वृहस्पतिवार को अररिया (जहाँ वर्तमान में मैं रह रहा हूँ) और आसपास के जिलों में भयानक ओलावृष्टि हुई। अगले दिन अखबार में था कि लगभग तीस करोड़ की फसल बर्बाद हो गयी। यह दुःखदायी बात है।
मगर मेरे इस आलेख का विषय व्यक्तिगत है। उस शाम घर आकर पैर धोते वक्त मेरा शरीर काँप गया- जाहिर है, मुझे ठण्ड लग गयी थी। ध्यान गया- मैं उस रोज हाफ स्वेटर पहनकर दफ्तर नहीं गया था। अगले दिन (शुक्रवार को) भी यह महसूस होता रहा कि मुझे ठण्ड लगी हुई है।
रात सोने से पहले मन में आया कि ऊनी टोपी माँग लूँ; मगर यह सोचकर कि श्रीमतीजी ने इसे धो-धाकर बक्से में डाल दिया होगा, मैंने टोपी नहीं माँगी। उनके (श्रीमतीजी के) बार-बार कहने पर भी मैंने ‘बेलाडोना-30’ लेने की जरूरत नहीं समझी। जबकि पहले रोज ही मुझे ‘एकोनाईट’ ले लेना चाहिए था। (घर में कुछ जरूरी होम्योपैथ दवाईयाँ मैं हमेशा रखता हूँ।)
 नतीजा दिखायी पड़ा शनिवार को- सिर में दर्द के रूप में। दर्द की स्थिति में ही दिन भर काम कर मैं घर लौटा। बेलाडोना की दो-चार खुराक ली, मगर अब तक देर हो चुकी थी।
रात भर मैं सिरदर्द के कारण ठीक से सो नहीं पाया।
सुबह तंग आकर मैंने सिरदर्द की एक ऐलोपैथ टेबलेट ले ली। कुछ देर में मन दुरुस्त हुआ, तो एक रिश्तेदार के कहने पर मैं पैंतालीस किलोमीटर दूर पूर्णिया जाने के लिए भी तैयार हो गया। वहाँ एक वैवाहिक समारोह में शामिल होना था।
दोपहर तक सिरदर्द फिर शुरु हो गया- यानि ऐलोपैथ दवा का असर (‘दर्दनिवारक’ असर) समाप्त हो गया था। चार बजते-बजते दर्द इतना तेज हुआ कि मुझे घर लौटना पड़ा। बाजार में एक और दर्दनिवारक गोली खाकर मैं रात घर लौटा।
इस बार की दवा शायद ज्यादा ताकतवर थी- इसने अगली सुबह तक सिरदर्द के अहसास को दबाये रखा; मगर तबीयत खराब है- यह तो लग ही रहा था।
यह रविवार का दिन था।
***
सोमवार को बैंक में काम करते वक्त सिरदर्द इतना बढ़ा कि घर से होम्योपैथ दवायें मँगवानी ही पड़ी। दस-पन्द्रह मिनट के अन्तराल पर दो दवाओं की खुराक मैं बारी-बारी से लेता रहा। मगर कोई राहत नहीं मिली।
ढाई बजे ही मुझे बैंक से घर लौटना पड़ा। मुझे घर जाकर ‘एण्टिबायोटिक’ दवा लेने की सलाह दी गयी।
मैं नहीं जानता एण्टिबायोटिक दवाएँ किस सिद्धान्त पर काम करती हैं; मेरा सिर्फ इतना अनुमान है कि ये दवायें शरीर के अन्दर हानिकारक विषाणुओं के साथ-साथ लाभदायक जीवाणुओं को भी मार डालती हैं। मैं और मेरी पत्नी- हम दोनों इस दवा को कभी-कभार अन्तिम उपाय के रूप में ही अपनाते हैं। अन्यथा, हम दोनों या तो तकलीफ को दो-चार रोज सह लेते हैं; या फिर होम्योपैथ दवा ले लेते हैं। जहाँ तक मेरे तेरह साल के बेटे की बात है, जब वह चार महीने का था, तब हमें एकबार उसे ऐलोपैथ दवा देनी पड़ी थी, उसके बाद अब तक ऊपरवाले की दया से उसे ऐलोपैथ की जरूरत नहीं पड़ी है। कभी-कभार कुछ तकलीफ होने पर होम्योपैथ दवाओं की कुछ खुराक से ही वह स्वस्थ हो जाता है। 
खैर, घर आकर निढाल होकर मैं बिस्तर पर लेट गया और बेटे से बोला- दवा दूकान जाकर ‘तेज सिरदर्द’ बोलकर कोई दवा ले आओ।
वह भागकर दवा ले आया।
तब तक माँ से बात करने के लिए मैंने घर (बरहरवा) फोन लगा लिया था। बरहरवा में होता, तो मैं अभी माँ की गोद में सिर रखकर लेटा होता।
पिताजी ने होम्योपैथ तथा बायोकिमिक दवाओं के जिक्र के बाद माँ को फोन दिया। माँ बोलीं- सरसों तेल गर्म करके माथे पर मालिश करो।
मैंने कहा- तेल में लहसून भी पका लूँ?
बोलीं- हाँ।
फिर वो बोलीं- देखो, बबलू क्या बता रहा है।
मेरे भाई ने फोन लेकर कहा- सरसों तेल उँगली में लेकर नाक से सूँघो न!
मैंने कहा- अभी सूँघता हूँ।
आप यकीन नहीं कीजियेगा- जैसे ही मैंने उँगली में सरसों तेल लगाकर उँगली को नाक में डालकर सूँघा- सिरदर्द की तीव्रता में मैंने कमी महसूस की!
मैंने दवा और बाम को दूर हटाया। फिर से दो-तीन बूँद तेल नाक में डालकर सूँघा। काफी राहत महसूस हुई।
इस बीच लहसून के साथ गर्म किया गया सरसों तेल भी मेरी श्रीमतीजी ले आईं और उस तेल से मेरे सिर की मालिश शुरू हो गयी।
संयोग से श्रीमतीजी की माँ भी अभी हमारे साथ हैं। उन्होंने तुलसी पत्ते, अदरख, गोलमिर्च (कालीमिर्च) इत्यादि का काढ़ा बनाकर दिया- मैं पी गया। अब रजाई ओढ़कर मैं लेट गया। 
कुछ देर बाद मेरे मन में क्या आया, मैंने श्रीमतीजी से कहा- स्वर्ग जाना चाहती हो? ऐसा करो, फिर से थोड़ा सरसों तेल लहसून के साथ गर्म करो, और इस बार मेरे पैर के तलवों की मालिश कर दो।
उन्होंने इस बार मेरे हथेलियों तथा तलवों की मालिश कर दी।
घण्टे भर बाद रजाई के अन्दर से मैंने महसूस किया- मेरा शरीर पसीना-पसीना हो रहा था। अर्थात् शरीर में घुसी ठण्ड अब निकल रही थी। सिरदर्द से तो लगभग छुटकारा मिल गया था। फिर भी मैं तीन घण्टों तक रजाई में ही रहा- जब तक कि शरीर पसीने से नहा नहीं गया।
हाँ एक बात और, इस तरह की तकलीफ होने पर हमलोग उबाला हुआ पानी ही ठण्डा करके पीते हैं, वह भी अच्छी-खासी मात्रा में। यह नुस्खा बचपन से ही हम देखते आये हैं। पिताजी का कहना है- यह शरीर से विषैले तत्वों को बाहर निकालने में मददगार होता है।  
***
यह घटनाक्रम मामूली लग सकता है। मगर मेरे लिए यह महत्वपूर्ण रहा।
याद आया, बचपन में हमलोग जब रेलवे के तालाब (बरहरवा का विशाल ‘कल पोखर’) में नहाने जाया करते थे, तब जाड़ों में पिताजी न केवल सरसों तेल से मालिश करने को कहा करते थे, बल्कि इसे नाभि में लगाने और सूँघने भी कहते थे। ...तब सूँघने से हम अक्सर बचते थे।
अब इतने वर्षों बाद, जब मैं खुद पिता हूँ, जाड़ों में नहाने से पहले मैं सरसों का तेल बाँयी हथेली पर लेकर दाहिने हाथ की तर्जनी उँगली से उसे सूँघूँगा और अपने बेटे को भी ऐसा करने को कहूँगा। ...अब शायद वह भी ऐसा करने से बचे...!  
*** 
पुनश्च:
सभी चिकित्सा-प्रणालियाँ अपनी जगह कामयाब हैं और हम आवश्यकतानुसार इनकी शरण में जा सकते हैं। दुर्घटना हो जाने के बाद ऐलोपैथ ही व्यक्ति की जान बचाता है। लम्बी बीमारियों में होम्योपैथ ही कारगर साबित होता है। हल्की-फुल्की तकलीफों के लिए घरेलू ईलाज अपनाकर देखा जा सकता है।
स्वस्थ रहने के लिए तो खैर, योग-प्राणायाम, कसरत-जॉगिंग एक प्रकार से रामबाण हैं।
ईति।
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मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

बरहरवा की हस्तलिखित पत्रिका- "मिलॅनी" (1954)



"मिलॅनी" के पन्नों के छायाचित्रों को अल्बम के रुप में मैंने निम्न वेब-साईट पर प्रस्तुत किया है: 
"मिलॅनी" से एक कविता 'प्रेम की अर्थी' तथा एक नाटक 'पराई' को भी यहाँ उद्धृत किया गया है. 

(टिप्पणी: उक्त आलेख को मैंने अपनी त्रैमासिक पत्रिका "मन मयूर" के लिए लिखा था.)