जगप्रभा

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शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

69. तीनपहाड़ जंक्शन की चाय-दूकान (तथा कुछ दूसरी बातें)


जब भी तीनपहाड़ जंक्शन की इस छोटी-सी चाय दूकान को देखता हूँ, मुझे एक बँगला उपन्यास की याद आ जाती है। उपन्यास का नाम था- "रिटायर्ड"। लेखक थे- निमाई भट्टाचार्य। बहुत समय पहले पढ़ा था। यह उपन्यास आत्मकथात्मक शैली में रची गयी रचना थी, जिसके नायक रिटायर होने के बाद जिन्दगी का सिंहावलोकन कर रहे हैं। नायक जब नौकरी वाले स्थान से घर लौटते थे, तब "अपर इण्डिया एक्सप्रेस" से लौटते थे और यह ट्रेन मुँह अन्धेरे तीनपहाड़ स्टेशन पर रुकती थी। यहाँ ट्रेन से बाहर आकर वे चाय जरूर पीते थे।
पता नहीं क्यों, मुझे हमेशा यही लगता है कि इस वर्णन के पीछे जरूर लेखक निमाई भट्टाचार्य का अपना खुद का अनुभव है। (बता दूँ कि बरहरवा से तीनपहाड़ की दूरी ट्रेन से 15 मिनट है.) ..साथ ही, इस दूकान को देखकर मुझे यही लगता है कि जरूर वे इसकी बनावट से आकर्षित हुए होंगे और यहीं वे चाय पीते होंगे। हो सकता है, इसके अलावे और कोई चाय कैण्टीन ही न हो- उस जमाने में। आज यहाँ कैसी चाय बनती है, पता नहीं; पर उस जमाने में जरुर कड़क चाय मिलती होगी यहाँ, जिसे मुँह-अन्धेरे भोर में पीकर मिजाज ताजा हो जाया करता होगा!
       टिप्पणी: निमाई भट्टाचार्य के कुछ उपन्यासों का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है:
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       बात निकलती है, तो दूर तलक ही नहीं जाती- इधर-उधर भी जाती है।
       सबसे पहले निमाई भट्टाचार्य के एक और उपन्यास की बात, जो मुझे बेहद पसन्द आयी थी उन दिनों। उन दिनों से मेरा मतलब- वे मेरे यौवन के दिन थे। उपन्यास का नाम था- "मेम साहेब"। उसमें लेखक ने एक गुमनाम शायर के एक शेर का जिक्र किया था, जो मुझे याद रह गया है:
       ज़िश्त पे इन्क़्लाब आने दे
       कमसिनी पे शबाब आने दे,
       ऐ ख़ुदा तेरी ख़ुदाई मिटा दूँगा
       जरा होंठों तक शराब आने दे!
       मरने और जीने का फैसला होगा,
       जरा उनका जवाब आने दे!!
       ***
       अब "अपर इण्डिया एक्सप्रेस" की बात।
यह एक जमाने में हमारे इलाके की प्रतिष्ठित ट्रेन हुआ करती थी- दिल्ली से सियालदह (कोलकाता) के बीच चलती थी। बरहरवा जंक्शन- यानि हमारे स्टेशन पर- इसकी "अप" व "डाउन" दोनों ही ट्रेनों का समय भोर में तीन से साढ़े तीन बजे का था। पता नहीं किस चमत्कार से यह समय अब तक बना हुआ है और अक्सर भोर में दोनों ट्रेनें- अप व डाउन- एकसाथ बरहरवा स्टेशन पर खड़ी रहती हैं।
अब इस ट्रेन की इज्जत तार-तार हो चुकी है। 1987 में (ऑपरेशन 'ब्रासटैक्स' के दौरान) इसे दिल्ली के बजाय मुगलसराय तक चलाया जाने लगा- बताया गया कि ऑपरेशन के बाद इसे फिर से दिल्ली तक चलाया जायेगा। मगर बाद में इसे "सियालदह-मुगलसराय एक्सप्रेस" ही बना दिया गया। अब यह "सियालदह-वाराणसी एक्सप्रेस" है- इलाके की एक बदनाम ट्रेन, जो "पैसेन्जर ट्रेन" की तरह चलती है, जिसमें सिर्फ दो ही "आरक्षित" बोगी है, उसमें आरक्षण का कोई मतलब नहीं होता। बस पुराने लोग इसे "अपर इण्डिया एक्सप्रेस" पुकार लेते हैं- यही इसकी बची-खुची प्रतिष्ठा है।
       आश्चर्य की बात यह है कि तब से लेकर आज तक- साहेबगंज लूप लाईन होकर- दिल्ली-कोलकाता को जोड़ने वाली एक भी ट्रेन नहीं है! न तो रेलवे का इस तरफ ध्यान जाता है, न ही इलाके की जनता का।
मेरे हिसाब से, "अपर इण्डिया एक्सप्रेस" को ही उसकी खोयी प्रतिष्ठा लौटायी जानी चाहिए।
       ***
       अब एक और ट्रेन की बात।
       किसी जमाने में कटिहार से बरहरवा के बीच ट्रेन चलती थी। उसी ट्रेन में सबसे पहले हमने "डीजल इंजन" को देखा था। उस जमाने में कटिहार से पूर्णिया, अररिया, जोगबनी जाने वाली रेल लाईन "मीटर गेज" हुआ करती थी। और भी दो-तीन दिशाओं में- मनिहारी के तरफ, मानसी के तरफ- जानेवाली पटरियाँ मीटर गेज ही हुआ करती थीं।
बाद में पता नहीं क्यों, इस ट्रेन को बन्द कर दिया गया। अब उधर की सारी मीटर गेज पटरियों को "ब्रॉड गेज" से बदल दिया गया है- मगर आज तक रेलवे वालों ने इन दोनों इलाकों को- मेरा मतलब गंगाजी के इस पार और उस पार वाले इलाकों को- ट्रेन से जोड़ने के बारे में नहीं सोचा। साहेबगंज से एक ट्रेन मालदा तक जाकर दिन भर वहीं पड़ी रहती है, फिर शाम को लौट आती है- पता नहीं, उसे ही कटिहार होते हुए जोगबनी तक क्यों नहीं चलाया जाता!
लोग आज भी साहेबगंज घाट से स्टीमर से ही गंगाजी पार करके मनिहारी जाते जाते हैं और फिर वहाँ से कटिहार, फिर कटिहार से पूर्णिया, अररिया, जोगबनी वगैरह। ठीक है कि मेरे-जैसे दो-चार सरफिरों को यह रूट पसन्द है, मगर बहुत-से लोग ऐसे होंगे, जिन्होंने इस रूट की परेशानियों को एक बार झेलने के बाद दुबारा इधर मुँह नहीं किया होगा।
फरक्का के बाद जो दूसरा पुल बना गंगाजी पर, वह भागलपुर के पास और उस पुल पर पता नहीं क्यों, रेल की पटरियाँ नहीं बिछायी गयीं!
साहेबगंज-मनिहारी के बीच गंगा पुल का ख्याली पुलाव जनता वर्षों से खा रही है, मगर स्थानीय नेताओं से बात की जाय, तो वे चौंक जायेंगे- ऐं! साहेबगंज-मनिहारी के बीच गंगा-पुल? ऐसा तो हमने कभी नहीं सुना!
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