जगप्रभा

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शुक्रवार, 29 मई 2020

234. कल पोखर


यह हमारे यहाँ रेलवे का तालाब है।
एक जमाना था, जब भाप के इंजन चलते थे, तब हमारे बरहरवा जंक्शन में हर इंजन में पानी भरा जाता था। क्या बड़े-बड़े नल हुआ करते थे !
तब हमलोग इसी तालाब में नहाने आया करते थे। वैसे, और भी तालाबों में नहाना होता था, पर मुख्य तालाब यही था।
इस तालाब को पाईप-लाईन के जरिये पड़ोस की 'गुमानी' नदी से जोड़ कर रखा गया था।
उन दिनों 'बहँगी' में दो टीन लटकाकर उसमें पानी भरकर सारे दूकानों में इस पानी की आपूर्ति होती थी। यानि इस तालाब के पानी को पीने योग्य माना जाता था।
तालाब की लम्बाई तो उतनी ही है, पर चौड़ाई अब घटकर आधी रह गयी है। आधे हिस्से को भरकर 4 नम्बर प्लेटफार्म बनाया गया है और कुछ हिस्सा यूँ ही परती पड़ा है।
हमलोगों ने अपने बचपन में इसी तालाब में तैरना सीखा था। याद है कि एकबार "रामकिशुन चाचा" ने हम बच्चों का उत्साह बढ़ाने के लिए कहा था- अगर उस पार जाकर वापस लौट आओ, तो तुमलोगों को एक किलो रसगुल्ला खिलायेंगे। बेशक, चौड़ाई को आर-पार करने की बात थी, लम्बाई को नहीं। फिर भी, चौड़ाई भी कोई कम नहीं थी तब। हमलोग राजी हो गये थे। हाँफते हुए हमलोग तैरते हुए उस पार चले गये थे और वापस भी लौट आये थे। उन्होंने खुशी-खुशी हमलोगों को एक किलो रसगुल्ला खरीदकर दे दिया था।
(बोल-चाल में रामकिशुन चाचा को 'किड़किड़वा" कहा जाता था। गाँवों अक्सर पहले हर व्यक्ति का "निक नेम" या "पुकार नाम" हुआ करता था। उन्हें 'किड़किड़वा' क्यों कहते थे लोग? क्योंकि उनकी मूँछें कड़क थीं!)
तालाब के किनारे जिस जगह से फोटोग्राफी/विडियोग्राफी की जा रही है, वहाँ अभी तो नया फुटओवर ब्रिज है, पर उन दिनों यहाँ एक "पम्प-हाउस" हुआ करता था। कोयले से संचालित पम्प-हाउस। अब उसका नामो-निशान नहीं है। वहीं से तालाब का पानी एक विशाल टंकी में चढ़ाया जाता था। टंकी 1921 में बनी हुई है। तब रेलवे "ईस्ट इण्डिया कम्पनी" की हुआ करती थी। यह टंकी आज भी है और यह हमारे बरहरवा का एक "लैण्डमार्क" है। 

पिछले 25-30 सालों से हमलोगों ने "सुखाड़" नहीं देखा है- पता नहीं क्यों, लेकिन याद है कि पहले सुखाड़ पड़ा करते थे। तालाब और कुएं सूख जाया करते थे। इस कल-पोखर में भी पानी घट जाता था। पानी गंदला हो जाता था। फिर भी, लोग नहाते थे इसमें। बाकी छोटे-मोटे तालाबों में पानी रहता ही नहीं था। क्या दिन थे वे भी!
गर्मियों में नहाते समय अक्सर हमें समय का ध्यान नहीं रहता था। कभी-कभी पिताजी को बुलाने आना पड़ता था- छड़ी हाथ में लेकर। क्या बचपना था!
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युट्युब पर हमने कुछ विडियो भी डाल रखे हैं- 
कल पोखर- 1
कल पोखर- 2 
कल पोखर- 3 
पानी टंकी