जगप्रभा

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मेरे द्वारा अनूदित/स्वरचित पुस्तकों की मेरी वेबसाइट

शनिवार, 15 फ़रवरी 2020

230. ये दोस्ती..


       जब हम नौवीं-दसवीं में थे, तब हमारे क्लब का नाम "पैन्थर्स क्लब" हुआ करता था। हमलोग बाकायदे एक छोटा-सा पुस्तकालय चलाया करते थे। जब पुस्तकालय का एक साल पूरा हुआ, तब हमलोगों ने बाकायदे एक "स्मारिका" भी प्रकाशित करवाया था। 1984 में हमलोगों ने मैट्रिक दिया था, और उस वक्त हमारा बैच बहुत बड़ा था- करीब डेढ़ सौ विद्यार्थियों का। हमारे हाईस्कूल में 'को-एजुकेशन' था। आज कोई 35 वर्षों के बाद हम लगभग 60 सहपाठी/सहपाठिनें एक व्हाट्सएप ग्रुप के माध्यम से जुड़े हुए हैं। जाहिर है, ग्रुप का नाम 'पैन्थर्स'84' है।
       जितने सहपाठी हमलोग अपने कस्बे में हैं, उनमें आपस से अक्सर- कारण-अकारण- मिलना-जुलना होता ही है। ऐसे ही एक मौके की कुछ तस्वीरें यहाँ हैं।
       जब बात निकलती है, तो कुछ दूर तक जाती ही है। हमलोग नवीं-दसवीं के दिनों में जितने शरीफ थे, उतने बदमाश भी थे। एक बड़ा काण्ड हुआ था, जो लम्बे समय तक तक चला था। छोटी-मोटी बदमाशियाँ तो बहुत सारी थीं।
"हजारी बाबू" की यह तस्वीर 2016 की है
हाईस्कूल के वरिष्ठतम शिक्षक "हजारी बाबू" ने हमारी गैंग को नाम दिया था- "शाही बदमाश गैंग" -ऐसा आनन्द मोहन उर्फ गुड्डू ने हमें बताया था। और उस बड़े काण्ड के बाद हमारे हेडमास्टर साहब "कुमुद बाबू" ने गुस्से में आकर हमलोगों को इन शब्दों में चुनौती दी थी- 'अभी हम बीस साल और सर्विस में हैं और इसी दौरान देख लेंगे कि तुमलोग जीवन में क्या करते हो!' उन्हें लगा था कि हमलोग असफल जीवन बितायेंगे, मगर ऐसा नहीं हुआ। हम सबने उनकी चुनौती को स्वीकार किया था और हममें से एक भी-
I repeat एक भी बन्दा गलत रास्ते पर नहीं गया, उल्टे जो जहाँ भी है, प्रतिष्ठित जीवन बिता रहा है!
       ऐसा नहीं है कि कुमुद बाबू को हमलोगों पर भरोसा नहीं था। भरोसा बहुत था। इसका पता बाद में चला- किसने बताया था, यह याद नहीं। ऊपर जिस बड़े काण्ड का जिक्र हुआ है, उसकी परिणति एक जुलूस में हुई थी। अपने एक शिक्षक के ही खिलाफ जुलूस- बाकायदे नारेबाजी के साथ, वह भी स्कूल से निकलकर बाजार तक। चौराहे पर सरे आम पुतला फूंका गया था। जैसा कि बहुत बाद में किसी ने जानकारी दी- जब जुलूस थाने के सामने से गुजरा था, तब दारोगा साहब ने आदमी स्कूल तक भेजवाया था और हेडमास्टर साहब से पुछवाया था कि क्या करना है इन लड़कों का? वो दारोगा साहब बहुत ही दबंग थे- "दिनेश सिंह"। बताया जाता है कि हेडमास्टर साहब ने पूरी जिम्मेवारी अपने ऊपर ली थी- कि यह हमारे और हमारे छात्रों के बीच का मामला है, आपलोग कष्ट न उठायें। बच्चे अभी जोश में है, जोश ठण्डा पड़ते ही सब सामान्य हो जायेगा। अब यहाँ दो
"कुमुद बाबू" हाल की तस्वीर
जानकारी और दे दी जाय- जिन शिक्षक के खिलाफ जुलूस था, उनका सुपुत्र हमारी ही कक्षा में था और जो दारोगा जी वहाँ पोस्टेड थे, उनका छोटा भाई हमारी कक्षा में था!
       "हजारी बाबू" शायद सौ वर्ष की उम्र छूने वाले हैं, या छू चुके हैं- पता लगाना होगा। बहुत ही बलिष्ठ शरीर है उनका। हमने दो-तीन साल पहले एकबार "राज" पूछा था। वे बोले- दूध बहुत पीये हैं और कुश्ती लड़ते थे। देखा जाय, पैन्थर्स वाले उनका सौवां जन्मदिन मनाने के लिए राजी होते हैं या नहीं। ये लोग "योजनाएं" बहुत बनाते हैं, मगर "कुछ करने" की हिम्मत नहीं है। 2009 में "रजत जयन्ती" पुनर्मिलन समारोह की बात हुई थी। उस समय हमें अररिया जाना पड़ गया- यहाँ किसी ने हिम्मत ही नहीं की। बाद में जब संजय ने 50-60 पूर्व-छात्रों को पैन्थर्स'84 में जोड़ लिया, तब भी पुनर्मिलन समारोह की बात चली, मगर बस "योजनाएं" ही बनती रही। "सिरफिरापन" न होने से ऐसे कार्यक्रम सम्भव नहीं है। यहाँ तो ज्यादातर "दोस्ती" का मतलब ही नहीं समझते। फिल्म 'थ्री इडियट्स' में इसे सही तरीके से दिखाया गया है। होना यूँ चाहिए कि कब है समारोह? ओके, हम पहुँच रहे हैं। हफ्ते भर के लिए भाड़ में जाये दुनियादारी, हम पहुँच रहे हैं! मगर ऐसी मानसिकता किसी में नहीं है।
       अभी पाँच-सात दिन पहले की बात है- अचानक पता चला कि "कुमुद बाबू" तीनपहाड़ आये हुए हैं। हमने दो दोस्तों से कहा कि पैन्थर्स'84 के माध्यम से सबको सूचित करो और वहाँ चलो। लोग "योजनाएं" बनाते रहे। दो दिन इन्तजार करके हम तीसरे दिन खुद जाकर मिल आये उनसे। कहा उन्होंने कि अभी वे 15-20 दिन और रहेंगे यहाँ। यह बात हमने फिर दोस्तों को बता दी है- अब देखते हैं कि कौन इस ब्लॉग-पोस्ट को पढ़ता है और कौन तीनपहाड़ जाने की बात करता है...
       हम अपनी कुछ किताबें ले गये थे उनके लिए। इसी बहाने उनका आशीर्वाद मिला। वर्ना 1984 के बाद से अब तक शायद हमने देखा ही नहीं था उनको।
       ईश्वर हमारे कुमुद बाबू, हजारी बाबू तथा अन्य सभी शिक्षकों को स्वस्थ एवं लम्बी उम्र दे- यही कामना करते हैं हम...
       इति। 



पुनश्च:
       ऊपर की बातों से किसी को धोखा हो सकता है, इसलिए एक स्पष्टीकरण जरूरी है। 1984 का जमाना वह जमाना था, तब शिक्षकों का रुतबा समाज में कायम था। छात्र न केवल उनका सम्मान करते थे, बल्कि डरते भी थे। हमलोगों ने बदमाशियाँ भले बहुत की हों, लेकिन यह सच है कि हम सभी अपने शिक्षकों से डरते थे और हेडमास्टर साहब से तो हमलोग "आतंकित" रहते थे!
       *
       एक दूसरी बात भी याद आयी। मैट्रिक के बाद बीस साल बाहर बिताने के बाद जब हम बरहरवा आये थे, तब हजारी बाबू एकबार स्टेशन पर मिले थे। मेरी श्रीमतीजी भी साथ थीं। प्रणाम करने के बाद हमने श्रीमतीजी से कहा कि हमारे सर हैं, हमें पढ़ाया है इन्होंने। श्रीमतीजी ने भी प्रणाम किया। आशीर्वाद देने के बाद हजारी बाबू हँसकर बोले- इसे? हमने तो इसके बाप को भी पढ़ाया है! यानि जब मेरे पिताजी मैट्रिक पढ़ रहे थे, तब हजारी बाबू शिक्षक बन चुके थे!  
       *  

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2020

229. रेडियो-दिवस के बहाने...


https://youtu.be/QNDCpLRCZms

       पता चला कि आज विश्व रेडियो दिवस है।
       सबसे पहले तो बात पिताजी और चाचाजी की। दोनों के पास छोटे-छोटे ट्रान्जिस्टर थे- शायद जापानी। जब मेरी दोनों दीदी बड़ी हुई और दोनों ने रेडियो सुनना शुरु किया, तब शायद पिताजी ने एक रेडियो खरीदा होगा। बाद में ट्रांजिस्टर खराब हो गया, तब अक्सर घर में पिताजी की हाँक सुनायी पड़ती थी- अरे समाचार का समय हो गया, रेडियो लाओ। फिर दीदी भागकर रेडियो दे आती थी। वर्ना रेडियो पर दीदियों का ही कब्जा रहता था। पिताजी बँगला समाचार सुनते थे। हमें याद है- एक "नीलिमा सान्याल" अक्सर समाचार पढ़ा करती थीं।  पिताजी रेडियो ढाका भी सुना करते थे। हमें याद है- एक फिल्म का विज्ञापन- "धीरेन... जोखोन बृष्टि एलो..." । पिताजी ने सुधार किया- "The Rain- जोखोन बृष्टि एलो..."। यानि फिल्म का नाम था- "जब वर्षा आयी"। इसमें एक टैग जोड़ दिया गया था- "दी रेन"।
       एकबार की हमें याद है, पिताजी शाम के समय एक नया रेडियो खरीदकर लाये- मास्को ओलिम्पिक में भारत हॉकी का फाईनल मैच खेल रहा था- उसकी कमेण्ट्री सुनने के लिए। शायद पुराने रेडियो में कुछ खराबी आ गयी होगी। ...और उस साल भारत ने हॉकी में स्वर्णपदक जीता था। पिताजी खेल-कूद में गहरी रुची रखते थे- शायद ही कोई क्रिकेट कमेण्ट्री हो, जो उन्होंने न सुनी हो!
       हमें कभी रेडियो का शौक नहीं था।
       1996 में हमने आसाम के छोटे-से शहर तेजपुर में अपनी गृहस्थी की शुरुआत की थी। बहुत जरूरी कुछ घरेलू सामानों के साथ। कमरा लिया था हमने- सोनाभील टी-एस्टेट के पास सोहनलाल अग्रवाल जी के घर में। तब मनोरंजन के साधन के रुप में एक "टू-इन-वन" लेने का विचार मन में आया। तब हम अंशु को अपनी साइकिल पर बैठाकर तेजपुर शहर तक चले जाते थे- कभी-कभी। इसी तरह से हम फिलिप्स का एक टू-इन-वन खरीद लाये।
       तब हमलोग जो कैसेट सुना करते थे, उनमें से कुछ के नाम अभी भी याद हैं। "आनन्द" और "सफर" फिल्म के गाने- मुख्य संवादों के साथ। "खामोशी- द म्युजिकल"। गुलजार के संवादों के साथ उनके लिखे गाने। फिल्म "रंगीला"। राजू श्रीवास्तव का एक कैसेट, जिसमें जबर्दस्त क्रिक्र्ट कमेण्ट्री थी।
       यह टू-इन-वन बहुत दिनों तक चला। 2004-5 तक हमलोग इसमें गाने सुनते थे- कभी कैसेट, तो कभी रेडियो। रेडियो में शुरु में हमारी प्रमुख पसन्द "विविध भारती" रही।
       जब टू-इन-वन खराब हुआ, तो हमने रेडियो लिया। रेडियो एक के बाद एक करके तीन ले लिये गये, पर किसी ने बहुत लम्बे समय तक साथ नहीं दिया।
       ....जबकि 1996 का वह टू-इन-वन आज भी साथ देता है...
       अभी तक हम इसपर विविध-भारती सुनते हैं...
       इसकी आवाज की मिठास का जवाब नहीं। जब तक इसमें कैसेट बजते थे, तब तक कई मैकेनिकों ने इसके "हेड" को बदलना चाहा था- मगर हमने मना कर दिया था। इसका "हेड" 10-15 वर्षों तक बहुत मीठे स्वर में कैसेट बजाया करता था।
       इति।

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2020

228. बन्दना पर्व



       परसों शाम जब हम 'बिन्दुवासिनी पहाड़' की ओर टहलने गये थे, तब देखे थे कि 'झिकटिया चौक' के बाद से सड़क चमकीले रंगीन कागजों से सजी हुई थी। साथ ही, आस-पास की आदिवासी बस्तियों से मादुल (मृदंग) की आवाजें भी आ रही थीं।
       आज संयोग से कुछ पहले ही हम टहलने निकल गये थे और जेब में फोन भी था। झिकटिया चौक के बाद ही आदिवासियों का एक छोटा-सा दल मृदंग की थाप पर थिरकता हुआ दिखा। पूछ कर हमने 2 विडियो बना लिये। पता चला, 'बन्दना' पर्व चल रहा है, जो हफ्ते भर का त्यौहार होता है। अभी तीन दिन और चलेगा। सड़क पर सजावट इसी के लिए की गयी थी। सम्भवतः पालतू पशुओं से जुड़ा त्यौहार है यह।
आगे बढ़े। जहाँ बिन्दुवासिनी पहाड़ की ओर मुड़ना था, वहाँ दूर की बस्ती से फिर थापों की आवाज सुनायी पड़ी। इधर की आवाजें ही कल सुनायी पड़ रही थी। हम बिन्दुवासिनी की ओर न मुड़कर आदिवासी बस्ती की ओर बढ़ गये। वहाँ पहले वाले से बड़ा एक दल थिरक रहा था। यहाँ हमने तीन विडियो बनाये- बेशक, अनुमति लेकर ही।
अब हम पीछे न लौट कर आगे बढ़े और नहर के किनारे से बिन्दुवासिनी की ओर बढ़े। यहाँ रेल-लाईन के पास पहुँचते ही बरमसिया बस्ती से फिर मृदंग के थापों की आवाजें सुनायी पड़ने लगी। क्या मन में आया, हम बस्ती में चले गये। यहाँ और भी बड़ा एक दल थिरक रहा था। यहाँ वाद्य में हारमोनियम भी शामिल था। एक बार जब हारमोनियम की लय बिगड़ी, तो नृत्य कर रही युवतियों/महिलाओं ने गाना शुरु कर दिया। यहाँ हमने चार विडियो बना लिये।
कुल 9 विडियो यु-ट्युब पर हैं, लिंक निम्न प्रकार से है:
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3 विडियो हमने ऐसे ही बना लिये थे। एक में राजमहल की पहाड़ी की शृंखला दिख रही है, जिसकी तलहटी में हमारा कस्बा बसा है; दूसरे में बरमसिया गाँव का एक तालाब है, जिसे देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि कितने शान्त परिवेश में आदिवासी समाज रहना पसन्द करता है, और तीसरे विडियो को हमने रेल-लाईन पर खड़े होकर बनाया है। एक तरफ देखा, तो प्रकृति के रुप में पहाड़ी की चोटी थी; तो दूसरी तरफ विध्वंस के रुप में एक ट्रक। यह जो रेल-लाईन है, यह 1850-60 की बनी हुई है, जब भारत में रेल बिछनी शुरु ही हुई थी और कोलकाता (अँग्रेजों की तत्कालीन राजधानी) को राजमहल (बँगाल-बिहार-उड़ीसा प्रान्तों की मुगलकालीन राजधानी) से जोड़ने के रेल लाईन बिछ रही थी। लम्बी होने के कारण यह देश की "दूसरी" लाईन बनी, जबकि बम्बई-थाने वाली लाईन छोटी होने के कारण जल्दी बनकर "पहली" रेल-लाईन बन गयी। खैर, ठीक से खोज हो, तो पता चलेगा कि राजमहल की पहाड़ियों के अन्दरुनी हिस्से तक बिछायी गयीं ये रेल-लाईनें ही देश की पहली लाईनें साबित होंगी- क्योंकि इन पर चलने वाली मालगाड़ियों से ही वे पत्थर लाये गये, जिनसे बाकी रेल-लाईनें बिछीं! खैर, तो एक तरफ प्रकृति और दूसरी तरफ प्रकृति का दोहन करने वाले ट्रक को दिखाने वाला यह विडियो है।
तीनों विडियो के लिंक-
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