जगप्रभा

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शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

239. लौट के...

 

     चाचीजी बताया करते थीं कि जब वे इस घर में आयीं, तब यहाँ बड़ी-सी मिट्टी की हाँडी में भात पकता था। कई बार उनसे हाँडी टूटी भी थी। माँ ज्यादा बातचीत नहीं करती थीं/हैं, इसलिए उनका अनुभव हमें नहीं पता। यह भी हो सकता है कि उनसे कभी हाँडी न टूटी हो।

       खैर, बचपन में यह हमारे लिए एक मनोरंजक जानकारी थी और इसे सुनकर हमलोग हँसते थे।

       जमाना बीत गया।

आज भी मिट्टी की हाँडी में भात-दाल-सब्जी पकायी जा सकती है- इस बारे में कभी हमलोग सोचते नहीं थे-

       -लेकिन बीते एक दिन एकाएक फर्माईश मिली कि बाजार से लौटते समय मिट्टी की एक हाँडी लेकर आनी है। हम ले आये- मंझोले आकार की एक हाँडी। पता चला, इसमें खाना पकाने की कोशिश की जायेगी। पहले दिन चावल पकाया गया। डर था कि कहीं खाने में 'किचकिच' (मिट्टी या रेत के महीन कण) स्वाद न आ जाय, मगर ऐसा नहीं हुआ। चावल पका भी था बहुत जल्दी- ऐसी उम्मीद नहीं थी।

       अगले दिन दाल पकायी गयी। डर था कि बहुत समय लग जायेगा। दाल को पहले भिंगो लिया गया, मगर दाल भी जल्दी पक गयी। तीसरे दिन एक दूसरी दाल पकायी गयी- वह भी उम्मीद से कम समय में पक गयी। यानि "कूकर" के इस्तेमाल की वास्तव में कहीं जरूरत ही नहीं है! अब रह गयी है- सब्जी। इसमें खतरा बताया गया है- हाँडी के टूटने की। हमने सलाह दिया- लकड़ी की बनी करछुली का इस्तेमाल किया जाय। सलाह मंजूर हो गयी है। जल्दी ही सब्जी भी पका ली जायेगी- मिट्टी की हाँडी में। तब शायद दो-एक और हाँडियों की जरूरत पड़े।

       सोचने पर लगता है कि वह 1950-60 का जमाना रहा होगा, जब हमारी रसोई में मिट्टी की हाँडी में भोजन पकता होगा। आज 60-70 साल के बाद इसे फिर से आजमाया जा रहा है।

       जैसी कि आज हमलोगों की आदत होती है- इण्टरनेट पर सर्च करके देखने कि आखिर इसके फायदे क्या हैं? क्यों उस जमाने में मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल भोजन पकाने में होता था? ...तो हमने भी सर्च करके देखा। जानकारियाँ तो बहुत उपलब्ध है- सबको खुद ही सर्च करके देखना चाहिए, पर यहाँ हम 'पंजाब केसरी' में प्रकाशित एक लेख का लिंक साझा कर रहे हैं- इसमें मिट्टी के बर्तनों की अच्छी-अच्छी तस्वीरें भी हैं-

https://nari.punjabkesari.in/nari/news/knowing-the-many-benefits-of-cooking-in-clay-pots-1058239

                इसी वेबसाइट से एक तस्वीर साभार ली जा रही है-


                ***

मंगलवार, 14 जुलाई 2020

238. कभी अलविदा न कहना...

    

बरहरवा के "शाहजहाँ" नहीं रहे।
       (आज सुबह यह अविश्वसनीय खबर मिली और दुर्भाग्य से, यह सच भी निकली... )
       1975 में हमारे बरहरवा में 'अभिनय भारती' के बैनर तले एक भव्य नाटक का आयोजन हुआ था, जिसका नाम था- "शाहजहाँ"। भव्य मतलब वाकई भव्य आयोजन था- स्टेज, स्टेज के बैकग्राण्ड, लाईट, पोशाक, हर चीज की व्यवस्था उम्दा थी। बेशक, 'टिकट' वाला नाटक था यह। इसमें मुख्य भूमिका निभायी थी जयप्रकाश चौरासिया ने। वे उस वक्त नवयुवक थे। जवानी में बूढ़े शाहजहाँ का किरदार उन्होंने इस तरह निभाया था कि लोग वाह-वाह कर उठे थे! औरंगजेब की भूमिका में थे हमारे नन्दकिशोर सर, जिनके बारे में कहा जाता है कि अभिनय करते समय उनकी आँखें बोलती थीं! मेरे दिवंगत पिताजी ने एक छोटी-सी भूमिका स्वीकार की थी- दिलेर खाँ की। दिवंगत श्रीकिशुन (श्रीकृष्ण) चाचा की भूमिका क्या थी, याद नहीं, मगर एक दृश्य में उन्होंने जिस झटके के साथ तलवार म्यान से निकाली थी, उसी एक झटके में उन्होंने तलवार को म्यान में रख भी दिया था। पता नहीं, इसके लिए कितना अभ्यास किया होगा उन्होंने!
       वह 70 का दशक ही ऐसा था- हर कस्बे की यही कहानी मिलेगी। खूब नाटक होते थे, बात-बात पर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे, छोटी-छोटी पत्र-पत्रिकाएं निकलती थीं... माहौल ही ऐसा हुआ करता था। हमारा बरहरवा इससे अछूता नहीं था। हिन्दी, बँगला और भोजपूरी, तीनों भाषाओं के नाटक खेले जाते थे। एक तरह की स्वस्थ प्रतियोगिता हुआ करती थी। नाटक लोग खुद ही लिखने भी लगे थे। सामाजिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक गतिविधियों में उत्साह के साथ भाग लेने वाले युवकों, अधेड़ों और बुजुर्गों की अच्छी-खासी संख्या हुआ करती थी। महिलाएं और लड़कियाँ भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थीं। मिसाल के लिए, हमारे यहाँ के हाई स्कूल और गर्ल्स स्कूल के कार्यक्रमों में एक तरह की प्रतियोगिता चलती थी।
       एक पाक्षिक पत्रिका थी, जिसमें "नगाड़ेवाला" शीर्षक से एक स्तम्भ हुआ करता था, लोग इसका इन्तजार करते थे। "डम-डम-डम" करता नगाड़ेवाला आता था और चुटीले अन्दाज में समाचार सुनाता था! शायद दिवंगत राजकिशोर जेठू इसे लिखते थे। दिवंगत दिलीप साव भी पत्रिका निकालते थे- वे ऊँचे दर्जे के बुद्धीजीवि थे। महावीर जेठू के साथ उनकी स्वस्थ प्रतियोगिता थी। दो दिग्गजों की लड़ाई में एकबार हम धर्मसंकट में पड़ गये थे। तब हम दसवीं के छात्र थे। हमारी लाइब्रेरी का एक साल पूरा हुआ था और इस अवसर पर हम एक 'स्मारिका' निकाल रहे थे। महावीर जेठू का कहना था कि उनकी चार लाईन वाली कविता (एक सन्देश के रूप में) सबसे पहले होनी चाहिए और दिलीप काकू का कहना था कि उनकी दो क्षणिकाएं (एक में तरूणों के लिए सन्देश था) सबसे पहले होनी चाहिए। जहाँ तक हमें याद है, चूँकि महावीर जेठू उम्र में बड़े थे, इसलिए उन्हीं की पंक्तियों को हमने पहले रखा था। स्मारिका के लिए जयप्रकाश भैया ने भी एक कविता लिखी थी, जिसका शीर्षक था- 'फ्रेम में कैद गाँधी'। दिवंगत सॉरेश सर "कजंगल" नाम की (त्रिभाषी) त्रैमासिक पत्रिका निकालते थे और बहुत ही ऊँचे दर्जे के बँगला नाटकों का मंचन करवाया करते थे।
       खैर, एक-एक कर बहुत-से दिग्गज या तो चल बसे, या फिर निष्क्रिय हो गये... सिर्फ ये जयप्रकाश चौरासिया ही थे, जो आज भी उतने ही सक्रिय थे, जितना युवावस्था में हुआ करते थे। नाटक तो अब होते नहीं, सो उनका अभिनय छूट गया; सांस्कृतिक कार्यक्रम भी नहीं होते, तो उनका गाना भी छूट गया, मगर  मंच-संचालन उनका जारी था। इस मामले में वे 'प्रोफेशनल' थे। बहुत जगहों से उन्हें बुलाया जाता था। दूरदर्शन पर भी एक कॉमेडी शो का संचालन भी किया उन्होंने। बरहरवा में हर साल 15 अगस्त और 26 जनवरी को हाई स्कूल के मैदान में 'नागरिक मंच' के बैनर तले कार्यक्रम आयोजित करवाते थे वे। बरहरवा के बिन्दुधाम पर बाकायदे कुछ गानों को उन्होंने फिल्माया था। कुछ गाने कोलकाता के गायकों ने गाये थे और कुछ उन्होंने स्वयं।
                जब हमने "मन मयूर" नाम से एक त्रैमासिक पत्रिका निकाली थी, तब हमने उनके लिए एक स्तम्भ बनाया था- 'आखिरी पन्ना'। वे खुशी-खुशी पत्रिका के इस आखिरी पन्ने के लिए लिखने के लिए राजी हो गये थे।
       चूँकि वे मेरे पिताजी को 'भैया' कहा करते थे, इसलिए हमें उन्हें 'चाचा' कहना चाहिए था, मगर उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि कोई भी युवक उन्हें 'चाचा' कह ही नहीं सकता! तो जब हम बड़े हुए, तो हमारे लिए भी वे जयप्रकाश भैया ही बन गये थे। शायद ऐसे व्यक्तित्व को ही हरदिल अजिज, जिन्दादिल, वगैरह कहा जाता है। बढ़ती उम्र की छाप नहीं थी उनमें।
       इसी साल होली पर होने वाले कार्यक्रम की रूपरेखा बनाते समय हम भी बैठे थे उनके बगल में (बेशक, कार्यक्रम में हम शामिल नहीं हुए कुछ कारणों से), तो उसी वक्त हमने "शाहजहाँ" का जिक्र किया था कि इस नाटक को पहले 1950 में खेला गया (जिसमें उनके पिताजी ने शाहजहाँ की भूमिका निभायी थी), फिर 1975 में खेला गया, तो इस हिसाब से सन 2000 में भी इसे खेला जाना चाहिए था। चलिए, नहीं हो सका, तो क्यों न 2025 में "शाहजहाँ" को फिर से खेला जाय? वे हँसने लगे, बोले- 2025 तो बहुत दूर है। हमने कहा- एकाध साल के अन्दर ही सही। वे बोले- विचार किया जायेगा।
       अब शायद ही विचार हो...
       अन्त में, बचपन में सरस्वती पूजा के समय हमलोगों ने भी इक्का-दुक्का सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये थे। ऐसे ही एक कार्यक्रम में उन्होंने जो गाना गाया था, वह था- चलते चलते मेरे ये गीत याद रखना, कभी अलविदा न कहना...
       कोई कुछ भी कहे, हम तो उन्हें अलविदा नहीं कहने जा रहे... 
       ***