पता नहीं क्यों, 'कास के सफेद फूल' मुझे बचपन से ही बहुत आकर्षित
करते हैं। वर्षा ऋतु के
बाद खेतों की मेड़ों पर, जलाशयों के किनारे, रेल-लाईन के ढलानों पर ये खिलते हैं। बचपन
में एकबार 'गुनू काकू' से जिद करके इन फूलों को मँगवाया था। 'चौलिया' से आते वक्त
वे इन्हें लाये भी थे।
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कास के ये सफेद फूल फिर खिलने लगे हैं। आकाश पर सफेद बादल भी जब-तब दीखने लगे हैं। ये दोनों वर्षा ऋतु के बीतने तथा शरद ऋतु के आगमन के संकेत हैं- हालाँकि अश्विन माह अभी आया नहीं है।
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कास के सफेद फूलों से जो बात याद आती है, वह सत्यजीत राय से जुड़ी है। उन्हें "पथेर पाँचाली" में एक दृश्य दिखाना था, जिसमें अपू और दुर्गा "पहली बार" रेलगाड़ी को देखते हैं। धुआँ उगलता हुआ काला इंजन सीटी बजाते तथा धड़धड़ाते हुए एक ट्रेन को लेकर दूर से गुजरता है और दोनों आश्चर्य से उसे देखते हैं। राय सोच रहे थे कि इस दृश्य को कैसे फिल्माया जाय कि यह यादगार बन जाये!
फिर उनका ध्यान कास के फूलों पर गया। बेशक, फिल्म रंगीन नहीं थी उस जमाने में। ऐसे में, काले इंजन के दृश्य को यादगार बनाने के लिए उसे कास के सफेद फूलों की पृष्ठभूमि में फिल्माने से बेहतर विकल्प और क्या हो सकता था! उन्न्होंने यही किया भी।
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इसी फिल्म से जुड़ी एक और बात- लगे हाथों। फिल्म के अन्त में अपू को दुर्गा के सामान में वह हार मिलता है, जो चोरी का होता है। पटकथा के अनुसार अपू को उस हार को जंगल में फेंकना था। मगर राय इस दृश्य को भी यादगार बनाना चाहते थे। कैसे इस दृश्य को फिल्माया जाय- यह सोचते हुए वे एक तालाब में कंकड़ फेंक रहे थे। अचानक एक कंकड़ पानी की सतह पर जमी 'काई' पर गिरा और कंकड़ बहुत धीरे-धीरे पानी में समाया... बस, उन्हें आइडिया मिल गया!
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