बँगला कथाकार "बनफूल" की एक कहानी है- 'पाठक की मृत्यु'
(बँगला में- 'पाठकेर मृत्यु')। इस कहानी में उन्होंने यह दिखाया
है कि एक समय जो पुस्तक हमें अच्छी लगती है, कोई जरूरी नहीं है कि एक अन्तराल के
बाद वही पुस्तक हमें फिर अच्छी ही लगे। बल्कि कई बार तो आश्चर्य होता है
कि इस पुस्तक को एक समय में मैंने पसन्द कैसे किया था? अर्थात् उस 'पाठक' की
मृत्यु हो जाती है, जिसने कभी इस पुस्तक को पसन्द किया था।
खैर, अपनी
चारों पसन्दीदा पुस्तकों को मैंने अपने जीवन के अलग-अलग कालखण्डो में पढ़ा है और अब
भी इन्हें मैं पसन्द करता हूँ।
1. "योगी कथामृत"
इस पुस्तक को मैंने 12-14
वर्ष की आयु में पढ़ा था। इसने मुझे
आध्यात्मिक बनाया। वर्ना मैं नास्तिक हुआ करता था। नास्तिकों की तरह बहस भी
कभी-कभार किया करता था। मगर इस पुस्तक ने जीवन के प्रति मेरा दृष्टिकोण ही बदल
दिया। मेरे अन्दर आस्था तथा विश्वास की एक शक्ति पैदा कर दी इस पुस्तक ने। जबकि
इसे मैंने 'समय बिताने' के उद्देश्य से हाथ में लिया था।
दर-असल, "गुरू पूर्णिमा" में मैं बिन्दुवासिनी
पहाड़ पर साथियों के साथ स्वयंसेवक के रुप में महाप्रसाद (खिचड़ी, मिली-जुली सब्जी
और आमड़े की चटनी) खिलाने में जुटा था। भोज समाप्त होने पर हमलोगों ने भी खाया और
उसके बाद भारी वर्षा शुरु हो गयी। हमें रुकना पड़ा। मैंने "झाजी काकू"
(पहाड़ के एक सन्यासी "बिल्ल्ट झा जी") से कुछ पढ़ने को माँगा और उन्होंने
यही किताब झाड़-पोंछ कर थमा दी।
जब पढ़ने में अच्छी लगी, तो इसे मैं घर ले आया। पिताजी ने भी
पढ़ा। उन्होंने कुछ ऐसा प्रचार किया कि बहुत-से लोग इसे मँगवाकर पढ़ने लगे।
हालाँकि सब पर एक जैसा असर नहीं होता। मेरे एक परिचित ने
मुझसे सुनकर इस पुस्तक को खरीदा, पर उन्हें अच्छा नहीं लगा। खैर। मुझे तो यह पसन्द
है। बाद में, यानि दो साल पहले मैंने 'फ्लिपकार्ट' (Flipcart.com)
से इसे फिर मँगवाया। और जब कभी
मन होता है कोई एक अध्याय पढ़ लेता हूँ- हृदय में आस्था-विश्वास की भावना और मजबूत
हो जाती है।
यह परमहँस योगानन्द की आत्मकथा है, जिसके अँग्रेजी संस्करण "Autobiography of a Yogi" की गिनती विश्वप्रसिद्ध पुस्तकों में होती है।
2. "उत्सव आमार जाति, आनन्द आमार गोत्र"
पुणे में रजनीश का आश्रम देखने गया था मैं। (तब मैं पुणे
में था- वायु सेना के लोहेगाँव स्थित यूनिट में- तैराकी के लिए।) हम कुछ भारतीय
दर्शनार्थियों को एक सन्यासी अन्दर ले गये और एक गाईड के रुप में सारा आश्रम
उन्होंने घुमाया। विदा करने से ठीक पहले, एक बुक स्टॉल पर हमें खड़ा किया गया, वहीं
मैंने इस पुस्तक को खरीदा था। यह 1988 की बात है। (पुस्तक पर पड़ी तारीख से दिन भी
बता सकता हूँ- 28 अगस्त।)
इस पुस्तक में रजनीश द्वारा 1 जून से 10 जून 1979 के दौरान
पुणे में दिये गये प्रवचन संकलित हैं, जो उन्होंने भक्तों द्वारा पूछे गये
प्रश्नों के उत्तर के रुप में दिये हैं। एक मानव के दिमाग में जितने तरह के प्रश्न
उठ सकते हैं, लगभग उन सबका उत्तर इसमें मिल जाता है। बीच-बीच में मुल्ला
नसीरूद्दीन के तथा कुछ अन्य चुटकुले इतना हँसाते हैं कि पेट में बल पड़ जाय!
पुस्तक का शीर्षक किसी बँगला कविता की एक पंक्ति है।
सम्भवतः रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता है।
आज भी, कभी-कभार पुस्तक को खोलकर कोई एक अध्याय पढ़ता हूँ और
पाता हूँ कि मस्तिष्क तरोताजा हो गया है।
3. "बसेरे से दूर"
इसे मैंने 28-30 की उम्र में पढ़ा था। इसमें लगता है,
'बनफूल' की 'पाठक की मृत्यु' का सिद्धान्त काम कर रहा है। अभी हाल में इसे मँगवाकर
जब मैंने इसके पन्ने पलटे, तो उतना रुचिकर नहीं लगा; जबकि पहली बार पढ़ते समय इसने
मेरे अन्दर विपरीत से विपरीत परिस्थियों में भी डटे रहने की भावना को बल दिया था। फिलहाल,
दो-चार दिनों का फुर्सत मिलते ही मैं इसे फिर से जरूर पढ़ूँगा।
यह "बच्चन" की आत्मकथा का तीसरा भाग है। पहले
मुझे यही पढ़ने का मौका मिला था, पहला भाग ('क्या भूलूँ क्या याद करूँ') पढ़ने का
मौका बाद में मिला।
वायु सेना में रहते हुए वहाँ के पुस्तकालयों से लेकर मैंने
ढेरों पुस्तकें पढ़ी थीं। मैं खुद को भाग्यशाली समझता हूँ कि मुझे यह अवसर मिला और
मैं आज भारतीय वायु सेना के प्रति हृदय से कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।
4. "रूद्रप्रयाग का आदमखोर बाघ"
यह अब तक की आखिरी पुस्तक है, जो मुझे पसन्द है। जिम
कॉर्बेट की एक अमर रचना। 2003 या 04 में मैंने इसे पढ़ा। पढ़कर रख दिया। दो-चार
दिनों बाद जब पन्ने पलटा, तो फिर पढ़ने का मन करने लगा और मैं इसे दुबारा पढ़ गया।
ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि एक पुस्तक को मैंने दुबारा पढ़ा हो, वह भी उसी चाव से।
इस पुस्तक के रोमांच के बारे में अब क्या बताया जाय! बस
इतना जान लीजिये कि एक रात हम कुछ वायुसैनिक ड्यूटी पर थे- एक एकान्त-से भवन में,
हल्के-फुल्के जंगलों के बीच। मेरे एक साथी ने मुझसे यह पुस्तक माँगी- पढ़ने के लिए।
पढ़ना शुरु भी किया, मगर 10-15 पन्ने भी शायद वे नहीं पढ़ पाये। रोमांच से सिहरकर
उन्होंने पुस्तक मुझे वापस कर दी। कहा- आप जब लौटा दोगे, तब पुस्तकालय से लेकर मैं
इसे पढ़ूँगा- दिन में!
जहाँ तक मेरी बात है, मैं इस पुस्तक के रोमांच से तो प्रभावित
हूँ ही। मैंने और भी कुछ सीखा है इससे, (यूँ कहा जाय- जिम कॉर्बेट से) जैसे-
1. जिस विषय को मैंने हाथ में लिया है, उससे सम्बन्धित
ज्यादा-से-ज्यादा जानकारियाँ प्राप्त करने की कोशिश करूँ।
2. जिस काम को जिस ढंग से किया जाना है, उसी ढंग से करूँ-
शॉर्टकट न अपनाऊँ।
3. 'सतर्कता' को अपने स्वभाव में लाने की कोशिश करूँ।
4. शरीर को आरामपसन्द न बनने दूँ।
5. अनुमान लगाने, विश्लेषण करने, आकलन करने में पारंगत बनने
की कोशिश करूँ।
6. मामूली-से-मामूली बातों, चीजों को भी नजरअन्दाज न करूँ।
इत्यादि-इत्यादि।
जिम कॉर्बेट की और भी रचनायें मैंने पढ़ी, मगर यह तो अद्भुत
रचना है!
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ओशो की पुस्तकें मुझे भी बहुत प्रिय हैं... मेरी मुँहबोली बहन ने मुझे एक बार 'एक योगी की आत्मकथा' पढ़ने को दी थी.. कुछ पन्ने पढ़ पाया था कि पुस्तक वापस करनी पड़ी.. फिर से पढ़ूँगा...
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