दो साल पहले यह हाफ स्वेटर बुना था श्रीमतीजी, यानि अंशु ने। कोटालपोखर के चचेरे भाई की शादी में इसी हाफ स्वेटर को
मैंने पहन रखा था। पिताजी ने इसकी प्रशंसा की थी और बधाई देने के अन्दाज में अंशु
से पूछा था- तुमने बुना है यह स्वेटर?
आज इसे पहनकर दफ्तर गया था। ट्रेन से उतरकर
जहाँ चाय पीता हूँ, वहाँ दो लोगों ने इसकी तारीफ की। दफ्तर में बॉस ने तारीफ की।
बाद में तीन-चार और लोगों ने तारीफ की। मेरी समझ में नहीं आया कि इस स्वेटर में
खास क्या है?
घर लौटकर पूछा- इसमें खास क्या है? अंशु का
कहना था इसका रंग-संयोजन बढ़िया है और अपनी मर्जी से जो डिजाइन मैंने बना दी है, वह
भी बढ़िया है। मैंने कहा- बाद में मुँह-हाथ धोया जायेगा- पहले एक तस्वीर खींच ली
जाय!
***
सच पूछिये, तो मैं अपने-आप को भाग्यशाली
मानता हूँ कि होश सम्भालने से लेकर अब तक मैं हाथ के बुने स्वेटर ही पहनता आया हूँ।
पहले माँ बुनती थी, फिर दोनों दीदी और अब पत्नी। कुछ स्वेटर चाची ने भी बुने थे।
मेरा मानना है कि हाथ के बुने स्वेटर पहनने का मतलब है- दुनिया में कोई तो है, जो
आपकी परवाह करता है! यह सिर्फ ऊन का वस्त्र नहीं होता, इसमें किसी की ममता, किसी
का अपनापन, किसी का प्यार, किसी की शुभकामना रची-बसी होती है...
अंशु ने मेरे लिए जो स्वेटर बुने हैं,
उनमें से कुछ के डिजाइन लीक से हटकर हैं और उन्हें प्रशंसा भी बहुत मिली है।
मगर हर कोई इनका महत्व नहीं समझता। अभी बीते नवम्बर के तीसरे हफ्ते में मैं करनाल में था। एक खुले रिसोर्ट में विवाह समारोह था। बहुत ही सुन्दर और नया एक फुल स्वेटर मैंने पहन रखा था- क्रीम रंग का। बेशक, अंशु का बुना हुआ। दो-ढाई बजे रात के आस-पास ठण्ड के कारण मैंने एक ऊनी टोपी पहन ली थी। बेशक टोपी रेडीमेड थी और अच्छी थी।
शादियों में लोग 'सूट' पहनते ही हैं। एक
सूटधारी मेहमान ने मुझे स्वेटर में देखकर रिसोर्ट का कोई स्टाफ समझने की भूल की।
मैंने हँसकर उन्हें समझा दिया। मुझे जरा भी बुरा नहीं लगा। मुझे लगा, आडम्बर से
परहेज करने वालों के साथ ऐसा होना स्वाभाविक है।
मुझे महापुरुषों के दो प्रसंग याद आ गये।
एक पार्टी में पहुँचे जॉर्ज बरनार्ड शॉ को मेजबान ने 'पार्टी वियर' में आने को कहा।
दुबारा पार्टी में आने के बाद शॉ खाने की चीजों को सूट पर लगाने लगे। पूछने पर
बताया- मुझे नहीं, मेरे कपड़ों को पार्टी में आमंत्रित किया गया है, इसलिए....
दूसरी घटना जरा मार्मिक है। रात डॉ.
राजेन्द्र प्रसाद इलाहाबाद के आनन्द भवन में पहुँचे। आजादी से पहले की बात है।
नेहरूजी सो चुके थे। सीधे-सरल डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को नौकरों ने मामूली गँवई समझा
और बरामदे पर रात गुजारने को कह दिया। दमा की शिकायत थी। बड़े कष्ट से उन्होंने
बरामदे पर जाड़े की वह रात बिताई। सुबह नेहरूजी उन्हें देखकर अवाक् रह गये- सोचिये
कितना शर्मिन्दा हुए होंगे वे...
***
एक और बात बाद में याद आयी। अगाथा क्रिस्टी
ने अपनी आत्मकथा में जिक्र किया है। क्रिस्टी को सम्मानित करने के लिए एक आयोजन
किया गया था। जब क्रिस्टी वहाँ पहुँची, तो गेट पर तैनात सुरक्षाकर्मियों ने
"आमंत्रणपत्र" दिखाने को कहा। क्रिस्टी आमंत्रणपत्र साथ लाना भूल गयी
थीं। वे शर्मिन्दा होकर इधर-उधर टहलने लगीं। कुछ देर बाद किसी ने उन्हें देखा, तब
उन्हें सम्मान के साथ अन्दर ले जाया गया। इस घटना का जिक्र सुनकर अगाथा की बेटी ने
कहा- आखिर आपने क्यों नहीं कहा कि आपही अगाथा क्रिस्टी हैं और आपही को सम्मानित
करने के लिए यह आयोजन किया जा रहा है? बेटी का कहना था- अगर मैं होती, तो जोर-शोर
से प्रचार करती कि मैं ही अगाथा क्रिस्टी हूँ जासूसी उपन्यासों की महान लेखिका!
मगर क्रिस्टी ऐसा नहीं कर पायीं। सोचिये,
कि अगर क्रिस्टी ने अपना परिचय दे दिया होता और जवाब में सुरक्षाकर्मी व्यंग्य से
मुस्कुरा देता, तो उनपर क्या गुजरती?
***
अन्त में एक दूसरी बात।
अँग्रेजी में "sweat" माने पसीना होता है और हिन्दी (संस्कृत) में
"स्वेद" माने पसीना होता है।
शरीर से पसीना निकालने की क्षमता रखने वाले वस्त्र को अगर अँग्रेजी में अगर "sweater" कह सकते हैं, तो हिन्दी में इसे
"स्वेदर" क्यों नहीं कहा जा सकता?
दिल्ली मे भी जब हम लोग मिले थे ... तब भी आप यही स्वेटर पहने हुये थे ... :)
जवाब देंहटाएंजितने लगाव से भाभी जी ने यह स्वेटर बुना है उसी लगाव से आप इसे पहनते है |
जय हो आप दोनों की |