जगप्रभा

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शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

247. अशोक

 


       जीवन वाकई एक नदिया है, जिसके सुख व दुःख दो किनारे हैं।

बीते 27 मार्च को जब हमारे 'उत्सव भवन' में महिलाओं का 'होली मिलन समारोह' मनाया जा रहा था, जिसमें अशोक की पत्नी भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही थी, तब हम, अशोक, राजेश और लालू भैया (बाद में शान्तनु भी) बाहर ही खड़े थे। कितना खुशनुमा माहौल था। कार्यक्रम के अन्त में सभी महिलाएं, लड़कियाँ और बच्चे बाहर आकर गोलगप्पे और चाट खा रहे थे, तब अशोक ही हँसी-मजाक के साथ सबको एक-एक आइस्क्रीम थमा रहा था।

       इसके मात्र दस दिनों के बाद अचानक आधी रात में खबर मिली कि अशोक नहीं रहा! हम सभी सन्न रह गये। पता चला, चार-छह दिनों से उसकी तबियत खराब थी- शायद जौंडिस का अन्देशा था। आखिरी दिन (7 अप्रैल) को वह दुर्गापुर (प. बंगाल) में था एक रिश्तेदार के घर। शायद साँस लेने में तकलीफ होने लगी थी। किसी अस्पताल ने भर्ती नहीं किया शायद और रात में वह चल बसा। 

       यह एक त्रासदी थी। अभी बीते दिसम्बर में ही हमने अपनी एक चचेरी बहन को खोया, जिसे हम बहुत मानते थे। और अब एक प्यारा दोस्त! किसी की उम्र नहीं थी जाने की।

       ***

       हमारे मुहल्ले और आस-पास के दो-तीन मुहल्लों में करीब दो दर्जन ऐसे नौजवान होंगे, जो अशोक के एक ईशारे पर कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते थे। यहाँ "कुछ भी" से मतलब वाकई "कुछ भी" है। ये नौजवान जान छिड़कते थे उस पर। बहुत कम लोगों में यह गुण होता है कि वह एक तरफ समाज के निचले तबके के लोगों (जिन्हें अँग्रेजी में 'ले-मैन' कहते हैं शायद) के साथ भी घुला-मिला रहे और समाज के पोश वर्ग ('इलीट' क्लास कहते हैं जिसे) के साथ भी तथा पोश माहौल में भी अपना रूतबा और दबदबा बनाये रखे। अशोक में यह गुण था। इसमें उसका छह फुट का कद, गोरा रंग और बातचीत की हाजिरजवाब शैली काम आती थी। व्यापारिक बुद्धि उसकी बहुत तेज थी। नाप-तौल कर, हिसाब-किताब करके वह इन्वेस्ट करता था और जीवन में कभी असफल नहीं हुआ। उसका उदाहरण दिया जाता था।

       हमसे ढाई-तीन साल छोटा रहा होगा, उसका बड़ा भाई रंजीत मेरा हमउम्र है, लेकिन हाई स्कूल तक पढ़ाई हमने साथ ही की थी, इस लिहाज से, दोस्ती लंगोटिया वाली ही थी।    

       ***

       1996 में जब अंशु के साथ हमने शादी करने का फैसला किया था और आनन-फानन में 'बसन्त पंचमी' का दिन तय कर लिया था, तब एक अशोक ही था, जो मेरे साथ मेरठ गया था- हम तब तेजपुर (आसाम) में पोस्टेड थे। ट्रेन से घर आये और घर से अशोक के साथ पहले ग्वालियर पहुँचे- यह मेरी पिछली युनिट थी एयर फोर्स की। योजना के अनुसार हम कई लोग पहले लुधियाना गये- संजीव शर्मा (बेशक, वायुसैनिक) की शादी में। रास्ते में एक हिमाचली वायुसैनिक के साथ अशोक की खूब दोस्ती हो गयी थी- पता नहीं, 'उनियाल' या क्या नाम था उसका। लुधियाना से हम देवगण (ये अब भी एयर फोर्स में ही हैं) के साथ दिल्ली आये। देवगण लोग ऐसे तो अमृतसर के थे, पर हाल ही में दिल्ली में बसे थे। दिल्ली से हम और अशोक मेरठ आये थे।

       बेशक, तब तक पिताजी भी मेरठ पहुँच चुके थे, पर मेरी तरफ से शादी का सारा इन्तजाम अशोक ने ही वहाँ सम्भाल लिया था- देवगण बाद में पहुँचे थे। अंशु का- श्रीमतीजी का असली देवर वही रहा।

       वही अशोक नहीं रहा। यकीन करना मुश्किल है।   

***

       तस्वीर की पृष्ठभूमि में गंगा किनारे जलती जो चिता है वह अशोक की है, जिसमें उसके छह फीट के लम्बे-चौड़े शरीर को जलाकर राख कर दिया गया। जब उसका बाँया हाथ जलती चिता से ऊपर उठा था, तब हम कुछ समझ नहीं पाये थे। आज ध्यान गया- अरे वह तो बचपन में "बँयहत्था" हुआ करता था- लेफ्टी। क्या पता, आजकल भी वह बाँये हाथ का ही ज्यादा इस्तेमाल करता हो- हमने ध्यान नहीं दिया।

       ...तो वह बाँये हाथ से "बाय" कर रहा था...

       ***** 

पुनश्च: 

कुछ भूली-बिसरी... 


25 जनवरी 1996

देवगण और अशोक हमारी शादी में।

 

ताजमहल में अशोक और हम।

ग्वालियर के बाड़े सर्कल में। अशोक के साथ उत्तम भी है और उनके सामने है- रंजन चौधरी (वायुसैनिक)
एक पिकनिक। हनीफ, बिनय और हम बैठे हैं और अशोक और रेजाऊल कुर्सियों पर हैं।


मेरी यह शानदार तस्वीर अशोक ने खींची थी।