चौथी-पाँचवी कक्षा में हमें तीन ऐसी शख्सीयतों के बारे में पढ़ने
का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, जिनके लिए ‘थे’ के स्थान पर ‘हैं’ शब्द का प्रयोग किया
गया था।
हम सहपाठियों के बीच यह कौतूहल और चर्चा का विषय बन गया था- अच्छा, तो ये अभी
जीवित हैं? क्या हमलोग आज भी इनसे मिल सकते हैं, या इन्हें पत्र लिख सकते हैं?
खैर, मिलना या पत्र लिखना तो नहीं हुआ, मगर इतना है कि हमने यह
जाना कि कुछ लोग अपने जीते-जी ही किंवदन्ती बन जाते हैं, एक ऐसे मुकाम पर पहुँच
जाते हैं कि पाठ्य-पुस्तकों में उन्हें शामिल कर लिया जाता है।
वे
तीन शख्सीयत थे- 1. आचार्य बिनोवा भावे, 2. ‘सीमान्त गाँधी’ खान अब्दुल गफ्फार खाँ
और 3. फिदेल कास्त्रो।
बिनोवा भावे मेरे किशोर मन को ज्यादा प्रभावित नहीं कर सके, कारण
शायद यह था कि उनके जीवन में संघर्ष और रोमांच नहीं था। हालाँकि डाकूओं के
आत्मसमर्पण वाली घटना में थोड़ा-सा रोमांच था, मगर संघर्ष तो उनके जीवन में कहीं
नजर नहीं आया हमें।
सीमान्त गाँधी ने
प्रभावित किया। हमारे मुहल्ले के बुजुर्ग- अरूण के दादाजी- ने बताया कि वे बरहरवा
भी आये थे। रेलवे के तालाब के किनारे एक नाँद को उल्टा कर दिया गया था और उसी पर
खड़े होकर उन्होंने एक छोटे-से जन-समूह को सम्बोधित किया था।
...और फिदेल कास्त्रो? वे तो मेरे किशोर मन के लिए नायक-सरीखे बन
गये थे!
वही फिदेल कास्त्रो कल
दुनिया छोड़ गये। बिनोवा भावे और गफ्फार खान तो बहुत पहले ही दुनिया छोड़ चुके हैं- पिछली
सदी में ही। मगर बीसवीं सदी के एक नायक कल अलविदा हुए। कल सोशल मीडिया पर किसी की
टिप्पणी नजर आयी-
“बीसवीं सदी का आधिकारिक
रुप से अन्त हुआ।“
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