जगप्रभा

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सोमवार, 31 मार्च 2014

106. "ढेलाकंटा" के फूल तथा नववर्ष





       "ढेलाकंटा" एक फल हुआ करता था हमारे इलाके में। छोटा-सा फल काला-सा। स्वाद कुछ खास नहीं, मगर बच्चों को इसे पेड़ से तोड़कर खाने में उतना ही मजा आता था, जितना कि बेर तोड़कर खाने में।
       इस पेड़ की खासियत यह थी कि गर्मियाँ शुरु होते ही इसके सारे पत्ते झड़ जाते थे और इसकी सारी टहनियाँ सफेद फूलों से लद जाती थीं।
       बाद में इसमें नयी पत्तियाँ आती थीं और फल लगने शुरु हो जाते थे। जब गर्मी चरम पर होती थी, तब इसके फल पकते थे।
       पहले तो हमारे घर के पिछवाड़े में ही इसका एक विशाल पेड़ हुआ करता था। उसपर हमलोग झूला भी डालते थे, गर्मियों की दोपहर उसी के नीचे खेलते थे और पेड़ पर चढ़कर ढेलाकंटा तोड़ते थे।
       अब इसके बड़े पेड़ नहीं दीखते। इक्के-दुक्के छोटे पेड़ दीख जाते हैं। ऐसे ही एक पेड़ के सफेद फूलों को देखकर याद आया- हमारे विक्रम सम्वत् के नये साल का असली स्वागत तो यही करता है। हालाँकि पीपल में भी नये पत्ते आ चुके हैं, मगर फूल तो फूल ही हैं...
       उसी पेड़ की एक तस्वीर 
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एक क्लोज-अप भी- 


गुरुवार, 27 मार्च 2014

105. काली-सफेद


      
 जब मैं 22-23 साल का युवा हुआ करता था, तब अक्सर काली पैण्ट और सफेद शर्ट पहनना पसन्द करता था; और आज जबकि मैं 45-46 साल का अधेड़ (बल्कि बुजुर्ग!) हूँ, तो अक्सर गहरे रंग की शर्ट पहनता हूँ! (मेरे ब्लॉग 'आमि यायावर' में जाकर पड़ताल किया जा सकता है कि सफेद शर्ट-काली पैण्ट मुझे कितनी पसन्द थी!)
       मेरे ड्रेस कोड में इस परिवर्तन के पीछे श्रीमतीजी का हाथ रहा है और मुझे सन्देह है कि श्रीमतीजी के ब्रेन वाश के पीछे मेरे किसी रिश्तेदार का हाथ रहा है- कि इसे काली पैण्ट और सफेद शर्ट पहनने से रोको-
       खैर, श्रीमतीजी को आधी सफलता ही मिल पायी; क्योंकि शर्ट तो मैंने सफेद पहननी छोड़ दी, मगर काली पैण्ट मैं नहीं छोड़ पाया और अन्त में श्रीमतीजी ने इसे स्वीकार कर लिया। अब वे खुद ही मेरी पैण्ट के लिए काला कपड़ा पसन्द करती हैं। (वैसे, काले में भला पसन्द कैसी?)
       जब मैं दसवीं में था, तभी काली पैण्ट का चस्का लगा था। यानि आज करीब तीस साल से मैं काली पैण्ट ही पहन रहा हूँ! बीच में दो-तीन बार दूसरे रंग को आजमाना चाहा, पर बात नहीं बनी। यहाँ तक कि (युवावस्था के दिनों में) मेरी जीन्स भी काली ही हुआ करती थी।
       कुछ साल पहले मेरी पुरानी पसन्द को ध्यान में रखते हुए श्रीमतीजी ने सफेद शर्ट बनवायी थी मेरे लिए, मगर पहनने का ध्यान ही नहीं रहता। अब तो ऐसी स्थिति है कि जो कपड़े वे निकाल कर रखती हैं, वही पहन लेता हूँ। दो-चार रोज पहले पता नहीं कैसे उन्होंने सफेद शर्ट निकाल दी। उसे पहनने के बाद मैंने कहा- चलो तस्वीर भी खींच दो सफेद शर्ट काली पैण्ट में। उन्होंने मेरी गलतफहमी दूर की- यह सफेद नहीं, हल्का आसमानी है। जो भी हो, मुझे तो सफेद ही लगती है। सो उस तस्वीर के बहाने यह लिख रहा हूँ।
       साथ ही, एक जमाने के एक विज्ञापन की एक मशहूर्‍ 'पंच लाइन' की तर्ज ("पनामा के दमदार कश की कसम, किसी फिल्टर में कहाँ ये दम!"- अब हिन्दी में ऐसे दमदार विज्ञापन बनते ही कहाँ हैं?) पर कहना चाहता हूँ- "काली-सफेद की कसम, किसी रंग में कहाँ ये दम!"    

रविवार, 23 मार्च 2014

104. एक आश्चर्यजन घटना



       यह घटना होली के ठीक बाद वाले मंगलवार (18 मार्च) की है। अभी-अभी मेरे दोस्त ने इसे सुनाया- घटना उसी के साथ घटी है।
       उसदिन सुबह वह माँ तारा (काली माता) का दर्शन करने तारापीठ गया था। वहीं से पहाड़ी बाबा के आश्रम में भी वह गया था। बरहरवा के कई लोग उसके साथ थे।
       रात करीब पौने नौ बजे उसके मोबाइल में रोशनी हुई और वह वाइब्रेट करने लगा। उसकी बेटी बगल से गुजर रही थी, उसने फोन उठाया और चौंककर पापा को आवाज दिया। मेरा दोस्त भी तुरन्त मोबाइल के पास गया- स्क्रीन पर हनुमानजी की एक सुन्दर तस्वीर बनी हुई थी। दोस्त का कहना है कि ऐसी सुन्दर तस्वीर उसने पहले कभी नहीं देखी थी- हनुमानजी कन्धे पर गदा लिए एक घुटना मोड़कर (वीरासन में) बैठे हुए थे- पृष्ठभूमि रंग-बिरंगी थी।
जब तक मेरा दोस्त अपनी बेटी से यह कहता कि इस तस्वीर को सेव कर लो, तब तक धीरे-धीरे वह तस्वीर गायब होने लगी। फिर एकदम से अदृश्य हो गयी। यह सारा घटनाक्रम 7 या 8 सेकण्ड का था।
दोस्त का भतीजा मोबाइल का पूरा जानकार है। उससे कहा गया कि अगर यह तस्वीर मोबाइल में कहीं है, तो वह खोज निकाले या पता लगाये कि यह क्या था- क्या मैसेज था, या ब्लूटूथ से आयी कोई तस्वीर थी? उसने मोबाइल छान मारा- कहीं कोई संकेत नहीं मिला कि ऐसी कोई तस्वीर कहीं से आयी भी थी!
जबकि इस तस्वीर को मेरे दोस्त के अलावे उसकी बड़ी बेटी ने भी देखा था और तस्वीर इतनी भव्य थी कि वह चौंक गयी थी!
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अब यहाँ दो सवाल उठते हैं।
एक- मेरे दोस्त ने तारापीठ में सिर्फ तारा माँ का दर्शन किया था- आस-पास के अन्यान्य छोटे-मोटे मन्दिरों में वह नहीं गया था। क्या यह कोई चेतावनी है- हनुमानजी के तरफ से?
दो- मेरा दोस्त हनुमान चालीसा का पाठ करता है- भले नियमित नहीं, मगर पूरी भक्ति से। क्या हनुमानजी ने वास्तव में उसे दर्शन देकर उसपर कृपा की है?
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एक तीसरा सवाल भी है- क्या मोबाइल के जानकार कोई बन्धु बता सकते हैं कि 7 या 8 सेकेण्ड के लिए किसी के मोबाइल में तस्वीर भेजना सम्भव है या नहीं? 
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पुनश्च (27.3.14)
कल (26 मार्च) रात जब मैं रोज की तरह ट्रेन से उतरा, तो उत्तम बेसब्री से मेरा इन्तजार कर रहा था। उसने बताया कि बीते मंगलवार (25 मार्च) को फिर वही घटना घटी- उसी समय। (समय का उसने संशोधन किया- रात 9:05 बजे।) इस बार हनुमांजी की तस्वीर को घर के सभी 5 सदस्यों ने देखा।
उसने बताया कि पिछली बार मोबाइल फुल चार्ज था, मगर तस्वीर आने से पहले जो वाइब्रेशन हुआ, उससे बैटरी आधी से कम हो गयी थी। इस बार बैटरी 70 प्रतिशत चार्ज थी। तस्वीर आने के साथ जो वाइब्रेशन हुआ, उससे बैटरी "लो" हो गयी। क्या एक 5-7 सेकण्ड के वाइब्रेशन से किसी मोबाइल की बैटरी आधी खर्च हो सकती है? जबकि आम तौर पर ऐसा नहीं होता। वाइब्रेशन भी सामान्य नहीं था, बल्कि कुछ ज्यादा ही तेज था!
क्या है यह? 

रविवार, 16 मार्च 2014

103. 'जोगीरा'-'सम्मत'-होली





15 मार्च 14/जोगीरा
       वर्षों पहले (करीब दस साल पहले) पटना के बाकरगंज से 'जोगीरा' का एक 'कैसेट' खरीदा था हर होली में उसी को झाड़-पोंछ कर चला लिया करता था
अभी कुछ रोज पहले साहेबगंज में था तो वहाँ फुटपाथ से एक सीडी खरीदी- जोगीरा का ज्यादातर वही गाने हैं, जो कैसेट में हैं- सर्वानन्द ठाकुर, ओमप्रकाश सिंह वगैरह के गाये हुए
बता दूँ कि आम तौर पर भोजपुरी में जो होली के जो फूहड़ गाने बजते हैं, मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूँ मैं जोगीरा की बात कर रहा हूँ, जिनमें गजब की मस्ती होती है
कोई जमाना था, जब हमारे बरहरवा में भी होली से काफी पहले शाम को होली के गीत गाते हुए टोली घूमती थी- बेशक, उसमें "जानी" भी होते थे "जानी" यानि लड़की बनकर नाचने वाला पुरुष अन्तिम दिनों में वे पैसे भी लेते थे घरों से
अब कहाँ ढोल-मंजीरा, कहाँ होरी-फाग और कहाँ जोगीरा.... अब बरहरवा भी शहर बन रहा है...
अब तो इन्हीं सीडियों को थोड़ा-बहुत बजा लिया जाय, वही बहुत है बहुतों को यह भी फूहड़पन लगता है मगर मेरी नजर में अगर आपने जोगीरा नहीं सुना होली पर, तो एक बहुत बड़ी चीज खो रहे हैं...
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16 मार्च 14/सम्मत
रात साढ़े नौ बजे सम्मत जला। सम्मत यानि होलिका। सबकुछ वैसा ही था, जैसा हमारे बचपन में हुआ करता था, बस लोग-बाग कम जुटे थे।
अब लड़के सम्मत की सामग्री कैसे जुटाते हैं, पता नहीं। हमलोग होलिका दहन की सुबह कहीं से रेंड़ी (अरण्डी) का एक पेड़ काट लाते थे और उसे खेत के बीच में गाड़ देते थे। दोपहर बाद यमुना भगत के दरवाजे पर बच्चों, किशोरों, युवाओं का हुजुम इकट्ठा हो जाता था- बैलगाड़ी की माँग लेकर। सिर्फ गाड़ी चाहिए होती थी हमें- बैल नहीं। बैल बनने के लिए हमलोग ही काफी होते थे। कुछ बड़े लड़कों को जिम्मेवारी देकर वे गाड़ी दे देते थे।
इसके बाद हो-हल्ला मचाते हुए बैलगाड़ी लेकर बच्चों-किशोरों-युवाओं की यह टोली मुहल्ले-मुहल्ले घूमती थी और प्रत्येक घर से लकड़ी, गोयठा (उपला), पुआल, इत्यादि इकट्ठा करके अरण्डी के गड़े पेड के चारों तरफ जमा करती थी। दो-चार फेरों में ही काफी सामग्री इकट्ठी हो जाती थी।
रात पण्डित जी आकर पहले पूजा करते थे, उसके बाद प्रदीप के दादाजी सम्मत को आग देते थे। प्रदीप के दादाजी का नाम चाहे जो रहा हो, पर वे 'घुरबिगना' नाम से जाने जाते थे- पता नहीं क्यों। मुहल्ले के प्रायः सभी लोग वहाँ मौजूद होते थे। बाद में प्रदीप के पिताजी सम्मत को आग देने लगे और आज देखा- प्रदीप ने पूजा के बाद सम्मत को आग दिया। मैंने रामेश्वर जी से पूछा- ऐसा क्यों कि इसी परिवार के लोग सम्मत को आग देते हैं? कारण वे भी नहीं बता पाये। उल्टे उन्होंने एक और त्यौहार का नाम लिया, जिसकी शुरुआत उसी घर से होती है।
खैर, जलते सम्मत के चारों तरफ घूमने तथा उस आग में चने और जौ की झाड़ को जलाकर प्रसाद बनाने की परम्परा अब भी कायम है।
याद है कि कई बार इस क्रम में बदमाशियाँ भी होती थी। जैसे, एकबार कल्याण क्रिश्चियन के खेत के बाड़ को जला दिया गया था; एक बार जयश्री टॉकीज के जेनरेटर रूम की छत से सिनेमा हॉल की टूटी कुर्सियों-बेंचों को जबर्दस्ती उतार लिया गया था; एकबार महावीर भगत के आँगन से कटे पेड़ के तने को लाकर जलते सम्मत में डाल दिया गया था और एकबार ताड़ के पेड़ों पर लटकती कुछ 'लबनी' (मिट्टी की छोटी कलशी, जिसमें रात भर रस इकट्ठा होता है) को पत्थर मारकर तोड़ दिया गया था। हालाँकि कभी बात बढ़ी नहीं थी।
खैर, अब तक तो होली जल रही है। मगर जिस हिसाब से खेत-खलिहान कालोनियों-मकानों में तब्दील हो रहे हैं, लगता नहीं है कि दस साल बाद होलिका दहन के लिए ऐसी खुली जगह- मुहल्ले के अन्दर- कहीं बचेगी।
अब देखा जाय, कल होली कैसी मनती है...  
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17 मार्च 14/होली
       सुबह-सुबह जयचाँद के साथ दिग्घी के तरफ पहाड़ की तलहटी में बसे एक सन्थाली गाँव की ओर निकल गया। इस होली में शराब-बीयर कुछ लेने का इरादा नहीं था। सो, खजूर का ताजा रस ले आया एक कैम्पर में। जयचाँद, उत्तम, कुन्दन और सन्तोष भैया के साथ वही पीया गया। विनय भी साथ बैठा। दही-बड़ा, इमली बड़ा, मठरी, निमकी का भी दौर चला।
       अशोक की महफिल हर साल की तरह जमी हुई थी- गाजे-बाजे, खाने-पीने के साथ। वहाँ भी गये हमलोग। पैर में प्लास्टर के कारण रंजीत इस बार रंग नहीं खेल रहा था। उससे मिलने गये। दोपहर में महिलाओं की होली शुरु हुई- देखकर लगा, असली होली तो यही है- बाल्टी भर-भर कर रंग एक-दूसरे पर उड़ेला जा रहा था। वैसे, बच्चों की होली भी जबर्दस्त होती है। बस, पुरुषों की होली ही दारू-मुर्गा के चक्कर में बेकार हो जाया करती है।
       डेढ़ बजे नहा-धोकर, जितना रंग छूटा, उतना छुड़ाकर खाना खाकर जब आराम के मूड में था, तब प्रमोद, रविकान्त, घनश्याम होली खेलते हुए पहुँचे। साथ में कुष्माकर और अशोक भी पहुँचे। दही-बड़ा आदि खाया गया। इसके बाद आराम किया।  
       हमारे इलाके में होली दो चरणों में होती है- सुबह से दोपहर तक गीले रंग की होली, जो मौज-मस्ती, हुल्लड़, हो-हंगामे के साथ होती है; और शाम को नये या अच्छे कपड़े पहन कर गुलाल की सूखी होली, जिसमें बड़ों के पैरों पर गुलाल डाला जाता है, बच्चों के माथे पर गुलाल का टीका लगाया जाता है और हमउम्र के गालों-बालों को गुलाल से भर दिया जाता है। इसी के साथ पकवानों का दौर भी चलते रहता है।
       फिलहाल वही गुलाल वाली होली शुरु हो गयी है- शुरुआत बच्चे करते हैं- घर-घर जाकर बड़ों के पैरों पर गुलाल डालकर आशीर्वाद लेते हुए.....