जगप्रभा

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रविवार, 13 मार्च 2016

160. सुहाने मौसम का फायदा


       कल दिन में कुछ ज्यादा ही गर्मी थी। रात ढलने तक गर्मी रही। उसके बाद तेज हवाओं का चलना शुरु हुआ, जो भोर होने तक जारी रहा। नतीजा, अगला दिन- यानि आज का दिन सुहाना हो गया। हम भी निकल पड़े।
       पहले बिन्दुवासिनी मन्दिर में जाकर हमने पूजा की। देखा, 108 सीढ़ियों पर टाईल्स बैठाते हुए उन्हें नया रुप दिया जा रहा है। कुछ दिनों बाद ही होने वाले रामनवमी महोत्सव में आने वाले श्रद्धालु नयी सीढ़ियाँ चढ़कर मन्दिर तक आयेंगे। फिर वहीं पहाड़ी में एक तरफ नाश्ता किया। श्रीमतीजी घर से परांठे ले आयी थीं और वहाँ माणिक'दा की दूकान से घुघनी ले लिया गया।





       इसके बाद हमलोग बिन्दुवासिनी पहाड़ के पीछे बोरना या घोड़ाघाटी पहाड़ की तरफ चले गये, जहाँ पत्थरों के खदान और क्रशर हैं। ये पहाड़ियाँ कभी हरे-भरे जंगलों से ढकी होती थी। खदान और क्रशर तब भी हुआ करते थे, पर एक तो उनकी संख्या कम थी और दूसरे, काम सिर्फ दिन में होता था। अब बड़े-बड़े डीजी सेट लगाकर रात-दिन काम होता है, खदानों-क्रशरों की संख्या अन्धाधुन्ध तरीके से बढ़ गयी हैं, लगभग सारे प्लाण्ट फुल्ली ऑटोमेटिक हो गये हैं, जेसीबी, पोकलेन मशीनों की मदद ली जाती है और जहाँ चार-छह पहियों वाले ट्रकों में पत्थरों की ढुलाई होती थी, वहाँ डम्पर और दस-बारह पहियों वाले ट्रक अब चलते हैं। कहने की जरुरत नहीं कि लगभग 80 से 90 प्रतिशत खनन अवैध तरीकों से होता है। हम-आप कुछ नहीं कर सकते क्योंकि झारखण्ड में मंतरी से संतरी तक सब अपना-अपना हिस्सा लूटने में लगे हुए हैं और लूट रहे हैं। यहाँ तक कि रेलवे और बैंक-जैसी संस्थायें भी इस बहती गंगा में हाथ धो रही हैं। कोढ़ में खाज के समान लकड़ी-माफिया अलग से इन पहाड़ियों में सक्रिय है। अगर आपने पिछले पन्द्रह वर्षों में हमारे झारखण्ड से जुड़ी कोई "सकारात्मक" या "अच्छी" खबर सुनी हो, तो जरुर बताईयेगा- मेरे तो कान तरस गये हैं ऐसी कोई खबर सुनने के लिए!

       खैर, इस तरह की बातें मैं अपने इस ब्लॉग में नहीं लिखता (इसके लिए अलग ब्लॉग है और वह भी फिलहाल बन्द है), फिर भी लिख दिया, क्योंकि है तो यें हमारे "आस-पास" की बातें ही।
       पहाड़ियों के तरफ जाते समय हमने सन्थालों की कुछ झोपड़ियों की तस्वीरें खींची। इन झोपड़ियों की प्रशंसा में हम क्या कहें, आप चित्र देखकर खुद ही समझ जाईये।





       वापस लौटते समय हमने नहर के पास सड़क के किनारे से "सेनवार" की झाड़ियों की कुछ फुनगियाँ तोड़ लीं। इन पत्तियों को गेहूँ और चावल के साथ रखने पर कीड़े- खासकर, "सूण्डा" कीड़ा, जो किसी भी स्थिति में पैदा हो ही जाता है- नहीं लगते। पिछले साल हमने यही किया था और अब तक हमारे अनाज कीड़ों से  सुरक्षित हैं। "सेनवार" का यह गुण राजन जी ने बताया था, वे बहुत सारे विषयों के जानकार हैं। उनसे पहले जब मैंने चौलिया के किसानों से पूछा था, तो तड़ाक् से उत्तर मिला था- "टैबलेट" डालकर रखो! मैंने जानना चाहा कि कौन-सा टैबलेट, तो पता चला, वे "सल्फाल" की गोलियों की बात कर रहे हैं! मैंने हैरान होकर कहा- वह तो जहर है! जवाब मिला- और कोई इलाज नहीं है। बताईये, जो चावल-गेहूँ उपजाते हैं, उनकी मानसिकता ऐसी है। इसी प्रकार, जैविक खाद की बातों पर वे हँसते हैं, कहते हैं- बिना रासायनिक खाद डाले कुछ उपजेगा ही नहीं! जी तो करता है, मैं खुद ही दो-एक साल खेती करके उनकी आँखें खोल दूँ, पर छोड़ देता हूँ।

       हाँ, नहर की बात पर एक संशोधन जरुरी है। बिहार-झारखण्ड में नहर की बात सुनकर किसी को भी चौंक जाना चाहिए! नहरें तो हमारे प्रथम प्रधानमंत्री महोदय ने पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में बनवायी थीं- पिछड़े इलाकों को तो राम-भरोसे छोड़ दिया गया था। दरअसल, 1980 के आस-पास राजमहल की गंगा को गुमानी नदी से जोड़ने की एक योजना बनी थी कभी, जो बाद में ठण्डे बस्ते में चली गयी। बिन्दुवासिनी पहाड़ी के पीछे दो-तीन किलोमीटर लम्बी नहर खुद गयी थी इसी योजना के तहत। अब उसमें बरसात का पानी जमा रहता है और लोगों के लिए जलाशय का काम देता है।

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159. शिवजी और हनुमानजी के गुण और हम

(इस आलेख को मैंने लिखा तो था शिवरात्रि के दिन, पर कुछ कारणों से पोस्ट नहीं कर पाया था.)

       शिवजी आडम्बर एवं विलासिता से रहित जीवन व्यतीत करते हैं- सादगी भरा। वे कभी कोई छल-प्रपंच नहीं रचते- न ही किसी के द्वारा रचे गये प्रपंच में स्वयं को शामिल करते हैं। उनका स्वभाव भोला है, सरल है। वे बहुत आसानी से और बहुत जल्दी किसी पर भी प्रसन्न हो जाते हैं। लेकिन... लेकिन... लेकिन...
       ...अगर किसी ने उन्हें क्रोध दिला दिया, तो फिर तीनों लोकों में किसी की मजाल नही है कि वह उनके सामने ठहर सके! उनके "ताण्डव" से सभी भय खाते हैं।
       अपने पौराणिक आख्यानों में मुझे शिवजी के ये गुण बहुत पसन्द हैं। मेरे विचार से, हर व्यक्ति, समाज या राष्ट्र को ऐसा ही होना चाहिए- आडम्बर एवं विलासिता से दूर, सादगी भरा जीवन: न कोई छल-प्रपंच रचना और न ही किसी के द्वारा रचे गये प्रपंच में स्वयं को शामिल करना; आम तौर पर स्वभाव से सरल, भोला और उदार होना- यानि जरुरतमन्दों की भलाई के लिए सदैव तत्पर रहना; किसी भी दूसरे व्यक्ति, समाज या राष्ट्र के साथ प्रसन्नचित्त होकर एवं खुले मन से मिलना-जुलना; लेकिन... लेकिन... लेकिन...
       हर दूसरे व्यक्ति, समाज या राष्ट्र को यह अच्छी तरह से पता होना चाहिए कि अगर यह क्रोधित हो गया, तो फिर रक्षा नहीं है! यानि कोई दूसरा बेवजह छेड़ने, धौंस जमाने, हड़काने, डराने-धमकाने, या लड़ने-झगड़ने की हिम्मत न कर सके।
       सिर्फ और सिर्फ सरल, दयालु, उदार होना ठीक नहीं। मैंने कहीं पढ़ा कि पारसी समुदाय सिर्फ अत्याचार सहने में विश्वास रखता है, प्रतिरोध करने में नहीं। आज उनकी पहचान कुछ खास नहीं है। देश के अन्दर काश्मीरी पण्डितों ने भी संगठित होकर प्रतिरोध करने का हौसला नहीं दिखाया- परिणाम सामने है! ऐसा मैंने कहीं पढ़ा, सो जिक्र कर रहा हूँ। यहूदियों ने संगठित होकर अत्याचार का प्रतिरोध किया और आज उन्हें छेड़ने या हड़काने की हिम्मत किसी में नहीं है!
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       कहते हैं कि रामायणकाल में शिवजी ने ही हनुमानजी का रुप धारण किया था। अब यह संयोग ही है कि मुझे हनुमानजी का चरित्र भी बहुत पसन्द है।
       सोचकर देखिये, कितनी शक्तियाँ प्राप्त हैं हनुमानजी को- वे क्या नहीं कर सकते! मगर उनकी विनम्रता तो देखिये... ओह, मन भर आता है। इतनी शक्तियाँ प्राप्त होते हुए भी इतनी विनम्रता!
       मुझे लगता है हर व्यक्ति, समाज या राष्ट्र को ऐसा ही होना चाहिए। वह शक्तिवान बने, मगर जरुरत पड़ने ही अपनी शक्तियों का उपयोग करे। शक्तियों का लेशमात्र भी अहंकार वह मन में न पाले।

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शनिवार, 5 मार्च 2016

158. 'खेत देके'


       अपने बचपन में हम "खेत देके" स्कूल जाना पसन्द करते थे। "खेत देके" मतलब- खेत से होकर।
       पूरी बात इस तरह है कि हमारा घर जिस सड़क पर है, उसका नाम "बिन्दुधाम पथ" है और यह बरहरवा के "मेन रोड" यानि मुख्य सड़क के लगभग समानान्तर है। हमारा स्कूल यानि "श्री अरविन्द पाठशाला" मुख्य सड़क पर था। था मतलब अब भी है, अब भवन बदल गया है। इन दोनों समानान्तर सड़कों के बीच खेतों का एक बहुत बड़ा रकबा है, जहाँ धान की खेती होती थी- अब भी होती है। गेहूँ-जौ या दलहन-तेलहन की फसल कम ही लोग लगाते थे- अब तो खैर, कोई भी नहीं लगाता। यूँ तो हम सालभर ही खेत देके स्कूल जाना पसन्द करते थे, मगर बरसात में हमें मना किया जाता था। खेतों में पानी भरा होता था, जिसमें धान की फसल खड़ी रहती थी और मेड़- जिसे हम "आली" कहते थे- घास से ढकी होती थी। हम अक्सर घरवालों की अनसुनी करके कीचड़ वगैरह लाँघते-फलाँगते खेत देके ही स्कूल जाना पसन्द करते थे। नवम्बर में धान की फसल कटने के बाद तो बच्चे क्या, बड़े तक इस खेत वाले रास्ते को अपनाते थे। प्रायः हर खेत में टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डियाँ बन जाया करती थीं।
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       जमाना बीता। इस खेत वाले रास्ते को मैं भूल ही गया था।
       पिछले कुछ दिनों से फिर इसी रास्ते से, यानि "खेत देके" जाना-आना कर रहा हूँ। अब हालाँकि एक छोटे-से हिस्से की "प्लॉटिंग" हो गयी है और कंक्रीट निर्माण शुरु हो गया है, फिर भी निन्यानबे फीसदी हिस्सा अब भी खेत ही है। बीच-बीच में जो तीन "बाड़ियाँ" थीं, वे अब भी हैं, मगर अब वहाँ पेड़ या जंगल कुछ कम नजर आ रहे हैं। एक तालाब था, वह अब भी है।
       अब बड़े होने के बाद इस छोटे रास्ते- शॉर्टकट- से गुजरते वक्त एक अलग किस्म का अहसास होता है। सड़क को छोड़कर किसी पतली या चौड़ी गली में कुछ कदम चलने के बाद हम अचानक एक खुली- विस्तृत- जगह पर आ जाते हैं... ऐसा लगता है, किसी अलग दुनिया में आ गये हैं!
       पता नहीं, कितने लोग होंगे, जो मेरे इस मनोभाव को ठीक-ठीक समझ सकेंगे... क्योंकि जिन्दगी की आपाधापी में हम अपने आस-पास के ऐसे इलाकों को अक्सर देखकर भी अनदेखा कर देते हैं... कुछ अहसास करना तो बहुत दूर की बात होती है...

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